कैमरा: शिव कुमार मौर्या
वीडियो एडिटर: संदीप सुमन
नक्सल कहिए, नक्सलबाड़ी कहिए या फिर नक्सलवाद और हां, अंग्रेजी का Naxalism भी. ये सारे शब्द सुनकर जेहन में क्या आता है?
गोली-बारूद से थरथराते जंगल? हथियार लिए खड़े कुछ लोग? बारूदी सुरंगे या मिट्टी और खून से सने जवान? क्या यही नक्सलवाद था या ये इसका सबसे बदला हुआ और खून से पुता हुआ चेहरा है, जो आज हम देख रहे हैं. आखिर इस नक्सलवाद की पूरी कहानी क्या है?
नक्सलबाड़ी से हुई थी शुरुआत
शुरुआत करते हैं उस गांव से जहां से इस सबकी बुनियाद पड़ी. पश्चिम बंगाल में एक छोटा सा गांव है...नक्सलबाड़ी. साल 1967. तारीख 25 मई. बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का राज था और किसान आंदोलन अपने चरम पर था. जमींदारों के खिलाफ किसानों में नाराजगी थी.
ऐसे में अपनी जमीन के हक में और जमींदारों के शोषण के खिलाफ... किसानों ने एक विद्रोह शुरू कर दिया. लेकिन ये कोई खाली हाथ उठाकर नारे लगाने वाला विद्रोह नहीं था. ये मुट्ठियां भींचकर, हथियार उठाए ललकारने वाली बगावत थी. इस हथियारबंद आंदोलन की कमान थी.....चारु मजूमदार, कानू सान्याल और साढ़े छ फुट के लंबे चौड़े जंगल संथाल के हाथों में.
1969 में CPI (ML) का गठन
नक्सलबाड़ी आंदोलन की हवा खेतों, जंगलों, जमीन से होती हुई देश के कई हिस्सों में फैल गई. चिंगारी भड़क रही थी. निशाने पर थे जमींदार और किसानों-मजदूरों को प्रताड़ित करने वाले ''बड़े लोग'. कम्युनिस्टों के अलग-अलग संगठन बनने लगे. शुरुआत में इसके नियम-कानून लिखने की जिम्मेदारी चारू मजूमदार पर ही थी. इन्हीं सब सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए साल 1969 में CPI (ML) का गठन हुआ और इसके पहले महासचिव मजूमदार ही बनाए गए.
70 के दशक में ये विद्रोह काफी तेजी से लोकप्रिय हुआ. हजारों की तादाद में युवा इससे जुड़ने लगे. ये आंदोलन हक की बात करता था. हक न मिलने पर हथियार उठाने से डरता नहीं था. इसके नारे नसों को फुला देते थे. खून में गर्मी भर देते थे. शायद यही बात युवाओं को रास आ गई. खेती वाली जमीन को बांटना और बेजमीन किसानों के हक की आवाज बुलंद करना आंदोलन के बड़े मुद्दे थे.
इसी बीच साल 1972 में आंदोलन के नेता चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में ही मौत हो गई. चारू मजूमदार, चीनी नेता माओ और रूस के लेनिन से प्रभावित थे और आंदोलन को उन्हीं की तर्ज पर चलाना चाहते थे. धीरे-धीरे विद्रोह के एक और बड़े चेहरे कानू सान्याल भी हाशिए पर चले गए....साल 2010 में उन्होंने खुदकुशी कर ली.
अब तो न मजूमदार हैं, न कानू सान्याल हैं न जंगल संथाल हैं. लेकिन हालिया आंकड़ों के मुताबिक देश के 11 राज्य नक्सल से प्रभावित हैं. कुल 90 जिलों में नक्सल हिंसा देखने को मिलती है. सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्य हैं- छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और ओडिशा. छत्तीसगढ़ में लगातार हो रही घटनाएं इसकी तस्दीक करती हैं. जहां नक्सली हर साल कई बार सुरक्षाबलों को निशाना बनाते हैं. हजारों जानें ऐसे हमलों में जा चुकी हैं और साल दर साल जा रही हैं. ये नक्सलवादी दावा करते हैं कि वो आदिवासियों, छोटों किसानों और गरीबों की लड़ाई लड़ रहे हैं और जानकार मानते हैं कि स्थानीय लोगों के समर्थन के कारण ही इन्हें कामयाबी भी मिलती है.
2004 में हुआ था सीपीआई (माओवादी) का गठन
आज जो आप नक्सली हिंसा देखते हैं वो बहुत हद तक सीपीआई (माओवादी) की देन है जिसका गठन साल 2004 में पीपल्स वॉर ग्रुप, पार्टी यूनिटी, MCC जैसी पार्टियों के विलय के कारण हुआ था. अब इस ग्रुप की गतिविधियां विचारधार से ज्यादा छीनने की लड़ाई बन चुकी हैं.
लिखा था कभी सुदामा पांडेय धूमिल ने----- ''एक ही संविधान के नीचे भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम ‘दया’ है और भूख में तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है''. तनी हुई मुट्ठी से उनका मतलब, भूख, बेबसी और अत्याचार से सताए गए मजलूमों के हक की आवाज उठाने से था लेकिन हथियार, आतंक और डर के दम पर पर जंगलों की जमीन पर आज बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो शायद नहीं होना चाहिए.
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