‘आर्टिकल 15’ के ‘ब्राह्मणवादी’ लेंस पर अनुभव सिन्हा अपना जवाब दे चुके हैं. फिल्म का नायक क्यों अपर कास्ट है और कैसे फिल्म उसके नजरिये से कहानी कहती है. अनुभव के पास अपने जवाब हैं. कई मायने में उनका तर्क जायज है. आखिर अपर कास्ट को ही तो असल में सोचने-समझने की जरूरत है. उसका नजरिया जब तक बदलेगा नहीं, तब तक समाज में बदलाव भी नहीं होगा.
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इस सोच के बावजूद फिल्म एक क्राइम थ्रिलर क्यों बनकर रह जाती है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए. चूंकि जिस जाति प्रथा पर प्रहार करने की कोशिश फिल्म करती है, वह कहीं मूल कथानक के नेपथ्य में चला जाता है. दलित रिप्रेजेंटेशन के लिहाज से फिल्म मात खा जाती है.
ऐसा नहीं है कि ‘आर्टिकल 15’ में दलित मुख्य कथानक का अंग नहीं. जिन लड़कियों का बलात्कार और हत्या होती है, वह दलित समुदाय की ही हैं. जिस लड़की की खोज हो रही है, वह भी दलित है. फिल्म में पुलिस अधिकारियों के सामने हाथ जोड़े खड़े लोग भी दलित हैं. बस, यही हाथ जोड़ना फिल्म की असल कमी है.
दलित कैरेक्टर्स जैसे सिर्फ हाथ जोड़ने के लिए हैं. इनमें से सिर्फ एक गौरा सबकी आंख से आंख मिला पाती है. लेकिन फिल्म में उसकी मौजूदगी बहुत कम है, बाकी सबके सब चुपचाप रहते हैं. एक पुलिसवाला जाटव, जिसके पिता कभी स्कूल में झाड़ू लगाया करते थे, निष्क्रिय बना रहता है. सिवाए क्लाइमेक्स में, रेपिस्ट सीनियर पुलिसवाले को थप्पड़ मारने के अलावा. फिल्म के अधिकतर दलित कैरेक्टर दबे-कुचले ही हैं. सामाजिक व्यवस्था के हाशिए पर खड़े.
कोई व्यवस्था के खिलाफ आवाज नहीं उठाता या कहानी उन्हें मुखर दिखाने की सायास कोई कोशिश नहीं करती. फिल्म का सबसे दमदार दलित पात्र निषाद है. चंद्रशेखर रावण से प्रेरित. उसे फिल्म में दो जगह संवाद का मौका मिलता है. एक बार नायक अयान के साथ, दूसरा गौरा के साथ.
दोनों सीन बहुत खूबसूरत और महत्वपूर्ण हैं, लेकिन बहुत छोटे हैं. निषाद का कैरेक्टर वहां उभरकर नहीं आता. संविधान पर चर्चा करते-करते फिल्म फिर अपराध कथा ही बनी रहती है. निषाद के चरित्र को बस हल्का सा स्पर्श करती है.
हमें यानी दर्शकों को हल्का सा एहसास कराया जाता है कि निषाद रोहित वेमुला की ही तरह सपने देखा करता है. बाकी यह नहीं जान पाते कि उसकी अपनी जिंदगी के क्या रंग हैं.
इन रंगों को देखने के लिए आपको पा. रंजीत की फिल्म ‘काला’ देखनी होगी. दलित प्रतिनिधित्व का ऐसा उदाहरण सिर्फ मराठी की दो फिल्मों में देखने को मिलता है, वह हैं ‘फैंड्री’ और ‘सैराट’. इन फिल्मों में दलित सिर्फ दमित नहीं हैं. दमन उनकी जिंदगी का अंग भले हो, लेकिन उसके खिलाफ विरोध के स्वर भी हैं.
‘फैंड्री’ का किशोर दलित नायक जब्या लगातार अपने हालात के प्रतिकूल खड़ा होता है, इसके बावजूद कि प्रेम का अंकुरण उसकी जिंदगी का सबसे सुंदर हिस्सा है. ‘सैराट’ इसी प्रेम के युवा रूप को प्रदर्शित करती है. इसका दलित नायक परश्या, अपर कास्ट लड़की से प्रेम करता है. यह जाति व्यवस्था के खिलाफ उसका पुरजोर विरोध ही है.
दोनों फिल्मों में निर्देशक नागराज मंजुले ने ऐसे नायक गढ़े हैं जिनके जीवन में उल्लास और उत्साह है. अपनी स्थिति के प्रति छटपटाहट है, तो उससे बाहर निकलने की कोशिश भी.
रजनीकांत अभिनीत ‘काला’ इन दोनों से आगे की फिल्म है. अपने मिजाज में यह फिल्म एक राजनीतिक-सामाजिक वक्तव्य है. यह दलित सौंदर्यशास्त्र को रचती है और उसे वर्चस्व की संस्कृति के मुकाबले खड़ा कर देती है. इसलिए यह एक अनूठी फिल्म है.
इसके दलित कैरेक्टर्स में आमोद-प्रमोद, हर्ष-आह्लाद, सब कुछ है. वे हाथ नहीं जोड़ते. उनमें विरोध के स्वर हैं. अपनी स्थिति को बदलने का माद्दा है. फिल्में में ढेरों प्रतीक हैं और दलित अस्मिता की लड़ाई भी है.
जिस दलित समुदाय को ‘आर्टिकल 15’ का नायक भेड़ बताता है, जो नारों के पीछे चल पड़ते हैं, उसकी पॉलिटिकल च्वाइस को ‘काला’ जैसी फिल्म स्पष्ट करती है. जिस सीन में काला बने रजनीकांत की एंट्री होती है, उसमें बैकग्राउंड में महात्मा बुद्ध और ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब आंबेडकर के पोस्टर लगे होते हैं.
काला के घर में बुद्ध की प्रतिमा नजर आती है. काला अपनी बैठक बुद्ध विहार में करता है. यह दलित समुदाय की राजनीतिक ताकत का एहसास करता है.
दरअसल जब फिल्म का सब्जेक्ट मैटर वंचित समुदाय हो तो ऐसी अपेक्षा स्वाभाविक है. दलित आज भारतीय जनतांत्रिक राजनीति का सबसे ऊर्जावान तबका है. अगर जनतंत्र का अर्थ ऐतिहासिक अन्याय और गैरबराबरी का मुकाबला है, तो उसे इस अर्थ की याद दिलाने वाला समाज भी दलितों का ही है. न्याय और समानता दलितों के लिए जीने-मरने का सवाल है, इसीलिए फिल्मों में भी उन्हें ठीक-ठाक रिप्रेंजेंटेशन चाहिए. वह सहानुभूति का पात्र है और लाचार, यह पॉपुलर फिल्में पहले ही स्थापित कर चुकी हैं.
अब ऐसी फिल्में चाहिए जिनमें दलितों का वह स्वरूप दिखाई दे, जो आज समाज में दिखाई दे रहा है. वे अपनी पहचान के लिए कितनी जद्दोजहद कर रहे हैं, यह फिल्म के किसी एंगल में दिखाई नहीं देता. इसीलिए दलित दर्शकों के लिए फिल्म कुछ खास पेश नहीं कर पाती. वह शहरी अपरकास्ट द्वारा, शहरी अपरकास्ट के लिए ही बनाई गई है.
इस मायने में ‘आर्टिकल 15’ एकआयामी फिल्म है. उसका अपरकास्ट नायक भले ही फिल्म में किसी दलित नेता से खुद को कमतर समझता हो, लेकिन दर्शक सिर्फ नायक के लिए तालियां पीटते हैं, चूंकि वह सेवियर बना रहता है.
कहानी सिर्फ उसी का एंगल पेश करती है- दलित उत्पीड़न उसकी कहानी कहने का माध्यम बना रहता है. दरअसल जब दलित कथा से बॉक्स ऑफिस लूटने का इरादा हो तो यह उम्मीद की ही जाएगी. फिल्म का नायक एक जगह कहता है, कभी न कभी ब्राह्मण को भी कीचड़ में उतरना होगा. फिर भी निर्देशक अनुभव सिन्हा को फिल्म के एक सीन में गटर में उतराने के लिए एक मैला ढोने वाले को ही ढूंढना पड़ता है. प्रतिनिधित्व का मामला यहीं आकर खत्म हो जाता है.
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