जो लोग ये दावा करते हैं कि ताजमहल गद्दारों ने बनवाया था और उनका नाम इतिहास से मिटा देना चाहिए, हम उनसे ये कहकर बहस नहीं करना चाहेंगे कि इसकी खूबसूरती को देखकर शायरों ने इसकी तुलना ‘वक्त के गाल पर ठहरे हुए आंसू’ से की थी. न ही हम उनका ध्यान इस बात की ओर दिलाना चाहेंगे कि ये विश्व धरोहर स्थल देश-विदेश के लाखों पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है.
ये सच्चाई है और इसे उन्हीं के सामने बताना चाहिए, जो इसकी कद्र कर सकें. इसकी बजाय हम ताज की वैकल्पिक व्याख्या पेश कर रहे हैं, जो प्रगतिशील उर्दू शायरों की देन है, क्योंकि इस दुनिया में किसी भी चीज पर अगर आपको विपरीत और उदार नजरिया चाहिए तो आप उर्दू शायरी पर भरोसा कर सकते हैं.
मुहब्बत की इस निशानी की छवि को तोड़ते हुए, साहिर लुधियानवी इसे आम लोगों की मुहब्बत की बेइज्जती बताते हैं, क्योंकि वो लोग किसी बादशाह की तरह अमीर नहीं हैं.
ताजमहल के रूप में मुहब्बत के दिखावे को लेकर साहिर की नफरत को समझने के लिए उनकी कविता को पूरा पढ़ना जरूरी है:-
ताज तेरे लिए मज़ार-ए-उल्फत ही सही,
तुझको इस वादी-ए-रंगीन से अक़ीदत ही सही,
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे!
बज्म-ए-शाही में गरीबों का गुजर क्या मानी,
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशां,
उस पे उल्फत भरी रूहों का सफ़र क्या मानी.
मेरी महबूब पास-ए-पर्दा-ए-ताश हीर-ए-वफ़ा,
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता,
मुर्दा शाहों के मकाबिर से बहलने वाली,
अपने तारीक़ मकानों को तो देखा होता.
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है,
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके,
लेकिन उनके लिए तश्हीर का सामन नहीं,
क्यूंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफलिस थे.
ये इमारत-ओ-मकाबिर, ये फसीले, ये हिसार,
मुतलाक-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़मत के सुतून,
सिना-ए-दहार के नासूर हैं कोहना नासूर
जज़्ब हैं उनमें तिरे और मिरे अजदाद का खून.
मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी,
जिनकी सन्नाई ने बक्शी है इसे शक्ल-ए-जमील,
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद,
आज तक उन पे जलाई न किसी ने कंदील.
ये चमन-ज़ार, ये जमुना का किनारा, ये महल,
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये मेहर्राब, ये ताक़,
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर,
हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक.
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे!
और काफी कुछ इसी तरह, प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के उनके साथी कैफी आजमी जिसे वो दोस्त कहकर संबोधित करते हैं, से ताजमहल से दूर चलने को कहते हैं:
दोस्त! मैं देख चुका ताज महल
....वापस चल
मरमरीं मरमरीं फूलों से उबलता हीरा
चांद की आंच में दहके हुए सीमीं मीनार
ज़ेहन-ए-शायर से ये करता हुआ चश्मक पैहम
एक मलिका का ज़िया-पोश ओ फ़ज़ा-ताब मज़ार
ख़ुद ब-ख़ुद फिर गए नज़रों में ब-अंदाज़-ए-सवाल
वो जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह
ख़ुश्क हो कर जो सिमट जाते हैं बे-रस आसाब
धूप में खोपड़ियाँ बजती हैं ताशों की तरह
दोस्त मैं देख चुका ताज महल
....वापस चल
ये धड़कता हुआ गुम्बद में दिल-ए-शाहजहां
ये दर-ओ-बाम पे हंसता हुआ मलिका का शबाब
जगमगाता है हर इक तह से मज़ाक़-ए-तफ़रीक़
और तारीख़ उढ़ाती है मोहब्बत की नक़ाब
चांदनी और ये महल आलम-ए-हैरत की क़सम
दूध की नहर में जिस तरह उबाल आ जाए
ऐसे सय्याह की नज़रों में खुपे क्या ये समाँ
जिस को फ़रहाद की क़िस्मत का ख़याल आ जाए
दोस्त मैं देख चुका ताज महल
....वापस चल
ये दमकती हुई चौखट ये तिला-पोश कलस
इन्हीं जल्वों ने दिया क़ब्र-परस्ती को रिवाज
माह ओ अंजुम भी हुए जाते हैं मजबूर-ए-सुजूद
वाह आराम-गह-ए-मलिका-ए-माबूद-मिज़ाज
दीदनी क़स्र नहीं दीदनी तक़्सीम है ये
रू-ए-हस्ती पे धुआँ क़ब्र पे रक़्स-ए-अनवार
फैल जाए इसी रौज़ा का जो सिमटा दामन
कितने जाँ-दार जनाज़ों को भी मिल जाए मज़ार
दोस्त मैं देख चुका ताज महल
....वापस चल
लेकिन, ताज की शानदार खूबसूरती पर पारंपरिक प्रतिक्रियाएं भी हैं, जैसे महशर बदायूंनी की ये शायरी:
अल्लाह मैं ये ताज महल देख रहा हूं
या पहलू-ए-जमुना में कंवल देख रहा हूं.
और सिकंदर अली वज्द की ये शायरी:
जादू निगाह-ए-इश्क़ का पत्थर पे चल गया
उल्फत का ख्वाब क़ालिब मरमर पे ढल गया.
और वारिस किरमानी की शायरी:
जाने किस ताज़गी-ए-फिक्र का इज़हार किया
वक्त के हुस्न गुरेंज़ां को गिरफ्तार किया.
लेकिन नफरत फैलाने वाले उन लोगों को, जिन्होंने उत्तर प्रदेश टूरिज्म बुकलेट से ताज को हटा दिया और इसे ‘भारतीय संस्कृति पर कलंक’ कहते हैं, सबसे बढ़िया जवाब देते हैं सीमाब अकबराबादी:
काश फिर दुनिया और एक शाहजहां पैदा करे
काश फिर हो खाक से जिस्म-ए-मुहब्बत जलवागर.
वीडियो एडिटर: मोहम्मद इब्राहिम
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