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अंबेडकर वाहिनी, दलित दिवाली’ दूर करेगी समाजवादी सियासत का अंधेरा?

अंबेडकर जयंती पर बीजेपी से लेकर समाजवादी पार्टी तक दलितों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है

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14 अप्रैल- बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के जन्मदिन को यूपी में समाजवादी 'दलित दिवाली' के तौर पर मना रहे हैं. टीका उत्सव का समापन दिवस भी है. इसकी शुरुआत तीन दिन पहले 11 अप्रैल को ज्योतिबा फूले की जयंती पर हुई थी. अखिलेश यादव अंबेडकर वाहिनी को मूर्त रूप दे रहे हैं. 37 साल पहले 14 अप्रैल के ही दिन कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनायी थी. लिहाजा बीएसपी का स्थापना दिवस भी है.

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अंबेडकर के बरक्श भारतीय राजनीति की ये घटनाएं निश्चित रूप से अहम हैं. अंबेडकर की जरूरत सियासतदानों को है यह बात महसूस की जा सकती है. अखिलेश यादव की ‘दलित दिवाली’ की पहल ने तो नये किस्म की सियासी बहस को भी जन्म दे दिया है.

अंबेडकरवादी सोच को मिलेगा समाजवादी आधार?

देश के बाकी हिस्सों में अंबेडकर के लिए दिख रही श्रद्धा से कहीं अधिक यह उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़ रही है. इसकी वजह हैं समाजवादी विरासत को थामे युवा नेता अखिलेश यादव. इसकी पृष्ठभूमि है 2019 के आम चुनाव से पहले अखिलेश यादव और मायावती के बीच का सियासी गठजोड़. यह गठजोड़ चुनाव बाद टूट जरूर गया था लेकिन अखिलेश ने कभी अपनी जुबान से मायावती, बीएसपी या उसके दलित वोट बैंक के लिए मन खट्टा करने वाली बातें कभी नहीं कहीं. यह उस गठजोड़ का असर ही है जो अखिलेश यादव के ‘दलित दिवाली’ वाले प्रस्ताव को गंभीर बना रही है. अंबेडकर वाहिनी की घोषणा से भी सियासी जगत चौकन्ना है. किन्तु, क्या अखिलेश यादव अपने समाजवादी आधार को अंबेडकरवादी सोच से जोड़ पाएंगे?

बहुत सक्षेप में इस सोच से जुड़ी सैद्धांतिक-सियासी पृष्ठभूमि पर नजर डालते हैं. वह गांधी थे, गांधीवाद था जिनके अनशन ने बाबा साहब अंबेडकर के साथ ‘पूना पैक्ट’ को जन्म दिया. गांधी हिन्दुओं को बंटने नहीं देना चाहते थे और अंबेडकर अछूत वर्ग को आजादी का अहसास कराना चाहते थे. फिर आजादी के बाद 1956 में एक कोशिश दिखी, जब समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया और अंबेडकर एक-दूसरे के पास आना चाह रहे थे लेकिन मुलाकात से पहले ही अंबेडकर चल बसे. बाद में लोहियावादी मुलायम और अंबेडकरवादी कांशीराम ने 1993 में हाथ मिलाए, लेकिन यह गठजोड़ ‘गेस्टहाऊस कांड’ में स्वाहा हो गया. अखिलेश-मायावती के रूप में एक और पीढ़ी ने 2019 के आम चुनाव से पहले समाजवादियों और अंबेडकरवादियों को करीब लाने का प्रयास किया, लेकिन आखिरकार यह कोशिश भी विफल रही.

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दलितों के घर चले अखिलेश साइकिल लेकर

अखिलेश यादव इस बार दलितों के बीच कदम बढ़ाने खुद पहुंचे रहे हैं. वे जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में सियासत की बागडोर दलितों के लिए सुरक्षित 84 सीटें रही हैं. 2017 में बीजेपी के पास इनमें से 70 सीटें रहीं, तो 2007 में बीएसपी के पास 62 सीटें थीं. खुद अखिलेश भी सीएम तभी बन पाए थे जब उनके पास 58 सुरक्षित सीटों पर निर्वाचित विधायक थे. अभी महज 7 हैं. अखिलेश ने तय किया है कि वे अंबेडकरवाहिनी बनाएंगे तो निश्चित रूप से उनकी कोशिश दलितों की बस्तियों में साइकिल घुमाने की है.

यह बात महत्वपूर्ण है कि मायावती सरकार से दुखी और नाराज होने के बाद दलितों की पहली पसंद समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव ही बने थे. मगर, यह भी सच है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में दलितों के समर्थन के बावजूद अखिलेश अपनी पत्नी और भाइयों की सीटें भी नहीं बचा सके. यादव परिवार की बहू डिंपल यादव ने कन्नौज में जब सार्वजनिक मंच पर दलित नेता मायावती के पैर छुए थे तो एससी समुदाय जरूर खुश हुआ, मगर समाजवादी कार्यकर्ताओं ने इसकी उलट प्रतिक्रिया दी. बाकी सीटों पर भी यही रुझान देखने को मिले थे. अखिलेश के सामने यह खतरा आगे भी बना रहेगा.

प्रयोगधर्मी अखिलेश का जारी है प्रयोग

अखिलेश प्रयोगधर्मी हैं. विधानसभा और लोकसभा में अलग-अलग गठबंधन के तौर पर उनके प्रयोग विफल जरूर रहे, लेकिन इससे उन्होंने सीखा है. यही वजह है कि उन्हें जिले-जिले परशुराम की मूर्तियां लगवाने से भी परहेज नहीं है और ‘दलित दिवाली’ मनाने से भी. ‘दलित दिवाली’ का एलान करते हुए अखिलेश साधुओं के बीच कुंभ स्नान भी करते दिख जाते हैं और शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती के समक्ष शीष झुकाती तस्वीरें भी प्रचारित कराते हैं.

एक ऐसी सियासत की लकीर खींचने में जुटे हैं अखिलेश यादव जो समाजवादी पार्टी को ‘मुल्ला मुलायम’ के अतीत से निकाल ले जाए. वे जानते हैं कि बीजेपी देश की सियासत की मुख्य धारा बन चुकी है और इस सियासत के समक्ष खड़ा रहने के लिए राह भी मुख्य धारा के समांतर ही निकलेगी. जो समांतर धारा मजबूत होगी, मुसलमान उसी बहाव में बहेंगे.
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अखिलेश की सियासी सफलता इस बात पर निर्भर करने वाली है कि एससी समुदाय में गैर जाटव वर्ग को वह कितना जोड़ पाते हैं, क्योंकि जाटव वर्ग को अब तक कोई बहुजन समाज पार्टी से जुदा नहीं कर पाया है. 22 फीसदी एससी वर्ग में 12 फीसदी जाटव हैं. एससी के साथ-साथ ब्राह्मणों (10-11 फीसदी) को अगर अखिलेश समाजवादी पार्टी के साथ जोड़ पाने में सफल रहते हैं तो उन्हें अपना छिटका हुआ समाजवादी वोट बैंक भी दोबारा हासिल हो सकता है.

यादव भी गोलबंद हो सकते हैं और मुसलमान भी. दलित दिवाली वास्तव में समाजवादी सियासत का अंधेरा दूर करने का सामर्थ्य रखती है. अंबेडकरवाहिनी अगर इस दिवाली की फुलझड़ी को अधिक से अधिक इलाकों में ले जाने में सक्षम रहती है तो अखिलेश की साइकिल के लिए यह बत्ती का काम करेगी.

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अखिलेश के लिए चुनौती बीएसपी नहीं बीजेपी

अखिलेश के लिए चुनौती बड़ी है क्योंकि उनके सामने चुनौती बीएसपी या मायावती नहीं हैं. असल चुनौती बीजेपी है. देश की दलित सियासत में सबसे ज्यादा सांसद-विधायक बीजेपी के पास ही है. इसलिए सिर्फ प्रतीकात्मक पहल से अखिलेश को सफलता नहीं मिलने वाली है. गौर कीजिए कि अखिलेश की ‘दलित दिवाली’ के मुकाबले बीजेपी ने जिस तरीके से ज्योति बा फूले और बाबा साहेब दोनों को ‘टीका उत्सव’ से जोड़ लिया और इसके लिए समूचे सरकारी तंत्र का इस्तेमाल कर लिया, वह सोच और क्रियान्वयन की क्षमता किसी और के पास नहीं दिखती.

अखिलेश ने यूपी में सत्ता के समांतर सियासत में बाकी दलों की तुलना में अधिक सक्रियता रखी है और इसी वजह से उनकी अपील को सियासी स्तर पर जवाब भी मिल रहा है. अन्यथा पंचायत चुनाव में हर जिले से दो ब्राह्मण उम्मीदवार देने की मायावती की पहल का जवाब देने न बीजेपी सामने आयी और न कोई दूसरी पार्टी. अखिलेश को अभी एससी वर्ग का विश्वास जीतने के लिए नारों और प्रतीकों से आगे आना होगा और कम से कम उस लकीर से बड़ी लकीर खींचनी होगी जो बीजेपी ने खींच रखी है. तभी समाजवादी पार्टी 2012 में मायावती सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी की तरह 2022 में भी योगी सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी का फायदा उठा ले जा सकती है.

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