आज कोई नहीं मानता कि अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बहुमत मिलेगा. कई लोगों को यह भी लगता है कि बीजेपी अगली सरकार नहीं बना पाएगी. हर किसी के मन में यही सवाल है कि क्या 2019 का चुनाव हमें 1996, 1998 या 1999 की तरफ ले जाएगा.
1996 में बीजेपी ने पहली बार केंद्र में सरकार बनाई थी, जो सिर्फ 13 दिन चली थी. यह सरकार अविश्वास प्रस्ताव से गिरी थी. 1998 में गैर-बीजेपी, गैर-कांग्रेस, राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनी थी. वह भी इसी तरह से गिरी.
1999 में भी बीजेपी सरकार लोकसभा में विश्वास मत नहीं जीत पाई. इससे लगने लगा कि गठबंधन सरकारें टिकती नहीं है. पर 1999 के बाद बनी ऐसी सरकारें टिकाऊ साबित हुईं. तब लगा कि गठबंधन से देश की सियासत पीछा नहीं छुड़ा पाएगी. एनडीए और यूपीए इसके सबूत हैं.
2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया. अगले तीन साल तक हम सुनते रहे कि गठबंधन सरकारों का दौर खत्म हो गया है. वैसे तकनीकी तौर पर केंद्र में अभी एनडीए की सरकार है, लेकिन मोदी चाहते तो सहयोगी दलों को सरकार में शामिल होने का न्योता नहीं भी दे सकते थे. वह अपने दम पर सरकार बना सकते थे.
एक बार फिर गठबंधन सरकार की अटकलें लग रही हैं. लोकसभा चुनाव में तीन महीने से भी कम समय बचा है और यह तय है कि किसी भी पार्टी को इसमें बहुमत नहीं मिलने जा रहा.
क्या कहता है तजुर्बा
दो दशक (1996-2014) की गठबंधन सरकारों के तजुर्बे ने दिखाया है कि एक पार्टी की बहुमत सरकार या मिली-जुली सरकारों में ‘क्वॉलिटी ऑफ गवर्नेंस’ यानी राजकाज के स्तर में फर्क नहीं होता. गवर्नेंस के माध्यम कुंद हो गए हैं.
जहां तक विधायिका का सवाल है, लोकसभा में सिर्फ एक राज्य की पार्टियां अपनी चलाएंगी. उनके पास राज्य की आधी या उससे अधिक सीटें हो सकती हैं. इस तरह से देखें कि पार्टियां किन लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं, तो कथित राष्ट्रीय पार्टियां भी अब क्षेत्रीय बन गई हैं.
‘राष्ट्रीय पार्टी’ की परिभाषा काफी आक्रामक तय की गई है. चुनाव में किसी पार्टी को 5 पर्सेंट से अधिक वोट मिलते हैं, तो उसे राष्ट्रीय माना जाता है. भले ही इसमें से ज्यादातर वोट उसे एक या दो राज्यों में मिले हों. इस नजरिये से लोकसभा, राज्यसभा की तरह हो गया है, जबकि संविधान में उसे राज्यों के प्रतिनिधित्व के तौर पर देखा गया था.
दूसरी तरफ, राज्यसभा आज विधेयकों को लटकाने वाला संस्थान बनकर रह गया है. इसलिए राष्ट्रीय स्तर के कानून बनाना मुश्किल हो गया है और स्ट्रक्चरल रिफॉर्म बेहद धीमी गति से हो रहे हैं.
2019 के बाद अभी के राजनीतिक हालात देखकर यही लग रहा है कि लोकसभा चुनाव में अगर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनती है, तो राष्ट्रपति उसे सरकार बनाने का न्योता देंगे. इसके बाद उसे बहुमत साबित करना होगा. ऐसे में बीजेपी की हालत वैसी ही हो जाएगी, जैसी कांग्रेस की 2004 और 2009 में हुई थी. उसे तब सहयोगी पार्टियों की माननी पड़ेगी.
अगर ऐसी स्थिति बनती है तो क्या मोदी यूपीए जैसी सरकार का नेतृत्व करेंगे, जहां हर सहयोगी पार्टी बीजेपी को ब्लैकमेल कर सकती हो? या वह 1977 में इंदिरा गांधी की तरह सत्ता से बाहर रहेंगे कि जनता साल भर में उन्हें फिर से कुर्सी पर बिठा देगी?
बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को यह तय करना होगा कि वे कैसे मिलकर देश का शासन चला सकते हैं. आर्थिक मुद्दों पर मतभेद नहीं हैं. देश की सारी राजनीतिक पार्टियां बिजनेस-विरोधी हैं. विदेश नीति पर भी आम सहमति है.
पाकिस्तान के खिलाफ दुश्मनी और अमेरिका, चीन, रूस और पश्चिम एशिया के साथ सहयोग का फॉर्मूला इस मामले में स्वीकार कर लिया गया है. एडमिनिस्ट्रेशन और गवर्नेंस पर भी मतभेद नहीं हैं.
यहां राजनीतिक दूरदृष्टि दोस्तों को कॉन्ट्रैक्ट दिलवाने और सरकारी कर्मचारियों की पोस्टिंग तक सीमित है. अल्पसंख्यकों और शैक्षिक संस्थानों के साथ सलूक पर बीजेपी और सहयोगी दलों के बीच मतभेद उभर सकते हैं.
अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव और शैक्षिक संस्थाओं के साथ सख्ती बंद होनी चाहिए. सरकार बनाने में यही बात आड़े आएगी और मोदी ऐसी सरकार का नेतृत्व करने से इनकार कर सकते हैं, जिसमें उनके हाथ सहयोगी दलों की वजह से बंधे होंगे.
साल 2001 में वह ऐसा कर चुके हैं. उस वक्त उनसे गुजरात में केशुभाई पटेल के अंदर उप-मुख्यमंत्री के पद की पेशकश की गई थी, लेकिन मोदी ने उसे ठुकरा दिया था. कहते हैं कि उन्होंने उस समय कहा था- मुझे पूरी आजादी चाहिए.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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