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बिहार चुनावों से बंगाल में क्या सीखा जा सकता है? 

बिहार के चुनावों ने यह भी दर्शाया है कि जब लेफ्ट जमीनी स्तर के मुद्दों पर टिका रहता है,

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“जो लोग ऐसा सोचते हैं कि वे बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या करके चुनाव जीत सकते हैं, उन्हें दीवार की लिखावट पढ़नी चाहिए.” बिहार चुनावों में जीत के बाद नई दिल्ली में पार्टी वर्कर्स के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहा था.

बेशक, मोदी ने इस टिप्पणी के साथ पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार की तरफ निशाना साधा था. बिहार के बाद इसी राज्य में अगले साल चुनावी जंग छिड़ने वाली है. बीजेपी का परचम इस समय बुलंद है. 2019 में लोकसभा चुनाव के समय वह ममता बनर्जी के गढ़ में सेंध लगा चुकी है. दूसरी तरफ ममता की तृणमूल कांग्रेस 2011 के बाद अपने सबसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी से भिड़ने जा रही है.

पर पश्चिम बंगाल के चुनावों से बिहार चुनावों का क्या ताल्लुक? बिल्कुल है. बिहार के चुनावों से कुछ सीख तो ली ही जा सकती है-

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मौजूदा सरकार की वापसी

बिहार चुनावों की सबसे बड़ी सीख यह है कि मुख्यमंत्री नितीश कुमार की जनता दल (युनाइडेट) तीसरे नंबर पर रही है- गठबंधन के अपने जूनियर पार्टनर बीजेपी से भी पीछे. यह साफ है कि बिहार में गठबंधन के मुख्यमंत्री चेहरा नीतीश कुमार के खिलाफ हवा बह रही थी. लेकिन लॉकडाउन में केंद्र सरकार की नाकामी, प्रवासियों का संकट, बेरोजगारी, आर्थिक अटकाव का बीजेपी के वोटों पर असर नहीं हुआ.

बिहार के चुनावों ने यह भी दर्शाया है कि जब लेफ्ट जमीनी स्तर के मुद्दों पर टिका रहता है, उसे चुनावों में फायदा होता है. उसे बिहार में 29 सीटों पर लड़ने का मौका मिला था, जिनमें से 18 पर उसने जीत हासिल की और चुनावी चर्चा का हिस्सा बन गया. युवा चेहरों और जमीनी स्तर के आंदोलनों की हिमायत ने उसे जीत दिलाई. इससे साफ होता है कि बंगाल में भी, जहां लेफ्ट का बड़ा संगठनात्मक आधार और कैडर है, लाल सलाम की गूंज फिर से सुनाई दे सकती है.

बंगाल में लेफ्ट को अपना संगठन मजबूत करना होगा. उसे नए, भरोसेमंद चेहरों के जरिए युवाओं के बीच अपने आधार को भी सुदृढ़ करना होगा. बीजेपी को धार्मिक ध्रुवीकरण पर ध्यान लगाएगी और तृणमूल सेकुलरिज्म और सॉफ्ट हिंदुत्व पर. इसलिए पॉलिसी के आधार पर कैंपेन चलाने के लिए बड़ा स्पेस खाली है जिसका लेफ्ट भरपूर इस्तेमाल कर सकता है.कहा जाता है कि 2019 के चुनावों में राज्य में बहुत से लेफ्ट वोटर्स ने ममता बनर्जी के विकल्प के तौर पर बीजेपी को वोट दिया था.

लेफ्ट को वह जगह वापस हासिल करनी है, न सिर्फ चुनावों के लिए, बल्कि राज्य में अपने पुनर्जीवन के लिए भी. और हां, बिहार में कांग्रेस के साथ लेफ्ट का दोस्ताना, बंगाल में भी कायम हो सकता है.

मुसलमान, दलित और ओबीसी वोट

बिहार के चुनावों में मुसलमान, दलित और ओबीसी वोटों ने बड़ी भूमिका निभाई है. बिहार में मुसलमान 16.9 प्रतिशत हैं, जबकि बंगाल में उनकी संख्या काफी अधिक, 27 प्रतिशत है (2011 की जनगणना के अनुसार).

इसीलिए तृणमूल को इस बात से तसल्ली मिल सकती है कि बिहार में मुसलमान महागठबंधन के साथ गए थे, चूंकि ममता की ही तरह, उसकी केंद्रीय पहचान ‘मुसलमानों पर मेहरबान’ होने की है. लेकिन एआईएमआईएम का उठान तृणमूल के लिए चिंता का सबब हो सकता है. हाल ही में असदुद्दीन ओवैसी ने बंगाल के चुनावी रण में कूदने का ऐलान किया है.

एआईएमआईएम ने बिहार के सीमांचल क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया है जोकि बंगाल की सीमा से लगता हुआ क्षेत्र है और वहां बंगाली मूल के बहुत से मुसलमान बसे हुए हैं. इससे बंगाल के आसपास के जिलों में तृणमूल के लिए खतरा पैदा हो सकता है.

बीजेपी के प्रति बिहार में मतदाताओं का जो रवैया रहा, वह 2016 में तृणमूल कांग्रेस के प्रति बंगाली मतदाताओं के रवैये की याद दिलाता है. तब बड़ी फ्लाईओवर दुर्घटना और नारदा टेप्स के लीक होने के बाद भी तृणमूल बड़े बहुमत से वापस सत्ता में लौटी थी. करोड़ों के सारदा घोटाले में तृणमूल के बड़े नेताओं के शामिल होने के आरोपों के बावजूद पार्टी को नुकसान नहीं हुआ था. हालांकि इस बार तृणमूल को एक मजबूत, अधिक संगठित विपक्ष से मुकाबला करना पड़ रहा है.
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यह साफ है कि बीजेपी और तृणमूल दोनों, इन चुनावों को मोदी बनाम ममता की लड़ाई बनाना चाहते हैं. दोनों पार्टियां पर्सनैलिटी पावर पर दांव लगाना चाहती हैं. हालांकि बिहार ने साबित किया है कि भले ही मोदी की शख्सियत का चुनावों पर असर होता हो, लेकिन विधानसभा चुनावों में जनता केंद्रीय नहीं, राज्य स्तरीय मुद्दों पर वोट देती है.

तृणमूल ने यह भांप लिया है और वह ममता की अच्छे कामों, और नीतियों का प्रचार करने में जुटी है. साथ ही यह प्रचार भी कर रही है कि कैसे मोदी ने बंगाल के साथ अन्याय किया है. चूंकि ममता ने किसी पार्टी के साथ कोई गठबंधन नहीं किया है, इसलिए वह स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेंगी और केंद्र में मोदी सरकार पर हल्ला बोलती रहेंगी.

बीजेपी के लिए क्या काम करता है

जैसे बिहार में बीजेपी के पास कोई मुख्यमंत्री चेहरा नहीं था, बंगाल में भी उसके पास ममता को टक्कर देने वाला कोई चेहरा नहीं है. इसलिए साफ है कि बीजेपी वहां मोदी-शाह की जोड़ी को उतारेगी और सरकार विरोधी अभियान छेड़ेगी. हाल के दिनों में गृह मंत्री अमित शाह खुद बंगाल में पार्टी के लिए प्रचार कर रहे हैं. यह बिहार से एकदम अलग है, जहां पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने मोर्चा संभाला था. वैसे पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए लेफ्ट-कांग्रेस भी परेशानी पैदा कर सकते हैं जोकि सरकार विरोधी वोटों को बांटने का काम करेंगे.

बिहार में बीजेपी के लिए दो बातें काम आईं- एक ‘सुशासन’ और दूसरा लालू के ‘जंगल राज’ पर हमला करना. ममता सरकार को दस साल हो गए हैं, इसीलिए बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के बुरे प्रशासन पर जनता का ध्यान खींचने की कोशिश की जाएगी. और बीजेपी के बढ़ते धार्मिक ध्रुवीकरण से अलग, तृणमूल गवर्नेंस के मुद्दे पर चुनाव लड़ेगी, जैसे बिहार में आरजेडी ने किया था.
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लेफ्ट की राजनीतिक दखल बढ़ सकती है

बीजेपी से टक्कर तगड़ी है तो तृणमूल को भी हिंदुओं के बीच लोकप्रियता हासिल करने को मजबूर होना पड़ रहा है. हाल ही में पार्टी ने गरीब पुजारियों को घर और भत्ते देने की घोषणा की थी. ऐसे में अगर लेफ्ट एक साथ लड़ती है, या एआईएमआईएम जैसी पार्टी कुछ सीटों पर चुनाव लड़ रही है, तो दोनों ही तृणमूल के मुसलमान वोट छीन सकते हैं.

तृणमूल की हालत, इस समय दो धारी तलवार पर चलने जैसी है. उसे भाजपा को पूरी तरह से हिंदू वोट बोटरने से रोकना है, साथ ही यह भी तय करना है कि मुसलमानों को कोई दूसरा बेहतर विकल्प न दिखाई देने लगे.

द क्विंट ने अपनी पहले की एक रिपोर्ट में बताया था कि कैसे बंगाल में तृणमूल और बीजेपी मतुआ वोट बैंक पर आंखे गड़ाए हैं. बीजेपी ने 2019 में एससी/एसटी वोटों का महत्व समझ चुकी है. जंगलमहल के आदिवासी क्षेत्रों में उसे काफी फायदा हुआ था. मतुआ लोगों के बीच जीत हासिल करने की पूरी कोशिशें की जा रही हैं. उनकी आबादी 3 करोड़ के करीब है. उनके वोट जिसे मिलेंगे, चुनावों में उसका भविष्य सुनहरी होगा.
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महिला वोटर भी तय करेंगी भविष्य

पहले महिला वोटरों का झुकाव तृणमूल की तरफ था, और पार्टी ने उनके बीच जीत हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत भी की थी. कन्याश्री और रूपाश्री ममता सरकार की फ्लैगशिप स्कीम्स हैं. इनकी बदौलत 2016 और 2019 में महिला वोटर्स ने तृणमूल को फायदा पहुंचाया था.

2019 में तृणमूल की 41 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं थीं

भले ही बीजेपी ने दूसरे मतदाता समूहों में अपनी जगह बनाई हो, महिला वोट अब भी तृणमूल के साथ हैं. अगर बीजेपी बंगाल में भी बिहार सरीखी जीत हासिल करना चाहती है तो उसे यह समझना होगा कि किस तरह महिला वोटर चुनावों को प्रभावित करते हैं और बंगाल में इस पर ध्यान केंद्रित करना होगा.

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