आरएसएस को बीजेपी के पीछे की असली ताकत माना जाता है, लेकिन 2019 के चुनाव में वो उस दमदारी से चुनाव कैंपेन नहीं करेगा, जैसा उसने 2014 में किया था. ये एनालिसिस आरएसएस को बेहद करीब से समझने वाले वॉल्टर एंडरसन का है. एंडरसन की किताब RSS: A View to the Inside की खूब चर्चा हो रही है.
जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर वॉल्टर के. एंडरसन और श्रीधर डी दामले की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर ये दूसरी किताब है. इसी किताब को लेकर एंडरसन ने क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया से खास बात की. जिसमें एंडरसन ने BJP और संघ के बीच रिश्तों पर बेबाक राय रखी और बताया कि 2019 के चुनावों में संघ की स्ट्रैटेजी क्या होगी.
बीजेपी-संघ के रिश्ते जटिल
ऐतिहासिक उदाहरणों का हवाला देते हुए एंडरसन कहते हैं,
आरएसएस ऐतिहासिक रूप से हमेशा से एक संगठन रहा है, जिसने राजनीति से कुछ दूरी बनाए रखी है और वो यह कोशिश करता है कि वे बीजेपी की महत्वाकांक्षाओं में न उलझे. आरएसएस के अंदर लोगों का मानना है कि राजनीति में कहीं न कहीं भ्रष्टचार है.
आरएसएस पर एक्सपर्ट के तौर पर मशहूर एंडरसन बीजेपी और आरएसएस के रिश्तों की परत खोलते हैं. “आरएसएस खुद को गैर-राजनीतिक संगठन बताती है. इसका काम करने का अंदाज बीजेपी से अलग है. भारतीय जन संघ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शुरू किया था जो आरएसएस के नहीं थे. उन्हें गुरु गोलवलकर का साथ मिला. वो नहीं चाहते थे कि आरएसएस कोई राजनीतिक संगठन बने.”
आरएसएस के एक स्वयंसेवक का हवाला देते हुए एंडरसन बताते हैं कि संघ के बड़े अधिकारियों ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी के लिए काम कर रहे अपने वर्कर्स से ये साफ कह दिया था कि वो पहले संघ के सदस्य हैं. बाद में कुछ और.
FDI को लेकर RSS और बीजेपी की राह अलग
वॉल्टर एंडरसन के मुताबिक
RSS सरकार के साथ तो है. लेकिन, ये बहस का विषय है कि बीजेपी और आरएसएस के बीच किन मुद्दों पर असहमति है. अगर बात FDI की करें तो सरकार एफडीआई इसलिए चाहती थी, क्योंकि इससे विदेश का पैसा आए और देश में नौकरियों के मौके बढ़ें. लेकिन, एफडीआई को लेकर आरएसएस और बीजेपी में आम सहमति नहीं थी. आरएसएस के संगठन स्वदेशी जागरण मंच FDI के खिलाफ थी. उन्हें लगता है कि एफडीआई से भारतीय संस्कृति और स्वदेशी अर्थव्यवस्था कमजोर होगी. फिर भी आरएसएस ने एफडीआई का आइडिया स्वीकार किया.
2019 लोकसभा चुनाव में आरएसएस की भूमिका
राजनीतिक विशेषज्ञ एंडरसन ने कहा कि 1977 और 2014 के चुनावों में बीजेपी की मदद करने के लिए संघ के लोग 'बाहर निकलकर आए',
लेकिन आने वाले लोकसभा चुनाव में उस तरह की ताकत नहीं झोंकेगा जब तक कि बड़ी मजबूरी ना हो.
एंडरसन के मुताबिक, “आरएसएस ब्यूरोक्रेसी या सरकारी तंत्र के बढ़ते दायरे ( डीप स्टेट) को लेकर भी चिंतित है, अगर बीजेपी 2019 का चुनाव जीत जाती है, तो हो सकता है अगले दो या तीन बार और सरकार बना सकती है, और ऐसे में उसे आशंका है कि बीजेपी भी कहीं उसी तंत्र का हिस्सा ना बन जाए. आरएसएस को हमेशा इसकी फिक्र रहती है क्योंकि उनका मानना है कि आगे सरकारी तंत्र ता जंजाल मुश्किलें खड़ी कर सकता है.”
आरएसएस पॉलिसी को नीचे से ऊपर की ओर देखता है, लेकिन सरकार और राजनीतिक दल हमेशा ऊपर से नीचे देखते हैं.
नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख के बीच संबंधों के बारे में पूछे जाने पर एंडरसन ने कहा कि मोहन भागवत के पास एक डिप्लोमेटिक नजरिया है, जो उन्हें एक दूसरे की स्थिति को समझने में मदद करता है.
भागवत समझते हैं कि पॉलिसी बनाने के फैसले प्रधानमंत्री और पार्टी (बीजेपी) लेती है. प्रधानमंत्री को पता है कि एक कैडर को ट्रेनिंग देने में आरएसएस कितना जरूरी है. हर व्यक्ति एक-दूसरे को समझता है. वे एक ही उम्र के हैं.
वॉल्टर के. एंडरसन और श्रीधर डी दामले ने इसके पहले आरएसएस पर पहली किताब लिखी थी द ब्रदरहुड इन सैफ्रॉन. जिसमें उन्होंने संघ के काम करने के उन तरीके के बारे में बताया था जिनसे बीजेपी को आगे बढ़ाने में कामयाबी मिली है.
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