हमारी कौम की जो लीडरशिप है उसके पास विजन की बहुत बड़ी कमी है. आप अंदाजा करिए कि हमारे जो कौम के रहबर हैं ये वो लोग हैं, जिन्होंने बिजली का विरोध किया था. आप ही अंदाजा लगा सकते है इसके क्या मायने हैं और इनके अंदर विजन की किस कदर कमी है. दूसरी बात ये कि ये वो लोग हैं जिन्होंने अंग्रेजी सीखने पर सर सैय्यद अहमद के खिलाफ 600 से ज्यादा फतवे लाए थे. सऊदी अरब तक गए और वहां से लाए. आप सोचें उस दौर में जब हवाई जहाज मुमकिन नहीं था ये महीनों की मुसाफिरत करके गए और वहां से जाकर के फतवे ले करके आए.शीबा असलम फहमी, पत्रकार-लेखक
तालीम में आजाद ख्याल सोच जरूरी
शीबा असलम आगे कहती हैं, “मुसलमान लगातार इंट्रोस्पेक्शन कर रहा है और वो अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है. जैसे मैं पुरानी दिल्ली मे रहती हूं मुझे यहां के स्कूलों का हाल पता है यहां पर उर्दू मीडियम स्कूल मुसलमानों के हवाले कर दिए गए. गरीब का बच्चा उर्दू मीडियम स्कूल में जब पढ़ता है तो 12वीं के बाद वो किस कॉलेज में जाए उसको उर्दू में किताबें नहीं मिलती हैं उसको साइंस की किताबें उर्दू में नहीं मिलती हैं. उस बच्चे के लिए वो डेड एंड है उर्दू एक सब्जेक्ट के तौर पर अपने बच्चे को जरूर पढ़ाएं लेकिन उर्दू मीडियम एजुकेशन से आने वाले बच्चे 12 वीं के बाद जाएं कहां उनको टर्मिनॉलॉजी कोई कैसे समझाएगा. कि अभी तक ज्योग्राफी उन्होंने उर्दू में पढ़ी उस ज्यॉग्राफी को अंग्रेजी में अचानक वो कैसे सीख पाएंगे. वहां जरूर उर्दू पढ़ाई जाए लेकिन एक सब्जेक्ट के तौर पर मीडियम के तौर पर नहीं इससे मुसलमान के बच्चे जॉब मार्केट में अपने आप को कंपलीट बना सकते हैं. उनकी नौकरी के मौके बढ़ेंगे अगर वो हिंदी मीडियम या अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढ़ेंगे.”
पुराने वक्त में सभी कम्युनिटी की सोच पुरानी थी, लेकिन टेक्नोलॉजी एडवांसमेंट से सभी कम्यूनिटीज में इस वक्त नई सोच आ रही है. हमारे नेता कोशिश कर रहे हैं कि इनकी वही सोच बनी रहे और आगे न बढ़े.अतहर अहमद, छात्र, AMU
नीलेश मिसरा- क्या मुस्लिम विक्टिम हैं, आपको क्या लगता है ?
अतहर अहमद, छात्र, AMU-- नहीं सर विक्टिम नहीं हैं, मुस्लिम को विक्टिम बनाने की कोशिश की जा रही है. जैसे कि राम जन्मभूमि वाली बात है, आज का मुसलमान इन बातों पर ज़्यादा यकीन नहीं करता है कि जो हमारी ज़मीन थी इसकी हमें ज़रूरत है या ऐसी कोई बात, आज का मुसलमान आगे बढ़ चुका है, लेकिन आज के जो लीडर हैं वो चाहते हैं कि आज के यूथ इन छोटी बातों को ईगो पर लें और आगे न बढ़ें. जैसे कि आज कल से बातें हो रहीं, धर्म तो खतरे में है, इस तरीके से विक्टिम किया जा रहा है लोगों को. धर्म तो आस्था के ऊपर है, जब तक कोई यकीन कर सकता है तब तक धर्म कैसे खत्म हो सकता है. ये तो सर एक इंटैजिबल चीज कहलाएगी. तो ये कहना बिल्कुल गलत बात होगी कि धर्म खतरे में है.
उतार फेंकिए ‘पिछड़ेपन का झोला’
क्यों मुस्लिम समाज को कुछ लीडरों द्वारा ये कहकर बरगलाया गया कि पोलियो ड्राप में नपुंसकता का जहर है, सरकार की इस्लाम के विरुद्ध साजिश है, अपने बच्चों को पोलियो ड्रॉप मत पिलाओ? और आप जानते हैं कि जब दुनिया में पोलियो का खात्मा सिर्फ इसलिए नहीं हो रहा था क्योंकि उत्तर प्रदेश के कुछ मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में ये डर फैला दिया गया था, तो कौन आगे आया? कुछ मौलाना! जी हां, वो सड़क पर उतरे और उन्होंने इस भ्रान्ति को दूर किया और पोलियो का खात्मा करने में मदद की! ये सबूत है इस बात का कि मुसलमानों के रहनुमा, चाहे पॉलिटिक्स में हों या धार्मिक मामलों में, अगर चाहें तो अपनी ताकत, अपनी शोहरत का इस्तेमाल लाखों मुसलमानों की जिंदगी बेहतर करने में कर सकते हैं. लेकिन मुझे लगता है मुसलमानों के रहनुमा उन्हें कई साल से एक अजीब सी पोशाक बेच रहे हैं. धर्म की टोपी, विक्टिम होने का चश्मा, खौफ की दुशाला और पिछड़ेपन का झोला.
हमारा नदौल हाईस्कूल जहानाबाद के बगल में वहां मेरे फादर हाईस्कूल में थे अब रिटायर हो गए टीचर थे. वहां की आबादी लगभग 100 घरों की होगी. एक अरसा वहां गुजरा है. वहां एजुकेशन के लिहाज से भी गरीबी के लिहाज से भी. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट बिल्कुल दुरुस्त साबित होती है. ये दलील थी उनकी कि मुसलमान दलित से भी पीछे हो गया है. मैंने देखा कि वहां लड़के अपने पैरेन्ट्स के साथ बकरियां बेच रहे हैं, अंडे बेच रहे हैं मुर्गे बेच रहे हैं अपनी जिंदगी को जाया कर रहे हैं एहसास तक नहीं है. ये इसलिए ऐसा कर रहे हैं क्यों कि एजुकेशन की इंपार्टेंस उन्होंने आज तक नहीं समझी या वो इलाके बहुत पिछड़े हुए है.शाहनवाज हैदर, पीएचडी स्कॉलर, जामिया
तरक्की पसंद मजहब की मुश्किलें क्या हैं?
ये अजब बात है … इस्लाम धर्म गजब तरक्की पसंद है, लेकिन मुसलमानों के कई रहनुमाओं ने मुस्लिम समाज को उसी धर्म का हवाला देकर सिर्फ पिछड़ापन सिखाया है. मसलन, कुरान में पढ़ाई पर -- लड़कों और लड़कियों दोनों की पढ़ाई पर जोर दिया गया लेकिन कौम पढ़ाई में पीछे है और रहनुमाओं की तकरीरों में पढ़ाई प्रोयारिटी बनकर नहीं आती. हज़रत खदीजा बिन्त खालिद जो कि मोहम्मद सल्लल लाहो अलैही वसल्लम की बीवी थीं, वो मक्का शहर की सबसे बड़ी और कामयाब कारोबारी थीं, लेकिन आज औरतों के काम करने पर दर्जनों फतवे जारी किये जाते हैं.वो उस दौर में मक्का की सबसे अमीर वर्किंग वुमन थी, जिनका कारोबार जरूरत का सामान सऊदी से सीरिया भेजना होता था और उन्होंने अपने यहां तकरीबन सौ मर्दों को काम पर रखा था.
जब शुरू शुरू में मिडिल ईस्ट से लोग जा कर वापस आए तो वहां से बुर्का आया और बुर्का को पहन कर के मुसलमान औरतें एक तरह से आजाद हो गई थीं क्यों कि फिर उन्हें किसी महरम को साथ ले कर बाजार नहीं जाना पड़ता था वो घर से निकलने लगी थी. इससे पहले शुरफा खानदानों में औरतों के बाहर निकलने का कोई तसव्वुर ही नहीं था. उनके लिए डोली आती थी या रिक्शा जैसी कोई चीज आती थी वो उस पर बैठ कर के चारों तरफ से चादर से ढक दिया जाता था और वो रिश्तेदारों के घर ज्यादा से ज्यादा जा सकती थी. तो ऐसी सिचुवेशन में जब बुर्का आया तो मौलानाओं ने बुर्का का विरोध किया था ये कह के कि मुसलमान औरतें, मुसलमान लड़कियां बुर्का पहन के आवारा हुई जा रही हैं और अकेले घर से निकल जाती हैं अब वो बाजारों में घूमने लगी हैं बुर्का पहन के.शीबा असलम फहमी, पत्रकार-लेखक
कब बदलेगी मेरी तकदीर मौलाना!
चूंकि सच्चर कमीशन रिपोर्ट हो या कृष्णा कमीशन रिपोर्ट उन्होंने लोगों को दिखाया कि जरूरत क्या चीज की है. और इसी जरूरत का ये नतीजा है कि हम देखते हैं कि 2012 के बाद से जब से इधर 9-10 के बाद से यूपीएससी में रैंक 1 लाया उसके बाद से क्या बदलाव आए हैं कि एक कश्मीर से जहां 28 साल बाद कोई पहला आईएएस आता है उसके अगले साल उसी जगह से 10 आईएएस आते हैं.
अगर लोग इंपार्ड हो जाएंगे खुद अगर उन्हें ये पता चल जाए कि डिस्कशन क्या है उन्हें ये पता चल जाए कि डिबेट किस चीज की है. …
लोग खुद उठ के आगे आएंगे हमें ये करने की जरूरत नहीं होगी कि हम कही पे लाउडस्पीकर लेके कहें कि देखो यहां त्रासदी हो गई है आप आएं और कैंडिल मार्च में हमारे साथ चलें. वो लोग खुद उठ के आ जाएंगे. जागरूकता की जरूरत है जागरूकता के लिए पढ़ने की जरूरत है. जब हम पढ़ाएंगे तो ये चीजें खुद ब खुद क्लीयर हो जाएंगी.
बहुत मैंने सुनी है आपकी तकरीर मौलाना
मगर बदली नहीं अब तक मेरी तकदीर मौलाना
हबीब जालिब का शेर है ये … और हर धर्म के अधिकांश मौलानाओं पर एकदम सही बैठता है. जब हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, सिक्खों, बौद्ध धर्म के अनुनाइयों के धर्म गुरू हजारों लोगों को अपने सपने और लाखों को टीवी पर प्रवचन देते हैं, तकरीर करते हैं, तो क्यों वो सिर्फ ऊपर वाले को खुश करने के तरीके बताते है. उनके पास जो ताकत है उसे क्यों नहीं वो इस तरीके से इस्तेमाल करते कि लोगों का परलोक बाद में सुधरे पहले ये लोक तो सुधर जाए. क्यों नहीं कहते कि बच्चों को स्कूल भेजो, अच्छा इंसान बनना सिखाओ, लड़कियों की इज्जत करो, खाना खाने के बाद प्लेट आपकी मां या बहन उठा कर किचन तक जाएगी इसका इंतजार मत करो. अगर आपका बेटा या भाई लड़कियों से बदतमीजी करता है, सड़क पर फितरे कसता है तो उसके साथ वहीं बर्ताव करो जो आप सड़क पर किसी मनचले के साथ करते हैं.
बेटियों को बेटों के आगे हर खुशी से महरूम मत रखो...सड़क पर कूड़ा मत फेंको, ट्रेन में कोई बुजुर्ग दिख जाए तो या महिला खड़ी हो तो उन्हें अपनी सीट दे दो. गांव में मच्छर मत फैलने दो, दिमागी बुखार से मर जाएगा बच्चा...क्यों सिर्फ व्रत, रोजा, उपवास, जन्नत, दोजख, स्वर्ग-नर्क का पाठ पढ़ाते रहते हैं. क्या किसी गरीब बच्चे की मदद करना और मदद करने के लिए लोगों को सिखाना, दीन का, धर्म का रास्ता नहीं है.
रहनुमा अपना काम करें या न करें, चलिए आप और मैं अपना काम जारी रखते हैं... हर दिन किसी एक इंसान की मदद करने की कोशिश करते हैं, बेहतर इंसान बनने की कोशिश करते हैं...जो नहीं पढ़े वो पढ़ सकें, उनकी मदद करने की कोशिश करते हैं...यही सच्ची इबादत है.
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