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आप अपनी सियासत संभालें, हमारे लिए घूमर छोड़ दें

हमें अपने स्वाभिमान का एहसास है. और अपनी परंपरा से प्यार भी, तो हमारा घूमर हमसे कोई कैसे छीन सकता.

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हम नाचते कब हैं ? जी हां, सवाल सीधा सा ही है. अमूमन हर वक्त तो नहीं, पर कुछ खास पलों में, किसी खुशी में, और कुछ खास तरीके से भी. मैं राजपूत हूं, परिवार की रवायतों में पली-बढ़ी ..भाई की शादी का मौका था, जगमगाती रोशनी में सज -धज कर घर की नई दुल्हन को परिवार में संजोने की तैयारी में सभी लगे हुए थे. नई पीढ़ी की लड़कियां ‘घूमर डांस’ के लिए एक्साइटेड थीं. होती भी क्यों ना, सालों बाद हमारे घर में शहनाई बज रही थी.

पर सुना है घूमर पर बवाल हो गया है. और बात तो नाक और गला काटने तक पहुंच गई है .मां से सीखा घूमर तो हम बहू-बेटियों ने उसे परंपरा के तौर पर अपनाया, हमारा रिवाज और मस्ती का मौका, इससे किसी की आन-बान को ठेस कैसे लग सकती है? मेरे बड़े भाई की बेटी अपनी मासूम सी अवाज में एक सवाल पूछ बैठी, बुआ सा..क्या हम घूमर नहीं करेंगे?

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उस मासूम सवाल से मैं सोच में पड़ गई.. घूमर तो हमारी विरासत है, जो कभी मारवाड़ भीलों की कला को राज परिवारों के बंद झरोखों में ले आई थी. इसमें सभ्यता पहनावे और हाव-भाव का भी खास ख्याल रखा गया है, फिर यह बवाल क्यों ? हमने तो अपने इतिहास को संजोकर अपने आज में उतारा है.

दरअसल मसला कुछ यूं है कि भंसाली साहब ने रानी पद्मावती के जौहर की कहानी को पर्दे पर उतारने का दुस्साहस किया. लोक कथाओं और किताबों से निकलकर पद्मावती का किरदार जिंदा हुई तो, घूमर तो बनता ही था. अब इससे पगड़ी वालों की आंखें लाल हो चली हैं. ऐसा नहीं वैसा था, यह हमारा अपमान है , हम ऐसा नहीं होने देंगे, निकालो तलवारें कर दो सिर कलम...

इतिहास अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग वक्त में अपने अनुभव, सोच और जानकारी से लिखा है. तो सवाल ये उठता है कि, हमारा गौरव और गरिमा एक फिल्म से कैसे खत्म हो सकती है . हमें अपने स्वाभिमान का अहसास है. और अपनी परंपरा से जुड़ाव भी है, तो हमारा घूमर हमसे कोई कैसे छीन सकता. आप इतिहास पर बहस करो, सही और गलत साबित करो, हमारा घूमर हमारे लिए ही रहने दो ,यह आपके लिए बिल्कुल नहीं है.

इतिहास का मुरब्बा बनाने वाले सुन लें...

मैं राजपूत हूं और भारत की बेटी भी. इसलिए बात न्याय की करूंगी. एक औरत को धमकी देने वाले राजपूत नहीं होते. राजपूत जन्म से ही नहीं कर्म से भी राजपूत होते हैं. नाक और गले पर लाखों करोड़ों के इनाम रखने वाले ठेकेदारों के बैंक खाते टटोले जाएं तो शायद हंसी आ जाए.

मेरे मध्यप्रदेश में तो चमत्कार हुआ वहां सरकार ने रानी पद्मावती के नाम पर पुरस्कार रखते हुए उन्हें ‘राष्ट्रमाता’ घोषित कर दिया. अब जहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहे जाते हैं वहां यह समझ से भी परे है. कमाल की बात तो ये है कि भारत की सेना के अलावा देश के भीतर ही कई सेनाएं खड़ी हो गई हैं. पहचान के मोहताज लोग नेतागिरी और सांठ-गांठ में लगे हैं. इतिहास का मुरब्बा बनाया जा रहा है.

सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बावजूद भी फिल्म आने से पहले ही कई राज्य सरकारों ने इस पर रोक लगा दी है. शिक्षा सवाल पूछने की ताकत देती है तो मेरा पहला सवाल ये है कि हमारी विरासत पर सियासत करने का हक इन ठेकेदारों को किसने दिया ?

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इजहार की भाषा पर बंदिश ठीक नहीं

समझती हूं कि आज की आबोहवा सियासी है. सबके अपने स्वार्थ हैं, कोई शोहरत के लिए, कोई वोट के लिए इतिहास और कानून से खेल रहा है. हमें तो सिर्फ घूमर से मतलब है. घूमर हमारा उतना ही निजी है जितनी हमारी पूजा और संगीत. हम इसकी अहमियत को समझते हैं और आने वाले कल को उतनी ही खूबसूरती से इसे सौंपना चाहते हैं.

घूमर हमारे रिश्तों का जोड़ है - मां, बेटी भाभी जेठानी का, हमें इसे जीने दें. करणी सेना, समाज के ठेकेदार जो चाहें वो करें. लेकिन देश के संविधान ने हमें अपनी बात रखने का, खुलकर जीने का और अपनी परंपरा और धार्मिक आजादी का मौलिक अधिकार दिया है. इतिहास की परिभाषा के गफलत में इजहार की भाषा पर बंदिश लगाना ठीक नहीं...समझ आए तो ठीक है, वरना हम तो चलें घूमर करने.....

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