वीडियो एडिटर- पुरुणेंदू प्रीतम
कैमरा- अभय शर्मा
क्या बलात्कारी का कोई धर्म होता है? क्या रेपिस्ट की कोई जात होती है? क्या आठ साल की मासूम बच्ची के साथ गैंगरेप के आरोपियों का समर्थन सिर्फ इसलिए हो सकता है, क्योंकि वो हिंदू हैं और, दरिंदगी की शिकार बच्ची मुसलमान थी?
देश में इंसानियत की लाश पर चढ़कर धर्म की घिनौनी राजनीति करने वाली ऐसी संस्थाओं की लंबी फौज है. कैसे बनती हैं ये संस्थाएं कौन इन्हें बनाता है और कौन शह देता है?
कठुआ में 17 जनवरी को एक आठ साल की बच्ची का क्षत-विक्षत शव मिलता है. बच्ची से कुछ दरिंदों ने गैंगरेप किया था. 22 जनवरी को मामले की जांच क्राइम-ब्रांच को सौंपी जाती है और अगले ही दिन यानी 23 जनवरी को एक संगठन खड़ा होता है- हिंदू एकता मंच.
हिंदू एकता मंच खुलेआम कठुआ गैंगरेप के आरोपियों की गिरफ्तारी का विरोध करता है. उनके पक्ष में रैली निकालता है. मंच के अध्यक्ष विजय शर्मा का दावा है उनका मंच गैर राजनीतिक है. तो क्या ये इत्तेफाक की बात है कि वो खुद बीजेपी के राज्य सचिव हैं?
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बात सिर्फ कठुआ की नहीं है. जगह-जगह भगवा झंडे और हिंदू ब्रांडिग के साथ उत्पात मचाने, गुंडागर्दी करने और हुक्म चलाने वाले ये संगठन क्या वाकयी गैर-राजनीतिक हैं? या फिर ये मुखौटा है किसी बड़ी राजनीति का.
24 जनवरी, 2009- मंगलौर के एक पब में लड़कियों को दौड़-दौड़कर पीटने की इन तस्वीरों ने पूरी दुनिया में हमें शर्मसार किया था. हमले का आरोप था श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं पर. श्रीराम सेना के प्रमुख प्रमोद मुथालिक ने छाती ठोककर हमले का समर्थन किया था.
27 अक्टूबर, 2015- हिंदू सेना के कार्यकर्ता दिल्ली के केरल भवन में जबरन घुसे और गुंडागर्दी की. उनका आरोप था कि केरल भवन में गाय का मांस परोसा जा रहा है.
जून, 2017- उसी केरल भवन में उसी आरोप के साथ भारतीय गौरक्षा क्रांति के क्रांतिकारियों ने हमला बोला.
आरोप सही नहीं निकले, लेकिन सवाल ये है कि अगर सही भी होते तो एक्शन पुलिस को लेना चाहिए था. ये हिंदुत्व के स्वयंभू ठेकेदार होते कौन हैं कहीं भी घुसकर हुक्म चलाने के.
फिल्म ‘पद्मावत’ का विरोध तो याद ही होगा आपको. राजपुताना शान के नाम पर करणी सेना ने देश के तमाम राज्यों में उत्पात मचाया था. लेकिन और भी कई संगठन थे जो खून से चिट्ठियां लिख रहे थे, सड़कों पर आग लगा रहे थे. राजपूत करणी सेना, सर्व ब्राह्मण महासभा, अंतरराष्ट्रीय क्षत्रिय वीरांगना फाउंडेशन.
भीमा-कोरेगांव में हिंसा या गौरी लंकेश की हत्या जैसे मामलों में सनातन संस्था का नाम आता है तो लव-जिहाद के खिलाफ हिंदु जागरण मंच खड़ा हो जाता है. कहीं गौरक्षा हिंदू दल है तो कहीं बजरंग दल है. बस नाम अलग-अलग, शक्लो-सूरत वही- भगवा साफे, आक्रामक चेहरे.
इनमें से ज्यादातर संगठन कहीं रजिस्टर नहीं हैं उन्हें कोई सरकारी गैर सरकारी मान्यता नहीं मिली है, लेकिन भगवा झंडों के लाइसेंस के साथ वो हर मनमानी के लिए आजाद हैं.
ये तमाम दल ढोल पीट-पीटकर दावा करते हैं कि वो गैर-राजनीतिक हैं. यानी उनकी गुंडागर्दी का सीधा आरोप किसी पार्टी विशेष पर नहीं लग सकता.
अगर इन्हें कोई राजनीतिक शह नहीं है तो फिर हुक्मरान बताएं कि हर दिन कानून की धज्जियां उड़ाने वाली राजनीति की इन शेल कंपनियों के खिलाफ उन्होंने आज तक क्या कदम उठाया है.
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लेकिन जरा सोचिए कि जब हमारे देश में अनाज के दाम से तेल की कीमत तक, हर चीज चुनावी राजनीति से जुड़ी हो तो इन सब हंगामेबाजों का भी तो कोई चुनावी एंगल होगा.
तो फिर इन गैर-राजनीतिक दलों का फायदा है किसे?
माहौल में भगवा रंग लहरा रहा हो, माहौल श्रीराम और भारत माता के नारों से गूंज रहा हो तो आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए कि फायदा किसे होगा.
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