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प्राइवेट स्कूल की फीस और मम्मी-पापा का दर्द: एक मां की जुबानी

स्कूल में बच्चों को पढ़ाना मिडिल क्लास के लिए कितना मुश्किल है एक मां से जानिए...

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सुबह की चाय के साथ जैसे ही अखबार के पहले पन्ने पर नजर गई, तो एक खबर पर नजर अटक गई - स्कूलों में कॉपी किताबें न बेची जाए. ये फरमान सीबीएसई ने जारी किया है. पढ़ते ही मन में खुशी की एक लहर सी दौड़ गई, लेकिन अगले ही पल मायूस हो गई. क्योंकि अब इस फरमान का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं था. अगर सीबीएसई ने ये आदेश एक महीने पहले जारी किया होता तो शायद इस महीने मेरी गाढ़ी कमाई के आठ हजार रुपए बच जाते.

ये एक ऐसे अभिभावक का दर्द है, जो बंगाल के एक छोटे से शहर से दिल्ली में नौकरी की तलाश में आया, घर बसाया और काफी मशक्कत के बाद अपने दो बच्चों को दिल्ली के प्राइवेट स्कूल में दाखिल कराया. और शायद ये हर उस अभिभावक का दर्द है, जिसने खुद तो सरकारी मीडियम स्कूल में पढ़ाई की थी लेकिन बच्चों को अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाने की सपना देखा था.

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अप्रैल के महीने का ये दर्द

जी हां, ये हर उस अभिभावक का दर्द है जो हर साल अप्रैल के महीने में उठता है. वो दर्द जो अप्रैल के महीने में प्राइवेट स्कूल हर अभिभावक को मोटी फीस, महंगी किताबें और ड्रेस की शक्ल में देते हैं.

दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले ज्यादातर अभिभावक मेरे इस दर्द में हमदर्द हैं. अप्रैल, वो महीना है जब स्कूल में बच्चों की परीक्षाएं खत्म हो जाती हैं, उनके नतीजे आते हैं और वो अगली क्लास में जाने की तैयारी में होते हैं.

नतीजे जारी होने वाले दिन से ही अभिभावक के दर्द की शुरुआत हो जाती है, क्योंकि बच्चे के रिपोर्ट कार्ड के साथ ही अगली क्लास की कॉपी-किताब, यूनिफार्म, बढ़ी हुई स्कूल फीस, बस फीस और तमाम खर्चों की बुकलेट अभिभावकों को पकड़ा दी जाती है. ये खर्चे अक्सर बच्चे के बेहतर प्रदर्शन की खुशी को ढंग से सेलिब्रेट तक नहीं करने देते, क्योंकि तब बच्चे की खुशियों पर होने वाला खर्च फ़िजूलखर्च लगने लगता है और अभिभावक स्कूल के खर्चे जुटाने के जुगाड़ में जुट जाता है.

खबर और चाय की चुस्कियों के साथ ही मन बीते दिनों की सैर पर निकल गया. साल 2010 – दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का समय था. सितंबर का अखिरी हफ्ता था. बतौर पत्रकार उन दिनों कॉमनवेल्थ की कवरेज में लगी थी.

एडमिशन का दर्द

दिल्ली के साथ- साथ नोएडा के कई स्कूलों के भी फॉर्म बच्चे के एडमिशन के लिए भरे थे. उन दिनों नोएडा में फॉर्म सितंबर-अक्टूबर में निकलते थे. फॉर्म भरने और जमा करने के बाद पहले अभिभावकों का इंटरव्यू होता, फिर बच्चे का इंटरव्यू.

नौकरी की भागदौड़ और व्यस्तता के बीच, जैसे-तैसे छुट्टी ले कर सभी प्रक्रियाएं पूरी कीं, लेकिन बच्चे का नोएडा के किसी स्कूल में कहीं एडमिशन नहीं हुआ. इसके बाद दिल्ली के स्कूलों की बारी थी. वहां के भी कई स्कूलों के फॉर्म भरे. दिल्ली में माता-पिता के इटंरव्यू का झंझट तो नहीं था, लेकिन प्वाइंट सिस्टम का पेच था. खैर बच्चे का नाम एडमिशन के लकी ड्रॉ में आया, और हम लकी थे कि हमारे बच्चे का सेलेक्शन ड्रॉ के जरिए हो गया.

उस दिन एहसास हुआ मानो सभी पाप धो-धाकर गंगा स्नान कर लौटे हों. एक बहुत बड़े चक्रव्यूह से निकल गई हूं. उस वक्त तक इस बात का एहसास नहीं था कि एक चक्रव्यूह से निकल कर उससे बड़े वाले चक्रव्यूह में फंस गई हूं. एक ऐसा चक्रव्यूह जिससे अगले 14 साल भेद ही नहीं पाउंगी.

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फीस की मार

साल 2010 में बच्चे की तीन महीने के फीस 9500 रुपए देती थी. स्कूल के कॉपी-किताब तब 1200 रुपए में तब आए थे. स्कूल की वो फीस अब तीन महीने के लिए 22 हज़ार रुपये तक पहुंच गई है. पांचवीं क्लास में कॉपी-किताब का खर्च भी पांच हज़ार के आसपास पहुंच चुका है.

स्कूल बस की लूट!

बच्चे के लिए स्कूल बस लगाने की हिम्मत सात साल में अब तक जुटा नहीं पाई, क्योंकि बस की 11 महीने की फीस जो 25 हजार हैं, जो एक साथ अप्रैल के महीने में ही देनी पड़ती है. इसलिए बच्चे के लिए प्राइवेट वैन लगाई, जो पहले 1200 रुपए प्रति माह लेती थी.

लेकिन अब जब बच्ची पांचवी क्लास में पहुंच गई है तब वैन की फ़ीस भी बढ़कर 2200 रुपए प्रति माह हो गई है.

स्कूल यूनिफॉर्म की कहानी का अलग ही दर्द

बढ़ता बच्चा है, हर साल कभी स्कर्ट छोटी होती है, तो कभी शर्ट. कभी हाउस टी शर्ट का रंग बदल जाता है, तो कभी जूते छोटे पड़ जाते हैं. यानी अप्रैल के महीने में एक बच्चे पर 32000 से 35000 रुपए खर्च होना तय है. और अगर दो बच्चे हैं, तो अप्रैल के महीने में 70 हजार तो सिर्फ बच्चों 70000 बैंक बैलेंस में बच्चों के नाम अप्रैल में तो पर ही खर्च होने हैं.

सबसे बड़ा गम तो ये कि अप्रैल, मार्च के बाद आता है. मार्च यानी वित्त वर्ष का आखिरी महीना, जिसमें ज्यादातर नौकरीपेशा लोगों की सैलरी पर टैक्स की कैसी तगड़ी मार लगती है, ये बता कर और उनके जख्मों को और कुरेदना नहीं चाहती.

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कॉपी किताब का दर्द

स्कूलों में फीस बढ़ोतरी की मनमानी पर तो दिल्ली से लेकर यूपी, हरियाणा, गुजरात और देश के कई हिस्सों में बवाल मचा है. इस बवाल पर फिर कभी लिखूंगी. लेकिन अभी आपसे कॉपी-किताब पर अपना दर्द जरूर साझा करना चाहती हूं.

कॉपी-किताब के साथ अच्छी-खासी तादाद में पेंसिल, इरेजर, शार्पनर, कलर पेंसिल, वाटर कलर, पेस्टल शीट, फेविकोल, ओरिगेमी शीट, कॉपी पर चढ़ाने वाले कवर ये सब आपको प्राइवेट स्कूल के तयशुदा बुक शॉप से लेना अनिवार्य है. और इनकी रेट लिस्ट देख लें तो आपके होश उड़ जाएंगे.

कहने को बच्चे सीबीएसई बोर्ड से संबद्ध स्कूल में पढ़ते है, लेकिन कोई भी किताब एनसीआरटी की नहीं चलती. आर्ट की किताब 300 रुपए की आती है. बाकी अंग्रेजी, हिन्दी की तीन अलग-अलग किताबें. एक भी किताब की 250 रुपये से कम की नहीं. विज्ञान और गणित कि कीमत 400 पार. 50 पेज की एक रजिस्टर की कीमत स्कूल में 100 रुपए में दी जाती है जो कि बाजार में 50 रुपए में आसानी से मिल जाती है. फर्क बस इतना कि स्कूल से मिलने वाली नोटबुक का रंग अलग-अलग विषय के मुताबिक अलग होता है और उनपर स्कूल का नाम लिखा होता है.

Q. स्कूल में एक बार बच्चे की टीचर से ये सवाल पूछा कि कॉपी-किताब की कीमत इतनी ज्यादा क्यों लेते है?

A. तो दो टूक जवाब मिला, जहां कम लेते हैं उसी स्कूल में बच्चे का नाम लिखवा लीजिए.

यानी स्कूल भी समझता है कि बार-बार स्कूल बदला नहीं जा सकता, क्योंकि उसके भी अलग खर्चे हैं. कुल मिलाकर प्राइवेट स्कूल और स्कूल की फीस के चक्रव्यूह में जो एक बार फंस गया, उसकी हालत मरता क्या न करता वाली है. चूस लो जितना चूस सकते हो.

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स्कूल स्टेशनरी की कहानी

अब कहानी सुनिए स्कूल से मिलने वाली स्टेशनरी की. चाहे पूरे साल में दस बार ही उस फेवीकोल का काम हो, लेकिन लेना आपको फेविकॉल का बड़ा डब्बा ही पड़ेगा.

हमारे जमाने में कॉपी का कवर या तो पुराने कैलेंडर का होता था या बांस पेपर का और कई बार तो अखबार से भी काम चला लेते थे. लेकिन अब आपको स्कूल वाली बुक शॉप से मिलने वाला प्लास्टिक का कवर लेना अऩिवार्य है.

पेंसिल कलर बाजार में 40 से 60 रुपए के बीच मिल जाएंगे, लेकिन स्कूल में एक खास ब्रैंड का पेंसिल कलर लेना अनिवार्य है जो कि बाजार से दुगुने दाम पर मिलेगा. वही हाल पेस्टल कलर का भी है.

ऐसा भा नहीं कि पिछले साल की बची हुई कलर पेंसिल या पेस्टल कलर का इस्तेमाल दोबारा कर लें. ऐसा इसलिए क्योंकि अगले साल की लिस्ट तो स्कूल से ही मिलेगी और पिछले साल के कलर के ब्रैंड की जगह कोई और ब्रैंड के कलर खरीदने का आदेश होगा, जिसे खरीदना आपकी मजबूरी हैं.

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नर्सरी का दर्द

नर्सरी या प्री-स्कूल और प्री-प्राइमरी में पढ़ने वाले बच्चों की कहानी तो बिलकुल ही अलग है. उनके तो बुक, कॉपी कलर, पेंसिल सब कुछ स्कूल खुलने के पहले ही दिन जमा करा लिया जाता है. बच्चे ने पेंसिल कितनी खर्च की, कलर अगले साल इस्तेमाल करने लायक छोड़े या नहीं, इन सबसे कोई मतलब ही नहीं.

ऐसा भी नहीं कि बड़ी बहन या भाई की किताब छोटे भाई-बहन पढ़ लें. क्योंकि जब तक उनका नम्बर आएगा, किताबें ही बदल जाएंगी. इसलिए हजारों की किताब किलो के हिसाब कबाड़ी वाले को ही बेचनी पड़ेगी.

हालांकि मेरे बच्चे एक ठीक-ठीक अंग्रेजी मीडियम वाले प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं लेकिन तामझाम, शोहरत और रुतबे के मुताबिक स्कूलों की फीस कम या ज़्यादा या फिर बहुत ज्यादा भी होती है और उसी के साथ अभिभावकों का दर्द भी कम या ज़्यादा होता है.

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सब जानते हैं कि स्कूली शिक्षा राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र का विषय है. बोर्ड का काम परीक्षा करवाना है. लेकिन सिर्फ इसी आधार पर स्कूलों को हर बात में मनमानी करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वो प्राइवेट है और सरकार से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती.

CBSE को सख्ती करनी होगी

हालांकि इस बार सीबीएसई ने प्राइवेट स्कूलों को साफ कहा है कि उनका काम शिक्षा का व्यवसायीकरण करना नहीं है, लेकिन केवल सर्कुलर से बात बनती नहीं दिखती. सीबीएसई को ऐक्शन में आना होगा. मनमानी करने वाले स्कूलों पर कड़ी कार्रवाई करनी होगी. ऐसी कार्रवाई जो दूसरे स्कूलों के लिए मिसाल बनें और ये साफ संदेश दें कि बच्चों की पढ़ाई को बाजार नहीं बनने दिया जाएगा.

सीबीएसई को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे तभी प्राइवेट स्कूलों में उसका ख़ौफ़ होगा और तभी वो सुधरेंगे. नहीं तो हम जैसे अभिभावकों का दर्द अगले अप्रैल में भी इसी तरह उभरेगा और शायद तभी अपना दर्द इसी तरह साझा करने के सिवाय कोई और चारा नहीं होगा.

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