ADVERTISEMENTREMOVE AD

आजादी के 44 साल बाद भी अपना वजूद नहीं ढूंढ सका है बांग्लादेश?

बांग्लादेश एक नया देश है और अब भी उन आदर्शों पर चलने का दम भरता है जिन पर उसकी आजादी की नींव रखी गई थी.

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

सलमान रश्दी ने अपने उपन्यास ‘शेम’ में जिस तरह पाकिस्तान को एक ऐसी जगह बताया है, जो ‘इनसफि‍शिएंटली इमेजिन्ड’ है, क्या आजादी के 44 साल बाद बांग्लादेश भी उसी स्थिति में है?

आज जब 1971 के देशद्रोहियों को फांसी देने की सनक में डूबा बांगलादेश, पाकिस्तान से अलग होकर एक नया राष्ट्र बनने की 44वीं सालगिरह मना रहा है, एक सवाल सामने आ जाता है कि आखिर भारत का यह पड़ोसी ज्यादा बंगाली है या ज्यादा मुसलमान.

एक देश की पहचान से जुड़े इस सवाल से सिर्फ बुद्धिजीवी ही नहीं, आम बांग्लादेशी भी कम परेशान नहीं हैं. इन दो विरोधी पहचानों के बीच तालमेल बिठाने के संघर्ष के चलते देश के राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी राजनीति के कुछ ऐसे पहलू भी सामने आ रहे हैं जिनका सामना करना आसान नहीं है.

इस बात पर बहुत अधिक असहमति नहीं है कि बांग्लादेश के पाकिस्तान के इस्लामिक गणराज्य से अलग होने के पीछे भाषाई आंदोलन और स्वायत्ता की मांग दोनों ही बराबर जरूरी कारण थे.

पर आजादी के बाद की घटनाएं और इस नए देश का खून से रंगा इतिहास इसी ओर इशारा करता है कि आज के बांग्लादेश के आदर्श, जो उसकी पहचान बन गए हैं, वे उन धर्मनिरपेक्ष आदर्शों से बिलकुल उलट हैं जिन पर बांगलादेश की आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी,

ADVERTISEMENTREMOVE AD

एक और क्रांति?



बांग्लादेश एक नया देश है और अब भी उन आदर्शों पर चलने का दम भरता है जिन पर उसकी आजादी की नींव रखी गई थी.
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना (फोटो: रॉयटर्स)

एक तरफ प्रधानमंत्री शेख हसीना 1971 की लड़ाई के शहीदों को इंसाफ दिलाने की जिद पर अड़ कर (चाहे उसके लिए गुनेहगारों को सजा क्यों न देनी पड़े), एक नई क्रांति की शुरुआत कर रही हैं. एक ऐसी क्रांति, जो बांग्लादेश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को नस्ल, भाषा और संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद के रंग में रंग रही है. इस राष्ट्रवाद का रंग खूनी लाल है. दोहराया जा रहा है कि हम बांग्लादेशी पहले बंगाली हैं बाद में कुछ और.

और वहीं दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगरों की हत्या करके अपने जिंदा होने का सबूत देता इस्लामिक कट्टरपंथ बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के मूल सिद्धांतों को ही धता बता रहा है.

0

दो अर्थव्यवस्थाओं का टकराव

राष्ट्रवाद के बोझ को ढोते बांग्लादेश में हो रहे संस्कृतियों के टकराव के लिए अगर दो अर्थव्यवस्थाओं का टकराव को जिम्मेदार ठहराया जाए तो गलत नहीं होगा - ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं का टकराव.

शहरी अर्थव्यवस्था उन शहर में पले-बढ़े, पढ़े-लिखे, कुलीनों की है जिनके लिए धार्मिक चरमपंथ एक अभिशाप से कम नहीं. और ग्रामीण अर्थव्यवस्था उन गरीब किसानों की है, जिन्हेें जमात-ए-इस्लामी और हिफाजत आंदोलन जैसे मुसलमान चरमपंथी संगठनों में शामिल कर लिया जाता है.

पिछले एक दशक के आर्थिक सुधारों ने देश के कई सामाजिक तबकों और पेशों की हैसियत बदलते हुए राष्ट्रवाद पर भी असर डाला है, क्योंकि राष्ट्रवादी समूह उन तबकों से अपने लिए लोग चुनते हैं जो हार रहे होते हैं, या जो अपनी हैसियत बढ़ाने की फिराक में होते हैं.

अतीत को एक बार फिर सामने लाने की कोशिश



बांग्लादेश एक नया देश है और अब भी उन आदर्शों पर चलने का दम भरता है जिन पर उसकी आजादी की नींव रखी गई थी.
दो विपक्षी नेताओं को मौत की सजा दिए जाने की खुुशी में नारे लगाता बांग्लादेशी झंडा थामे युवक. (फोटो: एपी)
ADVERTISEMENTREMOVE AD

बांग्लादेश एक नया देश है और अब भी उन आदर्शों पर चलने का दम भरता है, जिन पर उसकी आजादी की नींव रखी गई थी.

19वीं शताब्दी के स्कॉलर अर्नेस्ट रेनन के शब्दों में कहा जाए तो बांग्लादेश की राजनीतिक चेतना दो चीजों पर टिकी है, “उनमें से एक का जुड़ाव अतीत से है दूसरी का आज से. पहली की जड़ें अतीत की गौरवशाली यादों में है और दूसरी की आज की सहमति से, साथ रहने की इच्छा से, परंपरा को बचाए रखने की इच्छा से. [...] एक व्यक्ति की तरह एक देश भी, कोशिशों, कुर्बानियों और दुआओं का चरमोत्कर्ष होता है.”

अजीब बात यह है कि बांग्लादेश में हुई हालिया फांसियों का संबंध 1971 की लड़ाई के इतिहास को कुरेदने से है. और उस लड़ाई में पाकिस्तान का साथ देने वाले बंगाली मुस्लमानों से खुद को अलग करने की आवामी लीग की कोशिश खून खराबा साथ लाती है.

ऐसे में (सलाउद्दीन कादर चौधरी, गोलम आजम, अली अहसान मुहम्मद मुजाहिद जैसे) कुछ ‘नापाक चेहरे’ सामने लाना जरूरी हो जाता है. दूसरी तरफ, सोशल मीडिया की इस दुनिया में बांग्लादेश के युवा धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगर अपनी सांस्कृतिक रिवायतों को तकनीक के साथ घोलकर स्कूल कॉलेज में पढ़ने वाले युवाओं की ताकत के दम पर एक नए समाज की संकल्पना तैयार कर लेते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अंदरूनी लड़ाई



बांग्लादेश एक नया देश है और अब भी उन आदर्शों पर चलने का दम भरता है जिन पर उसकी आजादी की नींव रखी गई थी.
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना. (फोटो: रॉयटर्स)

दूसरी पारी शुरू करते वक्त जिस धर्मनिरपेक्षता की बात प्रधानमंत्री हसीना ने की थी, वह शायद बहुसंख्यकों के बीच कहीं खो गई है.

इस्लाम को मजबूत करने में जुटी खालिदा जिया की सरकार को सत्ता से बाहर करते वक्त शेख हसीना इसी मुद्दे पर अल्पसंख्यकों और मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को एकजुट कर सकी थीं कि एक देश की सफलता, (जिसके लिए उनके पिता औऱ परिवार के कई सदस्यों ने जान दी थी) के लिए धार्मिक एकता काफी नहीं है.

और अपने पिता की तरह उन्होंने भी फांसियों के बारे में अपनी स्थिति साफ कर और ब्लॉगरों के हत्यारों को ढूंढ निकालने की बात कर उन्होंने जता दिया है कि देश की संस्कृति की रक्षा उनके लिए अहम मुद्दा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राष्ट्रीयता का पैकेज



बांग्लादेश एक नया देश है और अब भी उन आदर्शों पर चलने का दम भरता है जिन पर उसकी आजादी की नींव रखी गई थी.
नवंबर में बांग्लादेश की मुख्य इस्लामी पार्टी जमात ए इस्लामी की हड़ताल के दौरान गश्त लगाते पुलिसकर्मी. (फोटो: एपी)

अभी यह नहीं कहा जा सकता कि दो साल बाद होने वाले चुनावों में हसीना को अपने रवैये का सियासी फायदा मिलेगा या नहीं पर ये साफ है कि हसीना ने आजादी के समय के धर्मनिरपेक्ष आदर्शों को इस अंदाज में पैकेज बनाकर जनता के सामने पेश किया है कि मुसलमानों और अल्पसंख्यकों का एक बड़ा तबका इसके आकर्षण से नहीं बच सकते.

पर इससे इस्लामिक ताकतों के मजबूत होने का डर भी बढ़ जाता है, क्योंकि बांग्लादेश दो अलग-अलग पहचानों का देश है, धर्मनिरपक्ष बंगाली और कट्टर मुसलमान - जिनकी पहचान को सियासी फायदों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×