तकनीक के इस आधुनिक दौर ने हिंदी को बढ़ावा दिया है या फिर इससे हिंदी को नुकसान हुआ है, यह तो विवाद का विषय है. पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की तकनीक ने हिंदी के लिए अवसर के नए दरवाजे खोले हैं.
अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इन अवसरों का कितना लाभ उठा पाते हैं. आज हिंदी में टाइपिंग करना कहीं सरल हो गया है.अब तो स्मार्ट फोन की मदद से कोई नौसिखिया भी हिंदी में आराम से अपनी बात लिख सकता है. इसके लिए जटिल तकनीकी नियमों की जानकारी होना जरूरी नहीं है. गूगल ने तो हिंदी में बोल कर लिखने की सुविधा भी शुरू कर दी है. हो सकता है आने वाले दिनों में हिंदी में खुद को अभिव्यक्त करना और भी आसान हो जाए.
इन सभी बदलावों का परिणाम आज हम इंटरनेट पर देख सकते हैं. हिंदी में कंटेंट की बाढ़ सी आ गई है .समसामयिक विषयों पर हिंदी में आज वीडियो, लेख आदि जितनी आसानी से मिल जाते हैं, यह अपने आप में एक उपलब्धि है. एक प्रकार से हमने पहली चुनौती पार कर ली है, अब वक्त है आगे देखने का.
हिंदी में आर्थिक मसलों पर कंटेंट नदारद
हिंदी पत्रकारिता में आज कंटेंट की भरमार तो जरूर है, पर गुणवत्ता की समस्या बनी हुई है. यह समस्या खासकर तब विकराल प्रतीत होती है जब हम आर्थिक विषयों की पत्रकारिता की ओर ध्यान केंद्रित करते हैं. हिंदी पत्रकारिता में अर्थशास्त्र संबंधी विषयों की अनदेखी चिंताजनक है. 24X7 चैनल, दैनिक समाचार पत्र , साप्ताहिक एवं मासिक पत्रिकाओं की भरमार है हिंदी में, पर इनमें से ज्यादातर स्थानीय, राजनीतिक एवं राष्ट्रीय खबरों तक ही अपने आप को सीमित रखते हैं. ऐसे में समसामयिक आर्थिक मसलों की अनदेखी हो जाती है. ऐसा नहीं है कि अर्थशास्त्र संबंधी विषयों पर कोई भी अच्छा विश्लेषण नहीं होता, या कोई लेख प्रकाशित नहीं होता, पर ऐसे कंटेंट की कमी है. खासकर जब हम अंग्रेजी अखबारों से हिंदी अखबारों की तुलना करें तो यह अंतर खुलकर सामने आता है. हिंदी अखबारों की हालत आज आर्थिक मामलों को कवर करने के मामले में दयनीय है. कभी-कभार किसी विशेषज्ञ का लेख भले ही संपादकीय में दिख जाए पर वह लेख या तो किसी अंग्रेजी अखबार में छप चुके लेख का अनुवाद होता है अथवा राष्ट्रीय मसलों तक ही सीमित रहता है.
इंटरनेट पर आर्थिक मसलों पर टिप्पणी करने वाली कई अंग्रेजी वेबसाइटें हैं. ब्लूमबर्ग, वाल स्ट्रीट जर्नल आदि और न जाने कितने ब्लॉग समसामयिक विषयों पर विशेषज्ञों की राय प्रकाशित करते हैं. अमेरिका में अगर सरकार कोई नीति तय करती है तो उसका आर्थिक विश्लेषण आम लोगों तक जल्द से जल्द पहुंच जाता है. ऐसे में सरकार पर भी इस बात का दबाव रहता है कि अगर वह कोई ऐसी नीति या बिल पास कराने का प्रयास करती है जिससे आम लोगों को नुकसान पहुँचेगा तो उसकी लोकप्रियता को झटका लग सकता है. भारत में ऐसी
कई वेबसाइटें हैं जो अंग्रेजी में सरकारी नीतियों का विश्लेषण करती हैं, पर हिंदी में ऐसे वेबसाइटों की संख्या काफी कम है. जो बातें अंग्रेजी पढ़ने वाली जनता तक पहुंच पाती हैं वह बातें हिंदी भाषी लोगों तक नहीं पहुंच पाती हैं. एक अच्छा उदाहरण विमुद्रीकरण का है. जिस दिन से विमुद्रीकरण लागू हुआ उसके अगले दिन से ही सैकड़ों आर्थिक जानकारों ने इस कदम के नफा-नुकसान को लेकर अपनी राय रखी. अंग्रेजी के लोकप्रिय अखबारों में न जाने कितने ही देशी-विदेशी अर्थशास्त्रियों के लेख प्रकाशित हुए, पर हिंदी में सिर्फ सतही विश्लेषण ही मौजूद रहा. कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो शायद ही किसी प्रख्यात अर्थशास्त्री ने हिंदी में लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का प्रयास किया. आज जबकि विमुद्रीकरण से हुए नुकसान को लेकर चर्चा गरम है, यह कहना कि लोगों ने अंधे हो कर विमुद्रीकरण का समर्थन किया, नाइंसाफी है. जिस उत्तर प्रदेश में भाजपा को विमुद्रीकरण की खलबली के बाद भी अपार जनमत हासिल हुआ, वह हिंदी भाषी प्रदेश ही है. बड़ी ही अजीब बात है. प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले से हिंदी में देश को संबोधित किया. अर्थशास्त्रियों ने इस भाषण की बहुत आलोचना की और कहा कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में गलत आंकड़ों का सहारा लिया. मजे की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर विश्लेषण हिंदी में ना होकर अंग्रेजी में प्रकाशित किए जाते हैं. ऐसे में आलोचना का मकसद - आमजन को सच्चाई से परिचित कराना ,अधूरा रह जाता है.
सिर्फ अंग्रेजी पढ़ने और समझने वाले समाज को पूरा भारत मान लेना ही आज के बुद्धिजीविओं की सबसे बड़ी भूल है.अगर लोगों तक उनकी भाषा में सरकारी नीतियों का विश्लेषण नहीं पहुंचेगा तो लोग उचित निर्णय कैसे ले पाएंगे? सरकारों के पास भी ऐसे में किसी भी आलोचना को राजनीतिक बताकर अपना हाथ साफ करने का अवसर मिल जाता है. आज के दौर में यह जरूरी है कि हिंदी में भी लोगों तक आर्थिक विषयों का गुणवत्ता पूर्ण विश्लेषण पहुंचे.
बाजारवाद का सिद्धांत यह कहता है कि जिस चीज की मांग होगी उस की आपूर्ति भी संभव है. ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या हिंदी के बाज़ार में आर्थिक विषयों पर कंटेंट की मांग कम है? या फिर मीडिया संस्थानों ने यह मान लिया है कि अर्थशास्त्र जैसे तकनीकी विषय को समझना हिंदी भाषियों के वश की बात नहीं है? या फिर हिंदी में लिखने वाले अर्थशास्त्रियों की कमी है?यह कहना कि हिंदी भाषी गूढ़ विषयों को समझने में असमर्थ हैं, बेकार तर्क है. जिस देश में क्रिकेट जैसे जटिल नियम वाले खेल को सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल हो, जहां लोगों को राजनीति जैसी पेचीदा विषय में गहरी रुचि हो, वहां यह कहना कि लोग आर्थिक पत्रकारिता को सम्मान नहीं करेंगे, सिर्फ एक बहाना है. आज मीडिया हाउस भी इस सच्चाई को धीरे-धीरे स्वीकार कर रहे हैं. कई मीडिया हाउस हिंदी में भी अपना बिजनेस अखबार निकालते हैं. पर इन अखबारों के साथ समस्या है कि यह शेयर बाजार के आगे कम ही देखते हैं. मीडिया संस्थानों की मानसिकता में बदलाव हो रहा है, किंतु बहुत धीमे. जो समस्या ज्यादा परेशान करती है वह है हिंदी में लिखने वाले अर्थशास्त्रियों की कमी. आमतौर पर ज्यादातर अर्थशास्त्री अंग्रेजी में ही लिखते हैं और उनकी रचना का अनुवाद हिंदी पाठकों तक पहुंचता है.
अनुवाद की अपनी सीमाएं हैं. जो भाव मूल भाषा में लिखे गए लेख में आता है वह कभी कभार अनुवाद में खो जाता है. हिंदी का दीर्घकालिक लक्ष्य इस अनुवाद की परंपरा से आगे बढ़ मौलिकता को प्राप्त करना होना चाहिए.
देश के पूर्व रिजर्व बैंक गवर्नर श्री रघुराम राजन की नई किताब आई है. किताब ने प्रकाशित होने के पहले ही काफी उत्सुकता जगा रखी थी. हिंदी पाठक भी इस पुस्तक को लेकर उतने ही उत्साहित हैं, जितने बाकी. पर अफसोस अभी यह पुस्तक सिर्फ अंग्रेजी में उपलब्ध है. लगभग हर बार ही कोई आर्थिक विषय पर पुस्तक आती है उसे हिंदी पाठकों तक पहुंचने में महीनों लग जाते हैं. समस्या पुरानी है और उसके कारण भी पुराने.
आमतौर पर अर्थशास्त्री हिंदी में लिखते नहीं और अनुवाद आने में वक्त लग जाता है. ऐसे में अंत में जाकर पाठक के हाथ में जो पुस्तक पहुंचती है उस में अनुवाद की सीमाओं के कारण ना मूल भाव रह जाता है और विषय को लेकर उत्सुकता भी कमजोर पड़ जाती है.
कैसे पट सकती है हिंदी-अंग्रेजी आर्थिक पत्रकारिता की खाई?
आर्थिक विषयों की गूढ़ पत्रकारिता के अभाव का प्रश्न जितना हिंदी के लिए प्रासंगिक है, उतना ही अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लिए भी. ऐसे में इस अंतर को भरने की आवश्यकता है. आज स्टार्टअप का दौर है. अंग्रेजी में अनगिनत ब्लॉग, पोर्टल आदि उपलब्ध है, पर हिंदी में या तो ऐसी वेबसाइटों की कमी है या फिर जो हैं वे छोटे-मोटे 'मसाला' विषयों पर अपने आप को सीमित रखते हैं. ऐसे में शायद कोई स्टार्टअप हिंदी के पाठकों तक गंभीर, शोध पूर्ण, मूल डिजिटल कंटेंट पहुंचा पाए, इसकी आवश्यकता है. देश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में भी हिंदी को बढ़ावा देने की जरूरत है. इन संस्थानों में छात्रों को अपनी मातृभाषा में खुद को अभिव्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इसे दुर्भाग्य ही कहिए कि अर्थशास्त्र की पढ़ाई कराने वाले ज्यादातर संस्थानों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही है. ऐसे में इन संस्थानों में ना सिर्फ दूसरी भाषाओं में पढ़े छात्रों का दाखिला मुश्किल हो जाता है पर अगर दाखिला हो भी जाए तो पूरा तंत्र अंग्रेजी में होने के कारण परेशानियों का सामना करना पड़ता है. जब शिक्षण-संस्थानों के सारे शिक्षक और छात्र अंग्रेज़ी में पारंगत हों, ऐसे में आर्थिक मसलों पर अंग्रेजी का एकाधिकार स्वाभाविक है. यही छात्र बाद में इन विषयों के विशेषज्ञ बन कर शोध कार्य करते हैं,और आर्थिक मसलों पर अपनी राय रखते हैं.
इस बात को सुनिश्चित करना जरूरी है कि अर्थशास्त्र की पहुँच सिर्फ अंग्रेजी में पारंगत कुलीन वर्ग तक ही ना रह जाए.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत सरकार हिंदी को बढ़ावा देने के लिए संकल्प बद्ध है. सरकार अपनी तरफ से यह जरूर सुनिश्चित करती है कि किसी भी सरकारी पत्रिका, रिपोर्ट आदि का हिंदी अनुवाद उपलब्ध हो. कई महत्वपूर्ण पत्रिकाएं जैसे की योजना, कुरुक्षेत्र आदि हिंदी में समसामयिक आर्थिक मसलों का गूढ़ विश्लेषण करती हैं. हालांकि सरकार के कदम निश्चित तौर पर सराहनीय हैं, पर इससे कुछ समस्याओं का समाधान नहीं होता.
अगर सिर्फ सरकार ही हिंदी भाषी लोगों तक आर्थिक मसलों पर जानकारी पहुंचा पाती है तो इससे सरकारी तंत्र की आलोचना या किसी नीति का निष्पक्ष विश्लेषण लोगों तक नहीं पहुंच पाता है. सरकारी नजरिया वैसे भी सिर्फ राष्ट्रीय मामलों तक ही सीमित रहता है. ऐसे में विश्व जगत की खबरों पर कोई खास टिप्पणी शायद ही देखने को मिलती है. अर्थशास्त्र से संबंधित प्रकाशनों पर सरकार का एकाधिकार हो जाना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है.
पाठकों को आर्थिक विषयों पर जागरुक करने की जरूरत
हिंदी में आर्थिक विषयों पर गुणवत्तापूर्ण पठनीय सामग्री ना होने के पीछे कुछ वाजिब कारण हैं. लेखकों के अभाव से लेकर पाठकों की अरुचि इन्हीं कारणों का हिस्सा हैं. पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक जागरूक समाज बनाने के लक्ष्य को हमें अगर पाना है तो लोगों की आर्थिक समझ का विकास भी उतना ही जरूरी है जितना सामाजिक और राजनीतिक. हो सकता है पूंजी की कमी, निवेश की समस्या आदि कई कारणों से आज हिंदी मीडिया बिकने वाली खबरों को ही वरीयता दे रहा है. पर अब हमें आगे की ओर देखना है. सरकार अपना काम कर ही रही है. चूंकि निजी संस्थान बाजारवाद के मानकों के अनुसार ही कार्य करेंगे, ऐसे में गैर लाभकारी एवं गैर सरकारी संस्थाएं अहम भूमिका निभा सकती हैं. हिंदी की मशाल आज पूरे गौरव के साथ आगे बढ़ रही है पर हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि इस मशाल की ज्वाला हर कोने को रोशन करे.
( लेखक दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र में एमए का छात्र हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. )
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