वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता / वरुण शर्मा
वीडियो प्रोड्यूसर: अनुभव मिश्रा
कैमरा: नितिन चोपड़ा
राहुल गांधी की कांग्रेस ने 2019 लोकसभा चुनाव के बड़े आइडिया के तौर पर न्याय (न्यूनतम आय योजना यानी मिनिमम इनकम प्लान) को पेश किया है और मैं इसका पूरी तरह से समर्थन करता हूं.
अरे नहीं, मैं वामपंथी नहीं बना हूं. मैं अभी भी वही आर्थिक उदारवादी हूं, जिसका झुकाव केंद्र से थोड़ा दायीं तरफ है. मेरा भरोसा प्रतिस्पर्धी बाजार की ताकत पर बना हुआ है. मैं अब भी मानता हूं कि नियम-कायदे से चला जाए तो यह लोगों की जिंदगी बदल सकता है. इस विचारधारा की बुनियाद लोक कल्याणकारी सत्ता है, जिसमें गरीबों और वंचितों की हालत सुधारने की ईमानदार कोशिश होती है. अपने आसपास देखिए, आप पाएंगे कि दुनिया की सबसे अमीर फ्री मार्केट इकनॉमी में ही धरती की सबसे ताकतवर लोक कल्याणकारी योजनाएं भी चलाई जा रही हैं. इसमें कोई विरोधाभास नहीं है बल्कि ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.
न्याय से घबरा गए हैं पीएम मोदी
राहुल गांधी के न्याय की घोषणा के कुछ ही घंटों के अंदर बीजेपी के बड़े नेता टीवी पर अवतरित हो गए और इसका मजाक बनाने के लिए ट्वीट्स का तूफान आ गया (उन्हें यह बात गले नहीं उतर रही थी कि एक्रोनिम देने में कांग्रेस मोदी से आगे कैसे निकल गई!). बहरहाल, बीजेपी की आलोचना फुस्स मिसाइल जैसी साबित हुई.
- जैसी की आशंका थी, न्याय के बहाने इंदिरा गांधी और पंडित नेहरू को दोषी करार दे दिया गया. एक ने कहा,‘अगर राहुल के परदादा के 1950 के दशक में आर्थिक विकास दर 3.5 पर्सेंट न रही होती तो गरीबी कब की खत्म हो गई होती.’ बड़ी चालाकी से वह यह बात गोल कर गए कि अंग्रेजों से हमें कितनी बदहाल अर्थव्यवस्था विरासत में मिली थी. उन्होंने यह सच भी नहीं बताया कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के वक्त अर्थव्यवस्था 2 लाख करोड़ डॉलर की थी.
- कांग्रेस और गांधी परिवार को लानत भेजने के बाद बीजेपी की तरफ से कुछ असल आंकड़े आए. कहा गया,‘अरे हम तो डीबीटी (डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर) के जरिये पहले ही 5.43 लाख करोड़ रुपये दे रहे हैं. यह प्रति परिवार 1.068 लाख रुपये बनता है, जो न्याय के 72,000 रुपये सालाना से कहीं अधिक है. कांग्रेस की बिसात ही क्या है.’ पर ये तो सरासर झूठ है. इस 5.43 लाख करोड़ रुपये में मेरे पिता की पेंशन, मेरे ड्राइवर की एलपीजी सब्सिडी, उसकी पत्नी के मैटरनिटी बेनेफिट्स,अफगान छात्र की स्कॉलरशिप सब शामिल हैं. यह देश के सबसे गरीब लोगों को दी जाने वाली न्यूनतम आय नहीं है.
- खैर, इतना सब कहने के बाद बीजेपी ने पूछा,‘आप योजना के लाभार्थियों की पहचान कैसे करेंगे?’ यह बहुत बचकाना सवाल है. जैसे, मोदी के सिपाहियों ने आयुष्मान भारत के लिए 50 करोड़ लोगों की पहचान की है, उसी तरह से कांग्रेस भी करेगी. अगर मोदी और बीजेपी यह काम कर सकते हैं तो राहुल और कांग्रेस भी तो कर सकती है, क्यों, ठीक कहा ना?
- आखिरी सवाल यह आया,‘इसके लिए पैसा कहां से आएगा? क्या जिस तरह से 2008 में यूपीए के कार्यकाल में फिस्कल डेफिसिट 6 पर्सेंट तक पहुंच गया था और उसके बाद इकनॉमी लंबे समय तक ऊंची महंगाई के बोझ से कराहती रही, वैसे ही?’ लेकिन जरा रुकिए, लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया होने के बाद दुनिया मंदी के भंवर में फंस गई थी. उस समय इकनॉमी को उबारने के लिए जो राहत पैकेज दिया गया था, उसी वजह से फिस्कल डेफिसिट 6 पर्सेंट तक पहुंचा था. यूपीए सरकार के अनापशनाप खर्च करने की वजह से ऐसा नहीं हुआ था.
यह बताइए कि न्याय के लिए पैसा कहां से आएगा?
कांग्रेस ने अभी तक इसका ब्लूप्रिंट पेश नहीं किया है, लेकिन मैं इस बारे में एक अनुमान लगा रहा हूं (यह सिर्फ एक विकल्प है, ऐसे कई रास्ते और हो सकते हैं):
- पहली बात तो यह कि एक दिन में भी सब कुछ नहीं होगा. शुरुआत न्याय के पायलट प्रोजेक्ट से होगी. मान लेते हैं कि देश के 10 पर्सेंट जिलों में पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया जाता है. उसके बाद न्याय का धीरे-धीरे दायरा उसी तरह से बढ़ाया जाएगा, जैसे कि मनरेगा के लिए किया गया था.
- अगर यह मान लेते हैं कि पहले से चौथे साल तक 10, 20, 30 और 40 पर्सेंट जिलों में इसे लागू किया जाता है तो इसके लिए क्रमशः 36,000, 1,08,000, 2,16,000 और 3,60,000 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी.
- अभी दो ऐसी योजनाएं हैं, जिनमें न्याय को देखते हुए बदलाव किया जा सकता है. पहली योजना फूड सब्सिडी है, जिसका बजट 1,84,000 करोड़ रुपये है. इसके दायरे में देश की 67 पर्सेंट आबादी आती है. देश में प्रति व्यक्ति आय में काफी बढ़ोतरी हुई है, इसलिए इसका दायरा घटाकर 50 पर्सेंट आबादी तक किया जा सकता है. इससे न्याय के लिए करीब 50,000 करोड़ रुपये बचेंगे. मनरेगा के तहत अभी 100 दिनों के रोजगार की गारंटी मिलती है, न्याय के लाभार्थियों के लिए इसे बढ़ाकर साल में 150 दिन किया जा सकता है. इससे भी 10-20,000 करोड़ रुपये बचेंगे. सिर्फ इन दोनों बदलावों से पहले 18 महीनों के लिए न्याय के लिए पैसों का इंतजाम हो जाएगा और फिस्कल डेफिसिट में फूटी कौड़ी की भी बढ़ोतरी नहीं होगी.
- ऐसे अनुमान आए हैं कि 2.50 करोड़ से अधिक संपत्ति रखने वाले परिवारों (देश के 0.1 पर्सेंट परिवार) पर अगर 1 पर्सेंट का भी वेल्थ टैक्स लगाया जाए तो इससे 1 लाख करोड़ से अधिक रकम मिल सकती है. अगर ऊपर के दोनों बदलावों के साथ इसे मिला दिया जाए तो न्याय की आधी लागत निकल जाएगी और फिस्कल डेफिसिट पर कोई असर नहीं होगा.
- आखिर में, इस योजना के लिए बाकी पैसा जीडीपी ग्रोथ से मैनेज हो जाएगा. भारत की जीडीपी अभी 2 लाख करोड़ रुपये की है, जिसके अगले 4-5 साल में 3.50 लाख करोड़ से अधिक की होने की उम्मीद है. इससे जो अतिरिक्त टैक्स आएगा,उससे न्याय की फंडिंग हो जाएगी. मिल गया ना जवाब.
तेज आर्थिक विकास के लिए बड़े पैमाने पर नियंत्रण कम करने की जरूरत
अब मैं अपनी दलील के एक और पहलू की तरफ मुड़ता हूं.
राहुल गांधी को देश की अर्थव्यवस्था को बेरहम नियम-कायदों से आजाद करने का भी वादा करना चाहिए ताकि उद्यमशीलता को बढ़ावा मिल सके. न्याय का दूसरा पहलू यही है. देश में उद्यमशीलता और वेल्थ क्रिएशन को बढ़ावा देने के लिए गवर्नेंस के स्तर पर बड़े सुधार करने होंगे. इससे इकनॉमी दोहरे अंकों में ग्रोथ हासिल कर सकेगी, जो अब तक हमारी पहुंच में नहीं आई है.
देश की जीडीपी में निजी क्षेत्र का योगदान 90 पर्सेंट है, लेकिन इसे लालफीताशाही में खतरनाक ढंग से उलझा दिया गया है. यह देश का दुर्भाग्य है कि ‘मार्केट फोर्सेज’ को संदेह की नजर से देखने वाले नौकरशाहों के जिम्मे नीतियां बनाने का काम है. ये नौकरशाह वित्तीय सुरक्षा के घेरे में अपनी जिंदगी गुजारते हैं. उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि शूमपीटर के ‘क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन’ का असल दुनिया में क्या मतलब है (मसूरी के लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी के ट्यूटोरियल में उन्हें इसका जो मतलब बताया गया है, वह काफी नहीं है).
अगर आपको लग रहा है कि मैं अकारण देश की‘जालिम नीतियों’ की आलोचना कर रहा हूं तो मैं सिर्फ उन उदाहरणों के जरिये अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा, जो मुझे याद हैं.
- हम कॉन्ट्रैक्ट के मार्फत कॉरपोरेट रिस्ट्रक्चरिंग की इजाजत क्यों नहीं देते. इससे रिस्ट्रक्चरिंग का काम हफ्तों में हो जाएगा. इसके लिए अभी हमारे उद्यमियों को सालों कोर्ट के चक्कर काटने पड़ते हैं और वकीलों को मोटी फीस चुकानी पड़ती है.
- हमारे यहां विरोधाभासी दिशानिर्देश क्यों तय किए गए हैं, जिससे किसी न किसी रेगुलेटर के नियम का उल्लंघन होता है? उदाहरण के लिए, सेबी की गाइडलाइंस संस्थापकों को शायद हिस्सेदारी घटाने की इजाजत न दे, लेकिन आरबीआई के दिशानिर्देश ऐसा नहीं करने पर पेनाल्टी लगाने की इजाजत देते हैं (मिसाल के तौर पर हाल ही लिस्ट हुआ बंधन बैंक का मामला)?या सेबी की गाइडलाइंस किसी एक्वायरर (कंपनी को खरीदने वाले) को कंपनी में 51 पर्सेंट से अधिक हिस्सेदारी के लिए मजबूर करती हो, लेकिन एफडीआई रूल्स उसकी इजाजत नहीं देते (मिसाल के तौर पर एयरलाइन कंपनियां)?
- एंटरटेनमेंट टैरिफ को रेगुलेट क्यों किया जाता है, जबकि देश में पेट्रोल तक की कीमत अब मार्केट के हिसाब से तय होती है.
- टैक्स न्यूट्रल मर्जर के लिए कंपनी को पहले अदालत से मंजूरी लेनी पड़ती है, लेकिन बाद में उसी सौदे के लिए 5,000 करोड़ के डिविडेंड टैक्स की मांग की जाती है?
- हम पहली पीढ़ी के संस्थापकों को अपनी कंपनी को चीन और अमेरिका के‘लुटेरों’ से बचाने के लिए सुपीरियर वोटिंग राइट्स वाले शेयर जारी करने की इजाजत क्यों नहीं देते? हम फॉरेन लिस्टिंग्स और फाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट्स पर इतनी बंदिशें क्यों लगाते हैं?
- जीएसटी बेनेफिट को ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए‘एंटी-प्रॉफिटीयरिंग अथॉरिटी’ की क्या जरूरत है? आखिर यह अथॉरिटी छोटे कारोबारियों को परेशान ही कर रही है. हम इसके लिए बाजार की प्रतिस्पर्धी क्षमता पर भरोसा क्यों नहीं करते?
- दुनिया के किस देश में भला पूंजी को इनकम मानकर उस पर टैक्स लगाया जाता है (एंजेल टैक्स का मामला)?
मैं ऐसे कई उदाहरण और दे सकता हूं. ऐसी करोड़ों मिसालें मिल जाएंगी, जिसने हमारे छोटे कारोबारियों और पहली पीढ़ी के संस्थापकों के हाथ बांध रखे हैं. इसी कारण से वे दो कौड़ी के इंस्पेक्टरों, विदेशी शिकारियों और देश की बड़ी मछलियों के सामने खुद को लाचार पाते हैं.
न्याय से उम्मीद तक
अगर न्याय को सफल बनाना है तो राहुल गांधी और कांग्रेस को उम्मीद यानी Unleash Mahatvakanksha and Mojo via Exceptional and Energetic Deregulation पर भी काम करने और उसे लागू करने की तैयारी करनी होगी. न्याय और उम्मीद एक ही मां के जुड़वां बच्चे हैं दोनों को मां यानी सरकार का संरक्षण व स्नेह मिलना चाहिए. सरकार को दोनों के प्रति एक जैसी संवेदनशीलता दिखानी चाहिए क्योंकि न्याय और उम्मीद मिल जाएं तो देश वाकई बदल सकता है.
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