“Let us honour if we can
The vertical man
Though we value none
But the horizontal one.”
- W.H. Auden
लालकृष्ण आडवाणी एक ऊंचे इंसान हैं, कद के लिहाज से भी और व्यक्तित्व के मामले में भी. 90 साल की उम्र में भी सीधे खड़े हैं, फिर से कहूंगा कि शारीरिक रूप से भी और व्यक्तित्व के हिसाब से भी. यहां तक कि उनके साथ वैचारिक मतभेद रखने वाले भी मानेंगे कि उन्होंने स्वार्थ के लिए कभी भी अपने मूल सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. इस मायने में ऑडन के शब्दों में कहें, तो वो एक ‘वर्टिकल मैन’ हैं.
भारत के ‘वर्टिकल मैन’ को याद करना
ऐसे वक्त में जब देश इमरजेंसी की 43वीं सालगिरह मना रहा है, ये जरूरी हो जाता है कि हम देश के उन सारे ‘वर्टिकल मैन’ को सैल्यूट करें, जिन्होंने इमरजेंसी के खिलाफ संघर्ष किया और आखिरकार लोकतंत्र को फिर से बहाल करने में कामयाबी हासिल की. लालकृष्ण आडवाणी ऐसे ही लोगों में से एक हैं.
इमरजेंसी की शक्ल में आई इंदिरा गांधी की निरंकुशता के खिलाफ जिन हजारों लोगों ने संघर्ष किया, उनमें आडवाणी अग्रणी पंक्ति में शुमार रहे, जिसका नतीजा ये हुआ कि 1975-77 के बीच उनके 19 महीने जेल में गुजरे.
इमरजेंसी के खिलाफ लड़ने वाले और भी कई बड़े नायक रहे, जिनमें जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडिस, चंद्रशेखर, एके गोपालन जैसे कुछ चेहरे इमरजेंसी के सबसे मुखर चेहरों में शुमार रहे.
लेकिन कुछ चीजें ऐसी रहीं, जिनकी वजह से आडवाणी इमरजेंसी के काले दिनों की समाप्ति और लोकतंत्र के पुनर्जीवित होने के बाद भी बेहद प्रासंगिक बने रहे. जब इमरजेंसी के काले कानूनों को वापस ले लिया गया, लोगों के अधिकार बहाल हो गए, प्रेस पर से नियंत्रण हटा लिया गया और ऐसे में जब भारत के लोग आजादी की खुली हवा में सांस लेने लगे, तो 1977 के आम चुनाव के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री बने आडवाणी ने पत्रकारों को जो कुछ कहा वो यादगार बन गया. आडवाणी ने कहा, “आपको झुकने के लिए कहा गया था, आप तो रेंगने लग गए”
हालांकि ये सही है कि तब भी सभी पत्रकार सत्ता के आगे बिछ नहीं गए थे. तब भी मीडिया से लेकर शिक्षा और सिनेमा तक के क्षेत्र में इमरजेंसी का विरोध करने वाले कई हीरो मौजूद थे. लेकिन, अगर हम लोकतंत्र की कामना करते हैं, तो हमें आडवाणी के कहे गए उन शब्द को कभी नहीं भूलना चाहिए. देश में प्रेस की आजादी और नागरिक स्वतंत्रता हर हाल में बहाल रहनी ही चाहिए.
आडवाणी का चेतावनी भरा ये संदेश फिर से प्रासंगिक हो गया है, जबकि मीडिया की आजादी और नागरिकों के अभिव्यक्ति के अधिकार के सामने नए प्रकार का खतरा उत्पन्न हो गया है, जबकि ये दोनों चीजें लोकतंत्र के जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं.
अगर देश में इस वक्त कोई अघोषित इमरजेंसी है, तो लोकतंत्र से प्यार करने वालों के लिए ये खतरा चौंकाने वाला है. प्रेस पर कोई सेंसरशिप लगाए बिना सरकार मीडिया के काम में दखल देने और उसे प्रभावित करने की कोशिश कर रही है. मीडिया को अपने हिसाब से मोड़ने के लिए धन बल से लेकर सत्ता की ताकत तक का इस्तेमाल किया जा रहा है और ऐसी स्थिति में कई हैं जो घुटनों के बल रेंगने लग गए हैं.
मीडिया को कम या ज्यादा नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ सरकार इसका इस्तेमाल कर मीडिया की शक्ल में लोकतंत्र को भी कमजोर कर रही है. यहां तक कि देश में जो कुछ चल रहा है उसकी तपिश न्यायपालिका को भी महसूस हो रही है.
इमरजेंसी पर बीजेपी का यू-टर्न
विडंबना ही है, लेकिन आश्चर्य की बात नहीं है कि ये तब हो रहा है, जब बीजेपी सत्ता में है. विडंबना इसलिए क्योंकि वे जनसंघ (बीजेपी का पुराना अवतार) के लीडर ही थे और उनका कैडर ही था, जिन्होंने इमरजेंसी के खिलाफ आगे बढ़कर संघर्ष किया था. लेकिन, चौंकाने वाली बात इसलिए नहीं है क्योंकि जब कोई पार्टी (चाहे वो कोई भी पार्टी हो) सत्ता में आने और उसे बनाए रखने को ही अपना लक्ष्य बना लेती है, तो वो अपने सिद्धांतों और लोकतांत्रिक मूल्यों से दूर जाने लगती है. यही वजह है कि उसी कांग्रेस ने 1975 में देश में इमरजेंसी लगाई, जिसने देश में लोकतंत्र की बुनियाद रखी. जिसने देश के स्वतंत्रता संग्राम की अगुवाई की और 1947 में आजादी भी दिलाई.
ऐसा करते हुए इंदिरा गांधी ने अपने ही पिता के संसदीय लोकतंत्र को लेकर दिए गए भरोसे को नकार दिया. जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू का ये वक्तव्य बखूबी बयां करता है, “मैं आपसे असहमत हो सकता हूं, लेकिन आपके बोलने के अधिकार को मैं मरते दम तक बचाऊंगा.”
बीजेपी लोकतंत्र के सामने ठीक उस तरीके से अवरोध नहीं पैदा कर सकती, जैसा कि इंदिरा गांधी ने किया था. लेकिन, चार दशक पहले लोकतंत्र को बहाल कराने का इनका खुद को गौरवपूर्ण इतिहास भी इन्हें राजनीतिक विरोधियों और मीडिया के असहज करने वाले तबके के खिलाफ सत्ता के दुरुपयोग से नहीं रोकता.
ऐसे में जो कुछ हम देख पा रहे हैं वो ये कि भारतीय राजनीति में सिर्फ भूमिकाओं में बदलाव हो गया है. आज हम शायद ही किसी बीजेपी नेता को दमदारी के साथ प्रेस की आजादी के लिए बोलते हुए सुनते हैं. जो सत्ता में हैं उन्हें चर्चाओं में आलोचना पसंद नहीं है और न ही उन्हें देश के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भिन्न विचार रखने वाले लोग मंजूर हैं. इसके ठीक उलट राहुल गांधी बार-बार ये भरोसा दे रहे हैं कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो मीडिया की आजादी को पूरा सम्मान दिया जाएगा.
कांग्रेस को 1975 के लिए माफी मांगनी चाहिए
मीडिया को आजादी का भरोसा देने वाले राहुल के शब्द अभी भी पूर्ण विश्वास नहीं पैदा करते. ऐसा शायद इसलिए है, क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने कभी भी इमरजेंसी को लेकर खुद की आलोचना नहीं की. माफी तो दूर, कांग्रेस ने कभी भी देश के सामने इमरजेंसी के लिए पश्चाताप भी नहीं किया. इतने साल गुजर जाने के बाद शायद कांग्रेस के नेता ये सोचते हों कि अब इतिहास के उन काले दिनों में जाने का क्या फायदा? खुद की ऐसी कोई भी आलोचना इंदिरा गांधी की इमेज को खराब भी कर सकती है, जो कि आजादी के बाद की कांग्रेस की एक महान ‘आइकॉन’ रही हैं.
इमरजेंसी और इस पर बोलने को लेकर कांग्रेस की सोच जो भी हो, लेकिन पार्टी को निश्चित तौर पर इस मुद्दे पर उससे और अधिक स्पष्ट और भरोसा देते हुए दिखना होगा, जितना कि राहुल गांधी दे रहे हैं. कांग्रेस को लोकतंत्र को लेकर अपनी प्रतिबद्धता और मजबूती के साथ दिखानी होगी. कांग्रेस को देश को ये भरोसा देना ही होगा कि भविष्य में उनके शासन की स्थिति में नागरिक अधिकारों पर हमले नहीं होंगे और लोगों के मूल अधिकार सुरक्षित रहेंगे.
कांग्रेस पर इसलिए भी बार-बार भरोसा देने की जिम्मेदारी है क्योंकि यहां तक कि इमरजेंसी के बाद भी केंद्र और कई बार कुछ राज्यों में भी कांग्रेस ने छोटे-छोटे हितों के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं का दुरुपयोग किया. कह सकते हैं कि कांग्रेस ने रास्ता दिखाया और बाद में बीजेपी समेत सत्ता में आने वाली दूसरी पार्टियों ने भी लोगों के अधिकारों की अनदेखी, प्रेस की आजादी पर हमले, विरोधी विचारों के दमन जैसे हथियारों को आजमाया. इसका नतीजा ये रहा कि भारतीय राजनीति में लोकतंत्र विरोधी सोच फैलती और गहरी होती गई.
1975 की इमरजेंसी को चेतावनी के रूप में लेना चाहिए
मौजूदा परिदृश्य में भारत को फिर से ‘वर्टिकल मैन’ की जरूरत है. ऐसे तमाम लोग हैं भी. मीडिया में हैं, खुद राजनीतिक पार्टियों में हैं, सरकारी तंत्र में हैं, शिक्षा और कला के क्षेत्र में भी हैं और सिविल सोसाइटी में भी हैं. ऐसे में 25 जून को सिर्फ इमरजेंसी को याद करने का सालाना शगल नहीं होना चाहिए.
इसकी जगह हमें इसे एक ऐसी चेतावनी की रूप में लेना चाहिए कि लोकतंत्र और लोगों के अधिकार पर खतरा हमेशा ऐसे नहीं आना चाहिए, जैसे कि आधी रात को कोई पुलिसवाला आपके दरवाजे को खटखटा रहा हो. इस दिन को एक ऐसी चेतावनी के रूप में भी लेना चाहिए कि भारत कभी भी ऐसा अत्याचारी देश नहीं होगा, जो अपने ही देश के लोगों को घुटनों के बल सरकने तो क्या, झुकने के लिए भी कहेगा. सिर्फ रीढ़ की हड्डी वाले नेता और लोग ही लोकतंत्र के सच्चे सेवक हो सकते हैं.
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(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. ये पीएमओ में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सलाहकार रह चुके हैं. इस लेख को लेकर आप लेखक तक अपनी प्रतिक्रिया मेल कर सकते हैं : sudheenkulkarni@gmail.com इनसे @SudheenKulkarni पर भी संपर्क किया जा सकता है. ये एक ओपिनियन है और लेख के विचार लेखक के अपने हैं)
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