आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को हर कोई अपनी जीत बता रहा है. वैसे जहां तक कल्याणकारी योजनाओं को जरूरतमंदों तक पहुंचाने की बात है, उसमें आधार की भूमिका अहम है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 22.18 करोड़ लोगों को आधार से जुड़े डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर से एलपीजी सब्सिडी, 19.25 करोड़ लोगों को रियायती दरों पर राशन और 10.13 करोड़ को मनरेगा की दिहाड़ी मिल रही है.
आधार पर 4:1 से बहुमत के फैसले में जस्टिस सीकरी ने लिखा, ‘अगर आधार को खत्म कर दिया जाता है, तो 99.76% लाभार्थियों पर बुरा असर पड़ेगा.’ 1448 पेज के फैसले से आधार के वास्तविक मकसद को बहाल किया गया है. इसे जरूरतमंदों तक सामान, सब्सिडी और सेवाएं पहुंचाने के लिए पहचान प्रमाणित करने की खातिर लाया गया था. हालांकि समय के साथ इसे कई चीजों से जोड़ दिया गय, जिसे लेकर विवाद खड़े हुए.
जनहित क्या है?
आधार कानून, 2016 की प्रस्तावना को ऐसे तैयार किया गया था कि बिल को राज्यसभा में बचाया जा सके और बाद में इसका दायरा बढ़ाने की गुंजाइश बनी रहे. इसमें आधार के बारे में कहा गया है, ‘इस कानून से सुशासन, सक्षम, पारदर्शी और जरूरतमंदों को सब्सिडी, दूसरे लाभ और सेवाएं मिलेंगी. इसके लिए पैसा कंसॉलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया से आएगा. ये सुविधाएं और लाभ देश के नागरिकों को मिलेंगे. इसके लिए उन्हें यूनिक आइडेंटिटी नंबर दिए जाएंगे. इसका इस्तेमाल अन्य सेवाओं या अचानक आने वाली किसी जरूरत की खातिर भी किया जा सकता है.’
इसे सेक्शन 4(3) से मजबूत बनाया गया है. इसमें बताया गया है कि फिजिकल या इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में आधार नंबर के वेरिफिकेशन के बाद और दूसरी शर्तों के साथ इसका इस्तेमाल अन्य काम में किया जा सकता है. इस कानून के सेक्शन 7 के बाद ‘किसी मकसद’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है. सेक्शन 7 में केंद्र और राज्य सरकार को आधार का दायरा बढ़ाने का अधिकार दिया गया है.
इसका मतलब यह है कि जिन चीजों के लिए भी सरकारें पैसा देती हैं, उन्हें आधार से लिंक किया जा सकता है. दिलचस्प बात यह है कि रोड बनाने से लेकर नागरिक सुविधाओं और यहां तक कि टैक्स छूट तक से सरकारी खर्च जुड़ा हुआ है.
इस कानून के सेक्शन 57 में प्राइवेट कंपनियों को सेवाएं देने या बैंक खाता खोलने और इंश्योरेंस कंपनियों को पहचान तय करने के लिए आधार के इस्तेमाल की मंजूरी दी गई है.
सेक्शन 57 में कहा गया है, ‘आधार का किसी भी मकसद के लिए पहचान सुनिश्चित करने की खातिर प्रयोग किया जा सकता है.’ सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस धारा का दुरुपयोग हो सकता है. उसने कहा कि इसके लिए कानून बनाना होगा.
कोर्ट ने यह भी कहा कि भविष्य में अगर इस तरह के कानून बनते हैं, तो उन्हें अदालत में चुनौती दी जा सकती है. मैंने अपनी किताब ‘आधारः अ बायोमीट्रिक हिस्ट्री ऑफ इंडियाज 12 डिजिट रिवॉल्यूशन’ में लिखा है कि सरकार को यह समझना होगा कि गवर्नेंस की सारी कमियों को सिर्फ आधार से दूर नहीं किया जा सकता.
इंडिविजुअल बनाम सरकार
कार्यकर्ताओं और याचिका दायर करने वालों ने आधार कानून में कई कमियां होने का दावा किया था. मिसाल के लिए, सेक्शन 47 में लिखा है, ‘अगर कोई अथॉरिटी या अधिकारी या अधिकृत शख्स शिकायत नहीं करता, तो अदालत आधार कानून को लेकर किसी शख्स को दंडित नहीं कर सकती.’ मैंने अपनी किताब में पूछा था कि क्या इसका मतलब यह है कि किसी शख्स के पास कंप्लेन करने का भी अधिकार नहीं होगा और उसे इसके लिए अथॉरिटी पर निर्भर रहना होगा?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह गड़बड़ी दूर हो गई है. कोर्ट ने कहा है कि सेक्शन 47 में संशोधन होना चाहिए, ताकि किसी शख्स या पीड़ित को शिकायत दर्ज कराने का अधिकार मिले. अदालत ने आधार कानून के सेक्शन 33(2) को भी खारिज कर दिया, जिसमें राष्ट्रहित में जानकारी सार्वजनिक करने पर रोक थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार इसकी जगह नई शर्त जोड़ने को आजाद है.
उसने कहा कि सूचनाओं को सार्वजनिक करने की प्रक्रिया से ज्यूडिशियल ऑफिसर को जोड़ा जा सकता है. अगर हाईकोर्ट के जज यह काम करें, तो अच्छा होगा. इस फैसले से एक तरह से यह बात दोहराई गई है कि जनता संप्रभु है और सरकार उसके लिए बनी है.
मनी बिल का रास्ता
विपक्ष, कार्यकर्ताओं और याचिका दायर करने वालों ने मनी बिल की परिभाषा के मार्फत आधार कानून को चुनौती दी थी. यूपीए सरकार विपक्ष के असहयोग की वजह से कई बिल पास नहीं करवा पाई थी. राज्यसभा में इससे बचने के लिए एनडीए सरकार ने मनी बिल का रास्ता चुना.
आधार कानून की प्रस्तावना में ‘कंसॉलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया से किया जाने वाला खर्च’ लिखने की दो वजहें थीं. एक तो इससे सरकार को सभी योजनाओं और प्रोजेक्ट से आधार को जोड़ने का अधिकार मिल गया. दूसरे, इससे आधार को मनी बिल के रूप में पेश करने का रास्ता साफ हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान की भावनाओं के खिलाफ माना.
जस्टिस चंद्रचूड़ ने असहमति जताते हुए लिखा कि इस कानून में कई ऐसी बातें हैं, जो अदालती फैसलों से मेल नहीं खाती हैं. संविधान में जिन मामलों में लोकसभा अध्यक्ष की राय को सर्वोपरि माना गया है, चंद्रचूड़ ने उनके बारे में कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. वैसे इस पर अलग से बहस की जरूरत है.
ऐसे लोकतांत्रिक देश और अर्थव्यवस्था में, जहां केंद्र और राज्य सरकारें इस साल मिलकर 60 लाख करोड़ से अधिक खर्च करने वाली हैं, उसमें कोई विधेयक मनी बिल है या नहीं, यह किसी एक शख्स पर आश्रित नहीं होना चाहिए. क्या ऐसे मामलों को सदन में मतदान के जरिये तय किया जाना चाहिए? इस पर भी चर्चा की जरूरत है.
नागरिकों की जासूसी का डर
आधार को अदालत में चुनौती देने वालों का कहना था कि इससे देश सर्विलांस स्टेट में बदल जाएगा, जो लोकतंत्र की बुनियाद के खिलाफ है. लोगों के जेहन में आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कोर्ट के फैसले के बाद यह आशंका दूर हो गई है?
सुप्रीम कोर्ट के बहुमत फैसले के मुताबिक, यह कहना ठीक नहीं होगा कि आधार से संवैधानिक भरोसे का उल्लंघन होता है. इसमें कहा गया है कि अदालत ने कुछ शर्तों को खत्म कर दिया है और कुछ में बदलाव किया है. उसने कहा कि सीआईडीआर में स्टोर बायोमीट्रिक और डेमोग्राफिक इंफॉर्मेशन के आधार पर किसी इंसान का प्रोफाइल तैयार करना मुश्किल है. यह डेटाबेस इंटरनेट से नहीं जुड़ा है, इसलिए यह सुरक्षित है.
जजमेंट में कहा गया है, ‘एनरोलमेंट के दौरान सिर्फ आइरिश और फिंगरप्रिंट डेटा लिए गए थे. अथॉरिटी किसी ट्रांजेक्शन की डिटेल, लोकेशन या उसके मकसद के डेटा स्टोर नहीं करती. ये सूचनाएं भी गोदाम में स्टोर की जाती हैं और उन्हें मिलाने पर पाबंदी है.’
सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस श्रीकृष्ण कमेटी की सिफारिशों के आधार पर प्राइवेसी लॉ और डेटा प्रोटेक्शन की जरूरत पर भी जोर दिया. इसमें अहम बात ‘गोदाम में पड़े डेटा को मिलाने पर पाबंदी है, लेकिन इससे मन में यह सवाल खड़ा होता है कि अगर यह पाबंदी हटा ली जाती है, तब क्या होगा...’ क्या सरकार प्रोफाइल तैयार करने के लिए ऐसा कर सकती है? क्या वह इसके लिए कानून बना सकती है?
थ्योरी के लिहाज से देखें, तो सरकार के पास कानून बनाने का अधिकार है. हम इसका अनुमान नहीं लगा सकते कि राजनीतिक पार्टियां क्या करेंगी. हमें आजादी और लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमेशा चौकन्ना रहना होगा.
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