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‘डिजिटल डकैती’ के चलते बेदखल होने का इंतजार न करें नए उद्यमी

ग्लोबल आंट्रप्रेन्योरियल ईकोसिस्टम में भारत की पहली पीढ़ी के उद्यमियों का नामोनिशान मिटता जा रहा है.

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यह तो होना ही था. बिन्नी बंसल को उसी फ्लिपकार्ट से बाहर कर दिया गया, जिसके वह को-फाउंडर हैं. कुछ ही समय पहले फ्लिपकार्ट को अमेरिका की दिग्गज रिटेल कंपनी वॉलमार्ट ने खरीदा था. बिन्नी ने यह मानकर कि उनसे ‘फैसला करने में गलती हुई’, अपने निकाले जाने का रास्ता आसान कर दिया. अगर वह ऐसा नहीं करते, तब भी उनका लंबे समय तक कंपनी में बने रहना मुश्किल होता.

इसकी वजह यह है कि ग्लोबल आंट्रप्रेन्योरियल ईकोसिस्टम में भारत की पहली पीढ़ी के उद्यमियों का नामोनिशान मिटता जा रहा है.

कुछ महीने पहले मैंने इस क्राइसिस की तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ध्यान दिलाने की कोशिश की थी. हमारे प्रधानमंत्री को एक्रोनिम पसंद हैं, इसलिए मैंने सिर्फ उनकी खातिर DACOIT (डकैत) एक्रोनिम गढ़ा था यानी डिजिटल अमेरिका/चाइना (आर) कॉलोनाइजिंग एंड ऑब्लिटेरेटिंग इंडियन टेक (अमेरिका और चीन भारतीय टेक कंपनियों पर कब्जा कर रहे हैं और उनका वजूद मिटा रहे हैं)!

आज मैं डिजिटल और स्टार्ट-अप इंडिया का नारा देने वाले प्रधानमंत्री तक एक और एक्रोनिम के जरिये पहुंचने की कोशिश कर रहा हूं : SACK यानी स्ट्रैटेजिकली एक्वायरिंग कंट्रोल बाय नॉकिंग-आउट दी फाउंडर्स (संस्थापकों को बाहर करके रणनीतिक कंट्रोल हासिल करना).

अफसोस की बात यह है कि जब तक मोदी सरकार को इस मामले की सचाई का अहसास होगा, तब तक भारत की पहली पीढ़ी के फाउंडर्स का चिराग इन दोनों एक्रोनिम के बीच बुझ चुका होगा. स्टार्टअप फेज में फाउंडर्स पहले सरकार की ज्यादती से जूझते हैं. उसके बाद वे DACOIT-y (डकैती) का शिकार होते हैं, अमेरिका या चीन के डिजिटल गुलाम बनते हैं और आखिर में नए मेजॉरिटी इनवेस्टर्स की तरफ से SACK-ed होने के साथ उनका सफर खत्म हो जाता है. 
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डिजिटल ईकोसिस्टम पर डाका

देश की डिजिटल इकनॉमी का नंगा सच यह है कि इस पर पूरी तरह से डाका पड़ चुका है. अगर मैं अपने दोस्त मोहनदास पाई का हवाला दूं तो ‘आठ ’भारतीय’ यूनिकॉर्न ( जिस कंपनी की वैल्यू एक अरब डॉलर से अधिक होती है, उसे यूनिकॉर्न कहते हैं) में से सात के ऑफिस विदेश में हैं. इन पर विदेशी पूंजी का कंट्रोल है. इनमें से ज्यादातर के संस्थापक ‘मैनेजर’ भर बनकर रह गए हैं, जिन पर विदेशी निवेशकों और विदेशी पूंजी का हुक्म चलता है.’

नाइत्तेफाकी यहीं शुरू होती है. अमेरिका और चीन ने अपने आइकॉनिक फाउंडर्स को कंपनी पर कंट्रोल बनाए रखने के साथ भारी-भरकम रकम जुटाने में मदद की. दोनों देशों ने खासतौर पर बनाए गए फाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट्स, स्ट्रक्चर, इंसेंटिव और राइट्स के जरिये यह काम किया. दिलचस्प बात यह है कि चीन की अधिकतर कंपनियों ने अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंजों से अरबों डॉलर जुटाकर चाइनीज एसेट्स खड़े किए हैं.

अलीबाबा के फाउंडर जैक मा के पास कंपनी के 8 पर्सेंट इकनॉमिक बेनिफिट्स हैं, लेकिन कंपनी पर उनका 100 पर्सेंट कंट्रोल है. यह वेरिएबल इंटरेस्ट एंटिटी (वीआईई) जैसे इनोवेटिव स्ट्रक्चर के जरिये मुमकिन हुआ है. वीआईई ट्रस्ट/कॉन्ट्रैक्ट हैं, जिन्हें विदेशी स्टॉक एक्सचेंजों पर लिस्ट कराया गया है. मार्क जकरबर्ग ने डिफरेंशियल वोटिंग राइट्स के जरिये यही काम किया है. अपने ए क्लास के शेयरों के जरिये उनका फेसबुक पर कंट्रोल बना हुआ है.

लेकिन भारतीय उद्यमियों की दास्तां अलग है. उन्हें इस तरह का इंस्टीट्यूशनल सपोर्ट हासिल नहीं है. वे पुरातन कानूनी फंदों में जकड़े हुए हैं. हमें डिफरेंशियल वोटिंग शेयर जारी करने की इजाजत नहीं है. हम बिना वोटिंग राइट्स के शेयर इश्यू नहीं कर सकते.

हमारे लिए विदेश में इक्विटी/डेट स्ट्रक्चर, परपेचुअल बॉन्ड, वॉरंट, कन्वर्टिबल, पुट्स, कॉल्स, ट्रैकिंग स्टॉक्स या ऑप्शंस जारी करने और उनकी कीमत तय करने पर या तो रोक है या नियम बहुत सख्त हैं. जब तक कंपनी भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड ना हो, विदेश में लिस्ट नहीं हो सकती (इस मामले में इधर हिचक के साथ कुछ ढील दी गई है).

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ऐसे में अगर हम दूसरों की डिजिटल जागीर बन गए हैं तो हैरानी क्यों हो. हमारी सर्च और सोशल मीडिया में गूगल और फेसबुक का दबदबा है. वॉलमार्ट और अमेजॉन ने करीब-करीब हमारे पूरे ई-कॉमर्स मार्केट को सिर्फ 25 अरब डॉलर में खरीद लिया है. चीन की दिग्गज कंपनियों की नजर दूसरी छोटी ‘भारतीय’ फर्मों पर है. 35 लाख करोड़ के मार्केट कैप वाली टेनसेंट की नजर ओला, हाइक, प्रैक्टो, बायजू और मेकमायट्रिप जैसी भारतीय स्टार्टअप्स पर है, जबकि उतनी ही मार्केट कैप वाली अलीबाबा की निगाहें जोमैटो और टिकटन्यू (पेटीएम के साथ) पर हैं.

यह ट्रेजडी दिनदहाड़े हो रही है क्योंकि मोदी सरकार उस बात को समझने से इनकार कर रही है, जिसे इकनॉमिक्स का अंडर-ग्रेजुएट स्टूडेंट भी समझता है, यानी मालिकाना हक और कंट्रोल को कानूनी तौर पर अलग होना चाहिए. अगर यह हो जाए, तो भारतीय फाउंडर्स पूंजी जुटाने के लिए शेयर बेचने के बावजूद कंपनी पर अपना कंट्रोल बनाए रख सकेंगे. हमने यह आसान कदम तक नहीं उठाया है. उलटे हम देश की डिजिटल इकनॉमी को अतीत में ले जा रहे हैं. यह बड़े ही दुख की बात है.

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SACK-ed हुए बिन्नी बंसल

अब मैं एक बार फिर बिन्नी बंसल की दास्तां की तरफ लौटता हूं. इसमें पहली पीढ़ी के भारतीय उद्यमी के पहले वेंचर का दुखद अंत होता है. मैं इस मामले के कुछ तथ्य दे रहा हूं, जो सबके सामने आ चुके हैं. एक युवा महिला साल 2012 में फ्लिपकार्ट के कॉल सेंटर में कुछ महीनों के लिए काम करती है और उसके बाद कहीं और चली जाती है.

फ्लिपकार्ट छोड़ने से पहले उनका बिन्नी बंसल से कोई रिश्ता था या नहीं, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. चार साल बाद दोनों की फिर मुलाकात होती है और एक दूसरे के प्रति आकर्षण पैदा होता है. दो बालिग अगर अलग-अलग कंपनियों में हैं तो उन्हें प्यार करने का पूरा हक है. अफसोस कि इस रिश्ते का अंत बुरा होता है. अभी तक इसकी पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन अफवाह है कि बंसल ने उन्हें पैसे देने की कोशिश की थी.

अब मई 2018 में लौटते हैं. फ्लिपकार्ट, वॉलमार्ट के हाथों बिक चुकी है. सौदे से पहले का ड्यू डिलिजेंस चल रहा है. रेगुलेटरों को इसकी सूचना दी जा चुकी है और डील पर उनकी हामी का इंतजार हो रहा है. इस बीच, वह महिला अमेरिका में वॉलमार्ट को गोपनीय शिकायत भेजकर बंसल पर हैरसमेंट का आरोप लगाती हैं.

वॉलमार्ट पसोपेश में है. ईमानदारी का तकाजा यही है कि वह इस बात को सार्वजनिक करे, लेकिन इससे फ्लिपकार्ट डील फंस सकती है. लिहाजा, वॉलमार्ट चुप्पी साध लेती है और एक अमेरिकी लॉ कंपनी को गुपचुप जांच करने का जिम्मा सौंप देती है. वह इससे भी नाराज है कि बंसल ने पहले इस मामले की जानकारी क्यों नहीं दी.

लेकिन क्या आप यहां बंसल को कसूरवार मानेंगे? यह पर्सनल अफेयर था और महिला उस वक्त फ्लिपकार्ट में काम नहीं करती थीं. क्या कॉरपोरेट टेकओवर के वक्त फाउंडर्स को अपनी निजी जिंदगी की परतें भी उधेड़कर रख देनी चाहिए? चूंकि इस मामले की डीटेल सामने नहीं आई है, इसलिए बिन्नी को संदेह का लाभ मिलना चाहिए.
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अब अगस्त 2018 का रुख करते हैं. फ्लिपकार्ट-वॉलमार्ट डील को सारे अप्रूवल मिल चुके हैं, शेयर ट्रांसफर किए जा चुके हैं और अमेरिकी कंपनी का भारत की सबसे बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी पर कंट्रोल हो चुका है. इस बीच, अमेरिकी लॉ फर्म अपनी जांच पूरी कर लेती है. उसे बंसल की गलती का कोई सबूत नहीं मिलता, लेकिन अचानक से वॉलमार्ट की नैतिकता जाग जाती है. जब बंसल पर आरोप लगे थे, तब वॉलमार्ट ने उस पर परदा डाल दिया था. जब उन्हें बेगुनाह घोषित कर दिया गया, तब वह दुनिया को बंसल के ‘दुराचार’ के बारे में बता रही है.

साथ ही, कुछ ही घंटों में बंसल को इस्तीफे के लिए ‘राजी’ कर लिया जाता है. बिन्नी अपनी टीम को एक भावुक ईमेल भेजते हैं, ‘मैं कुछ और तिमाही तक अपने पद पर बने रहना चाहता था. मैं इन आरोपों से हैरान हूं और उनका जोरदार खंडन करता हूं.’ हालांकि वह फैसलों में भूल और पारदर्शिता की कमी की बात स्वीकार करते हैं. वह मेल में माफी नहीं मांगते. हालांकि बाद में मीडिया को भेजे गए वॉलमार्ट के बयान में बिन्नी की तरफ से ‘मुझे बेहद अफसोस है’ शब्द जोड़ दिया जाता है. किसी ने भी यह नहीं बताया कि यह बात कहां से स्टेटमेंट में आ गई.

इन सबके बीच कंपनी में एक और ट्रैक चल रहा है. फ्लिपकार्ट के ऑपरेशंस में बुनियादी बदलाव हो जाते हैं. फैशन वर्टिकल्स को मर्ज (मिला) दिया जाता है, नए अप्वाइंटमेंट होते हैं, पुराने लीडर्स कंपनी छोड़कर जाने की तैयारी करने लगते हैं.

इनसे लगता है कि सब कुछ प्लानिंग के साथ और सोच-समझकर किया गया है. इस तरह से फाउंडर के कमान में चलने वाली एक आंट्रप्रेन्योरियल एंटिटी को एक दिग्गज ग्लोबल कंपनी की प्रोसेस ड्रिवेन डिवीजन में बदल दिया जाता है.

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वॉलमार्ट ने SACK फॉर्मूले का इस्तेमाल कियाः फाउंडर्स को निकाल कंपनी पर कंट्रोल हासिल किया

इस मामले पर बिन्नी बंसल का कहना है, मेरा इसे लेकर वॉलमार्ट से कोई झगड़ा नहीं है. उसने वही किया, जो उसके लिए बेस्ट था. सच कहूं तो यह इसका एकमात्र रास्ता था. हालांकि मैं पहली पीढ़ी के उन फाउंडर्स से खुश नहीं हूं, जो अपनी कंपनी के नई मालिकों के लिए सीईओ के तौर पर काम करने को तैयार हो जाते हैं.

आखिर सुप्रीम कमांडर रहने के बाद नए मालिकों की खैरात स्वीकार करने की आप सोच भी कैसे सकते हैं? आप आंट्रप्रेन्योर हैं. आपने सफलता-असफलता दोनों ही देखी है. आप जो फैसले करते हैं, उनका यश-अपयश आप झेलते हैं. आप जो भी करते हैं, एक कैप्टन के तौर पर. वह कैप्टन जिसके हाथों में जहाज की कमान होती है या वह उसके साथ ही डूब जाता है. या यूं कहें कि जंगल का शेर अचानक सर्कस का शेर कैसे बन जाता है और नए मास्टर के इशारों पर नाचने और थिरकने लगता है?

यह असंभव है, यह कुदरत के कानून के खिलाफ है...

अगर पहली पीढ़ी का कोई उद्यमी बिन्नी बंसल जैसी गलती दोहराने जा रहा हो, तो उसे दो आइकॉनिक आंट्रप्रेन्योर- टेड टर्नर और स्टीव जॉब्स को पढ़ना चाहिए. उन्हें जानना चाहिए कि दोनों ने अपनी कंपनियों से निकाले जाने पर क्या कहा थाः

यूनिवर्सिटी ऑफ जॉर्जिया में एक स्पीच में सीएनएन के फाउंडर टेड टर्नर ने कहा था कि एओएल और टाइम वॉर्नर के बीच मर्जर के वक्त सीएनएन का कंट्रोल गंवाना ‘बड़ी गलती’ थी.

ग्लोबल आंट्रप्रेन्योरियल ईकोसिस्टम में भारत की पहली पीढ़ी के उद्यमियों का नामोनिशान मिटता जा रहा है.
सीएनएन के फाउंडर टेड टर्नर
(फोटो : क्विंट हिंदी)
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ग्लोबल आंट्रप्रेन्योरियल ईकोसिस्टम में भारत की पहली पीढ़ी के उद्यमियों का नामोनिशान मिटता जा रहा है.
एपल फाउंडर स्टीव जॉब्स 
(फोटो: क्विंट हिंदी)

आखिर में, मैं अपने प्यारे पहली पीढ़ी के भारतीय फाउंडर्स से यह कहूंगा कि हम अपनी जिंदगी भर की पूंजी पर DACOIT-y से बचने के लिए खुद कुछ नहीं कर सकते. हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि मोदी सरकार जागे और हमारे साथ इंसाफ करे. हालांकि अपनी कंपनी से SACK-ed होने के पहले क्या करना है, यह हमारे हाथ में हैः जस्ट. रिफ्यूज. टु. बिकम. योर. बायर्स, सीईओ.

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