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भारतीय पार्टियां इंग्लैंड के दलों से क्या सीख सकती हैं?

ये जो इंडिया है ना...यहां हमारे नेताओं को आंतरिक पार्टी लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहिए

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ये जो इंडिया है ना... सॉरी, आज इंडिया नहीं, आज...ये जो इंग्लैंड है ना, इसने हम सब को और हमारी पोलिटिकल पार्टीज – बीजेपी, कांग्रेस और बाकी सभी पार्टीज को एक सीख दी है. ये सीख बस तीन शब्दों की है - इनर पार्टी डेमोक्रेसी - यानी पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र. जो कि इंग्लैंड में हमने देखा- सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी ने पहले पीएम बोरिस जॉनसन (Boris Johnson) को बाहर का रास्ता दिखाया. फिर इसके बाद पारदर्शी और लोकतांत्रिक तरीके से 8 उम्मीदवारों में से नए नेता, लिज ट्रस (Liz Truss) को चुना. जो अब इंग्लैंड की नई प्रधानमंत्री होंगी.

कितना सरल, कितना नार्मल. आखिर यही तो होना चाहिए. मगर भारत में ऐसा हो जाए तो… चमत्कार होगा.

मैं समझाता हूं

चमत्कार 1: PM बोरिस जॉनसन ने बिना किसी खास प्रतिरोध, विरोध के, पार्टी की इच्छा पर पद छोड़ा ! जबकि इंडिया में, जहां पार्टी ही नेता है और नेता ही पार्टी, यहां ऐसा संभव नहीं है, ऐसा सोचना भी असंभव है.

चमत्कार 2: कंजर्वेटिव पार्टी के नए नेता का चुनाव पारदर्शी तरीके से हुआ. क्या इंडिया में कोई पार्टी पारदर्शिता का सम्मान करती है? नहीं, एक भी नहीं.

चमत्कार 3: इंग्लैंड में नए नेता का चुनाव लोकतांत्रिक ढंग से हुआ. भारत की कौन सी बड़ी पार्टी आज आंतरिक लोकतंत्र का सम्मान करती है? जब बात पार्टी लीडरशिप की होती है, हमें यह मान लेना चाहिए की कोई भी पार्टी इनर पार्टी डेमोक्रेसी फॉलो नहीं करती.

चमत्कार 4: कंजर्वेटिव पार्टी के आठों कैंडिडेट बराबर के उम्मीदवार थे. और इन आठों में इंग्लैंड की विविधता भी नजर आती है. जेंडर के आधार पर भी फुल मार्क्स. 8 उम्मीदवारों में 4 महिलाएं थी , 2 श्वेत पुरुष, एक कुर्दिश इराकी. एक भारतीय मूल की बुद्धिस्ट. एक नाइजेरियन मूल की महिला, 2 श्वेत महिलाएं और ऋषि सुनक. जो इस रेस में दूसरे नंबर पर रहे. अब इसी बात को बीजेपी के संदर्भ में समझने की कोशिश करिए – बीजेपी के लोकसभा और राज्यसभा में 400 से ज्यादा सांसद हैं, लेकिन इनमें एक भी मुसलमान नहीं है. एक भी मुस्लिम सांसद नहीं, एक सेक्युलर देश में, देश की सबसे बड़ी पार्टी में.

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ये जो इंडिया है ना, जब तक यहां राजनीति में आंतरिक लोकतंत्र नहीं दिखेगी, तब तक हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि हमारी पुलिस, न्यायपालिका, सरकारी विभाग, हमारी मीडिया, लोकतांत्रिक तरीके से काम करेगी. और इस कमी से हम सब प्रभावित हैं - क्या मैं या आप सरकार को कोविड की दूसरी लहर के दौरान सवाल कर सकते थे? कि ऑक्सीजन क्यों नहीं थी? पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन क्यों नहीं थी? इतनी सारी मौतें क्यों हुईं? क्या आज आम आदमी बंगलुरू में सरकार से ये पूछ सकता है कि बाढ़ से निपटने के लिए शहर का इन्फ्रास्ट्रक्चर क्यों फेल हुआ ? आज हमारे अल्पसंख्यक अपने घरों पर अपनी ही सरकार द्वारा बुल्डोजर चलाए जाने पर, किससे मदद मांगें?

कहने का मतलब यह है कि बीजेपी और कांग्रेस से लेकर सभी अन्य पार्टियों को, अब मैच्योर हो जाने की जरूरत है. उन्हें इनर पार्ट डेमोक्रेसी को गले लगाने की सख्त जरुरत है.
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सबसे पहले बात कांग्रेस की कर लेते हैं. कांग्रेस के सीनियर नेताओं को तभी सारी समस्याएं साफ दिखती हैं, जब वो पार्टी छोड़ते हैं. जैसे कि गुलाम नबी आजाद. कांग्रेस के बारे में उनकी आलोचना एकदम ठीक है. कांग्रेस मुसीबत में है. मगर गांधी परिवार का विरोध, उनकी लीडरशिप पर सवाल कोई नहीं उठाता. गांधी परिवार से मिलना आसान नहीं है, खासतौर पर राहुल गांधी से. कांग्रेस में कुछ लोग खास, कुछ पसंदीदा बन चुके हैं. उन्हीं की चलती है. कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं, कोई आत्मचिंतन नहीं. "भारत जोड़ो यात्रा" जैसे कैंपेन आते हैं और खत्म हो जाते हैं.

पार्टी के पास बीजेपी को हराने के लिए, या खुद रिकवर करने के लिए, कोई क्लियर प्लान नहीं है. नई लीडरशिप की कोई तलाश नहीं है. कांग्रेस प्रेसीडेंट का आने वाला चुनाव भी दिखावा भर ही होगा. एक गैर-गांधी कांग्रेस प्रेसीडेंट बन भी गया, असली पॉवर गांधी परिवार के हाथों में ही रहेगा. दुखद ये है कि ये सारी बातें कही जा चुकीं हैं. बीमारी और उसका इलाज दोनों पता हैं. फिर भी कोई बदलाव नहीं.

चलो, कांग्रेस पर चर्चा हो गया... अब बीजेपी की बात करते हैं. आप कह सकते हैं कि यहां डायनेस्टी यानी परिवारवाद, कहां है. हां परिवारवाद, नहीं है. लेकिन क्या पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र है? हम ये यकीन से नहीं कह सकते. कुछ साल पहले बीजेपी मुख्य विपक्षी पार्टी थी. सत्ता के लिए भूखी थी. नये टैलेंट, नये लीडरों को लगातार खोजा जाता था. जैसे कि एमपी में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह, और गुजरात में नरेंद्र मोदी, जो इलेक्शन पर इलेक्शन जीतते गए.

केंद्र में भी वाजपेयी और आडवाणी के बाद BJP में टैलेंट की कतार थी. सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी, वैंकेया नायडू, राजनाथ सिंह, यशवंत सिन्हा, इत्यादि. सभी सशक्त और बीजेपी के भविष्य में हिस्सेदार. मोदी खुद इस सिस्टम के सबसे बड़े लाभार्थी हैं. मुख्यमंत्री से स्टार कैंपेनर, और फिर पीएम कैंडिडेट. ये अपने से आगे निकल गए, क्योंकि यही पार्टी की जरूरत थी.

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लेकिन अब , कुछ सालों बाद, बीजेपी की कहानी क्या है? मोदी बीजेपी के सबसे लोकप्रिय नेता हैं और अमित शाह उनके साथ खड़े हैं. लेकिन इनके बाद, नेताओं की वो लंबी कतार कहां है? हाल ही में नितिन गडकरी को बीजेपी के संसदीय बोर्ड से हटा दिया गया. मोदी से 6 साल छोटे, पार्टी लीडरशिप के एक तगड़े दावेदार को किनारे कर दिया गया. ठीक इसी तरह MP के 4 बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी संसदीय बोर्ड से हटा दिया गया. फिर.. देवेंद्र फडणवीस, महाराष्ट्र के पूर्व CM, और महाराष्ट्र में बीजेपी को दोबारा सत्ता में लाने वाले 52 साल के फडणवीस को सीएम ना बनाकर, उनके पर भी कतर दिए गए हैं. मोदी और योगी के बीच भी तनातनी की खबरें 2022 यूपी विधानसभा चुनाव से पहले सामने आईं थीं. वरिष्ट RSS नेताओं ने सुलह करवाई , लेकिन माना जाता है कि पीएम मोदी और लोकप्रिय CM योगी के बीच तनाव अभी भी है. उत्तराखंड और गुजरात में भी बीजेपी के CM आए और गए, किसी भी स्थानीय नेता को कद बढ़ाने नहीं दिया गया.

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हो सकता है कि ये सब मोदी जी के हित में हो, मगर क्या ये पार्टी के हित में है? आइए क्रिकेट कि मदद से इसे बेहतर समझते हैं. मोदी, विराट कोहली की तरह हैं. एक के बाद एक जीत दिलवा रहे हैं. खुद भी खूब रन बना रहे हैं. सुपर पॉपुलर हैं. लेकिन कल्पना करिए कि अगर इंडिया के पास – केएल राहुल , सूर्यकुमार यादव, श्रेयस अय्यर, ईशान किशन, शुभम गिल, वगैरह ना होते और कोहली अपनी फॉर्म खो देते हैं, जैसा की हाल में हुआ है, तो टीम इंडिया का क्या होता ?

खबरों के मुताबिक गडकरी को, अपनी सरकार की कुछ बार आलोचना करने के कारण, किनारे किया गया. कांग्रेस में भी लीडरशिप की आलोचना करने वालों को किनारे कर दिया गया है, निशाना बनाया गया है. मगर इस बारे में सोचिए – आलोचना करना, गंभीर विषयों पर बहस या डिबेट की मांग रखना– इंग्लैंड और अमेरिका में, इन्हीं उसूलों को लोकतांत्रिक, डेमोक्रेटिक माना जाता है. US में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट, दोनों पार्टियां अपने प्रेसिडेंसियल कैंडिडेट का चुनाव पारदर्शी और लोकतांत्रिक तरीके से, हर 4 साल बाद करते हैं.

मुद्दों पर महीनों पब्लिक के बीच चर्चा होती है, बहस होती है. उसके बाद ही पार्टी के समर्थक कैंडिडेट के लिए वोट करते हैं. इसके बावजूद कोई भी US प्रेसिडेंट 2 बार ही उस पद पर रह सकता है. 8 साल बाद बाय-बाय करना ही पड़ता है. ओबामा, क्लिंटन, जॉर्ज बुश सीनियर और जूनियर और यहां तक की ट्रंप भी – इन सब को इन नियमों का सम्मान करना पड़ता है. यही असली आंतरिक लोकतंत्र है. और सबसे मेन पॉइंट – ऐसा सिस्टम लोगों ने क्यों अपनाया है ? क्योंकि उनको पता है, उन्हें पूरा भरोसा है.. कि लाखों कि जनता में देश को चलाने का टैलेंट कई देशवासियों के पास है. और ऐसे टैलेंट को बाहर लाने का एकमात्र रास्ता है– आंतरिक पार्टी लोकतंत्र! वे जानते हैं कि राजवंश या एकछत्र राज असली लोकतंत्र नहीं है.

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लेकिन, ये जो इंडिया है ना...यहां हम राजवंश या एकछत्र राज के बीच फंसे हुए हैं. खत्म करने से पहले एक नजर इंडिया की अन्य पार्टियों पर भी डाल लेते हैं. जहां हालात बहुत अच्छे नहीं हैं.

DMK – परिवारवाद, NCP – परिवारवाद, समाजवादी पार्टी – परिवारवाद, National Conference – परिवारवाद, TRS – परिवारवाद, शिवसेना – परिवारवाद, RJD – परिवारवाद, Akalis – परिवारवाद, JDS – परिवारवाद, BSP – One-Woman Show, Trinamul – One Woman Show, BJD – One-Man Show, JDU – One-Man Show, AAP – One-Man Show… बात आप समझ ही गये होंगे..

ये जो इंडिया है ना...यहां हमारे नेताओं को आंतरिक पार्टी लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहिए. नई प्रतिभाओं को टॉप पर लाना चाहिए. जो असली मुद्दों के बल पर राजनीति करें, ना कि किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने की कोशिश करें. जब तक ये नहीं होता तब तक हमारी स्थिति में सुधार नहीं होगा. जितना पीछे हमारे नेता चलेंगे उतना पीछे हमारा देश चलेगा और उतना ही पीछे आप और हम भी हमेशा रहेंगे.

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