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हिंदी दिवस: वाराणसी में गांव वाले किसी तरह चला रहे प्रेमचंद स्मारक

‘सब गांव वाले मिलकर किसी तरह इस धरोहर को बचाए हुए हैं’

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भारत
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हिंदी भारतीयों के लिए भाषा से बढ़कर है. हमारी संस्कृति की लिपि है. हमारे संघर्षों का माध्यम है. हमारी तहजीब है. जो हिंदी हम आप आपस में बोलते हैं, वो हमेशा से इस रूप में नहीं थी. अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा और अनेक भाषाएं मिलकर हिंदी थीं. पर खड़ी बोली को उसका स्वरूप देने में हिंदी साहित्यकारों की बड़ी भूमिका थी.

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उन्होंने समझ लिया था कि हिंदी भाषा पूरे देश को एक सूत्र में बांधने का काम बखूबी कर सकती है. इसलिए उन्होंने अपना पूरा पूरा जीवन हिंदी साहित्य और भाषा के लिए समर्पित कर दिया. उनके साहित्य इतिहास का हिस्सा होते गए. साहित्यकारों के बाद उनके नाम और काम पर संस्थाएं बनीं. जब ऐसे साहित्यकार दुनिया से चले गए तो उनकी याद में, उनके काम को संजो कर रखने के लिए, उनके उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कई सारी संस्थाएं बनायी गईं.

नागरी प्रचारिणी सभा, प्रेमचंद स्मारक, नागरी नाटक मंडली, रामचंद्र शुक्ल स्मारक, हिंदी साहित्य सम्मेलन जैसी कई संस्थाएं इसका उदाहरण हैं. लेकिन क्या ये संस्थाएं अब भी इसी तर्ज पर काम कर रहीं हैं?

प्रेमचंद स्मारक को सिर्फ शाबाशी ही मिलती है, मदद नहीं

उपन्यास सम्राट कहे जाने वाले प्रेमचंद बनारस के एक छोटे से गांव लमही से थे. उनके बाद उस गांव को प्रेमचंद्र नगरी कहा गया. और आज वहां प्रेमचंद्र शोध केंद्र, प्रेमचंद्र पुस्तकालय और एक संग्रहालय चल रहा है. ये सब प्रेमचंद स्मारक के तहत चलता है, स्मारक के अध्यक्ष सुरेशचंद्र दुबे ने बताया कि,

“नि:शुल्क पुस्तकालय, प्रेमचंद के जीवन से जुड़े तमाम दस्तावेजों, उनकी तस्वीरें, पेंटिग्स और उनके समान को एक जगह रख कर हम ये संस्था चला रहे हैं. लेकिन हमें ना सरकार, ना वाराणसी की किसी आधिकारिक संस्था, ना किसी और माध्यम से कोई आर्थिक मदद मिलती है. हम जो करते हैं, सब गांव वाले मिलकर किसी तरह इस धरोहर को बचाए हुए हैं.”

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महज दो कमरों के इस पुस्तकालय और संग्रहालय के लिए गांव के कुछ लोग मेहनत करते हैं. लोग यहां आते हैं, सब कुछ देखते हैं और हमें अंत में शाबाशी देकर चले जाते हैं. इससे ज्यादा हमें कभी कुछ नहीं मिलता.
सुरेशचंद्र दुबे, प्रेमचंद स्मार्क, लमही, वाराणसी

हिंदी साहित्य से जुड़ी संस्थाएं बदहाल क्यों?

सदानंद शाही BHU के हिंदी विभाग में पढ़ाते हैं. उनका मानना है कि, “हिंदी का इतिहास बहुत सारी संस्थाओं से जुड़कर बनता है. और इसकी वजह ये है कि जब ये संस्थाएं बन रहीं थी, तब भारत पराधीन था. तब एक भाषा की जरूरत थी जो सबके लिए समान हो. 19वीं शताब्दी पूरी लग गयी, 20वीं शताब्दी का एक हिस्सा हिंदी को इस रूप में लाने में लग गया. लेकिन आज भाषा के साथ हमारा लगाव नहीं है.”

जब हिंदी की संस्थाएं बनायी जा रही थीं, तब देश आजाद नहीं था. इसलिए बिना संसाधनों के भी लोगों ने ऐसी संस्थाएं बनाईं और काम किया. और अब जब हमारे पास पर्याप्त संसाधन हैं, तब हालात कुछ और हैं. हमारे संकल्प में कमी हैं, हमारी आकांक्षा में कमी है.

सदानंद शाही, BHU, हिंदी विभाग

शाही जी ने महान कवि अज्ञेय की एक पंक्ति याद की-“लोग पहले हिंदी सेवी होते थे, और अब हिंदी का सेवन कर रहे हैं. और अब ऐसी संस्थाओं को चिन्हित करके उनका राष्ट्रीकरण करना चाहिए. ”

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हिंदी थियेटर में दशकों से काम करते आ रहे कवि व्योमेश शुक्ल भी हिंदी की इन संस्थाओं के पतन से काफी आहत हैं. वो कहते हैं-''सभा (नागरी प्रचारिणी सभा) एक ऐसी जगह बना दी गयी है जिसका भाषा, शोध, साहित्य और अनुसंधान से विरोध और शत्रुता का सम्बन्ध है, जहां पर देसी-विदेशी विद्वानों को उपेक्षा या अपमान के सिवाय कुछ हासिल नहीं होता.”

हिंदी साहित्य की वर्तमान स्थिति बहुत बड़े परिवर्तन से गुजर कर बनी है. और ये परिवर्तन अब भी जारी है. जिन संस्थाओं को हिंदी के उद्धार के लिए ही बनाया गया था, उनका ही जर्जर हो जाना बेहद निराशाजनक है. हिंदी को लोगों के लिए अनिवार्य करने की जगह उसका मर्म समझाया जाए तो शायद बेहतर होगा.

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