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जेटली भले ही मोदी कैबिनेट में नहीं होंगे लेकिन पारी अभी बाकी है

बीजेपी के नजरिए से जेटली का दूसरा कमजोर पक्ष है संघ परिवार से नजदीकी ना होना

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  • एक राजनेता, जो एक तेजतर्रार वकील की तरह पॉलिटिक्स करता है
  • एक सोशलाइट, जो ना सिर्फ दिल्ली बल्कि देश भर के रसूखदार लोगों में पैठ रखता है
  • एक रणनीतिकार, जो खुद चुनाव भले ना जीतता हो लेकिन चुनावी राजनीति पर गजब की पकड़ रखता है
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इन तमाम खासियतों को एक साथ मिलाने पर जो शानदार शख्सियत बनती है, उसका नाम है अरुण जेटली. पीएम मोदी की नई कैबिनेट में शामिल ना किए जाने की चिट्ठी लिखकर जेटली फिर सुर्खियों में हैं. तमाम लोग इस चिट्ठी को जेटली की ‘खराब’ सेहत से जोड़कर देख रहे हैं. लेकिन चिट्ठी के आखिरी दो पैरा पर गौर कीजिए. वो लिखते हैं:

मुझे मंत्रिमंडल में कोई जिम्मेदारी ना देकर सेहत पर ध्यान देने के लिए पूरा वक्त दिया जाए. हालांकि मेरे पास सरकार या पार्टी के लिए अनौपचारिक तौर पर कोई भी काम करने का बहुत वक्त होगा.

यानी वो रिटायरमेंट की बात कतई नहीं कर रहे. वो सिर्फ आराम और इलाज की बात कर रहे हैं. कुछ दिनों बाद वापसी हो सकती है- ये दरवाजा जेटली खुला छोड़ रहे हैं. लेकिन अरुण जेटली के कैबिनेट से बाहर रहने के सवाल पर आखिर इतना हल्ला है क्यों?

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‘अहम’ अरुण

देश के नामी-गिरामी वकीलों में शुमार जेटली को नरेंद्र मोदी को बीजेपी में ‘संकटमोचक’ की अघोषित पदवी हासिल है. अगर पिछली सरकार की बात करें तो, जीएसटी जैसे जटिल मसले पर विपक्ष से समर्थन लेना हो या फिर विपक्ष के किसी नेता से कोई बैकडोर गोलबंदी करनी हो, जेटली के पास हर मर्ज की दवा रहती थी.

जेटली के आलोचक उन्हें इस बात पर घेरते हैं कि पॉलिटिक्स में उनका कोई ‘मास-बेस’ नहीं है. 2014 की मोदी लहर में भी वो अमृतसर से चुनाव हार गए थे. मजाक में लोग कहते हैं कि 1974 में दिल्ली यूनिवर्सिटी का इलेक्शन जीतने के अलावा उन्होंने कोई चुनाव नहीं जीता. लेकिन इसके बावजूद 2002 के बाद गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, गोवा, महाराष्ट्र, दिल्ली और पश्चिम बंगाल तक के चुनाव उन्हीं की निगहबानी में हुए.

बीजेपी के नजरिए से जेटली का दूसरा कमजोर पक्ष है संघ परिवार से नजदीकी ना होना. मंत्रालय के गठन से लेकर चुनाव प्रभारियों की नियुक्ति तक, हर अहम फैसले के वक्त दिल्ली में बीजेपी के अशोक रोड हेडक्वार्टर पर ये फुसफुसाहट रहती थी कि नागपुर से फरमान जेटली जी के खिलाफ आएगा. लेकिन इसके बावजूद बीजेपी की हर नैया के खेवैया वही रहे.
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संसद का सारथी

26 मई, 2014 को जब नरेंद्र मोदी की पहली कैबिनेट ने शपथ ली तो जेटली को दो अहम मंत्रालय सौंपे गए- फाइनेंस और डिफेंस. गौर कीजिए कि वो चुनाव हारे हुए नेता थे. इसके बावजूद ‘रायसीना हिल्स’ के चार अहम मंत्रालयों में से दो उन्हें सौंप दिए गए.

अरुण जेटली यूपीए सरकार के वक्त राज्यसभा में विपक्ष के नेता और एनडीए सरकार के वक्त सदन के नेता रहे. किसी भी बिल पर बहस के दौरान संवैधानिक दांव-पेंच पर जेटली के तर्क विपक्ष का मुंह बंद कर देते थे. देश-दुनिया को तेल के बढ़ते दामों का ग्लोबल कॉन्टेक्सट समझाने, जटिल राफेल डील को आसान शब्दों में बताने, दो दशकों से लटके जीएसटी जैसे विधेयक पास करवाने जैसे कई काम हैं जिनके लिए शायद पार्टी ने कहा होगा- जेटली है तो मुमकिन है. तीन तलाक जैसे संवेदनशील बिल पर भी जेटली की कलाकारी सरकार का हथियार बनी.

सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे लोग कहते हैं कि मोदी सरकार में ‘प्रतिभा की कमी’ के चलते ही जेटली वित्त मंत्री रहे जबकि उनका आर्थिक पक्ष उतना मजबूत नहीं है. लेकिन संवैधानिक और कानूनी मसलों पर उनका कोई सानी नहीं, ये उनके आलोचक भी कहने में नहीं हिचकते.

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पीएम मोदी का ‘दोस्त’

पीएम नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली बेहद करीबी हैं.  1990 के दशक में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान नरेंद्र मोदी अक्सर जेटली के घर जाते थे. उन दिनों दोनों में गहरी दोस्ती थी. हाल ही में एक टीवी इंटरव्यू में खुद मोदी ने कहा था कि उन्हें दिल्ली के जायके के बारे में जेटली से ही पता चलता था.

मोदी के पीएम पद तक पहुंचने में जेटली का अहम योगदान है. 2002 के गुजरात दंगों के बाद पीएम मोदी (उस वक्त के सीएम, गुजरात) के तमाम कानूनी पचड़ों को (वकील) अरुण जेटली ने निपटाया. 2002 के गुजरात दंगों के बाद जेटली मोदी के पक्ष में अटल बिहारी वाजपेयी के भी खिलाफ खड़े हो गए थे.

साल 2013 में मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने को लेकर पार्टी के कई सीनियर नेताओं में मतभेद था. लेकिन जेटली और राजनाथ सिंह मजबूती से मोदी के साथ खड़े रहे.

मीडिया में पैठ

हाल के महीनों तक बीजेपी कवर करने वाले पत्रकारों में एक जुमला बड़ा मशहूर था- ‘जेटली जी की क्लास’. पार्टी दफ्तर से लेकर संसद और नॉर्थ ब्लॉक में वित्त मंत्री के ऑफिस तक, जेटली के कमरे में लगने वाला पत्रकारों का जमावड़ा कई सालों से पॉलिटिक्ल जर्नलिस्ट्स की सूत्र पत्रकारिता का केंद्र रहा है. मीडिया, ज्यूडिशयरी और कॉर्पोरेट की तिकड़ी में किसी एक नेता की उतनी पैठ नहीं होगी जितनी अरुण जेटली की. ये बात उन्हें नेता, प्रशासक और वकील के तौर पर बेहद मजबूत शख्सियत बना देती है. वो महंगे पेन, घड़ियों और कारों के भी शौकीन हैं.

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ब्लॉग मिनिस्टर

पिछले कुछ महीनों में अरुण जेटली के ब्लॉग इतने चर्चित हुए कि उन्हें ‘ब्लाग मिनिस्टर’ कहा जाने लगा. वकालत का तजुर्बा, भाषा की नफासत और अकाट्य तर्कों से बुने उनके ब्लॉग ‘मोदी विरोधियों’ के खिलाफ बारूद का काम करते हैं. मार्च, 2019 में उन्होंने ‘एजेंडा 2019’ के नाम से दस ब्लॉग्स की एक सीरीज लिखी जिसमें उन्होंने सिक्योरिटी, करप्शन, गठबंधन, वंशवाद, इकनॉमी, कृषि, जीएसटी जैसे तमाम मुद्दों पर मोदी सरकार के पक्ष में दलीलें पेश कीं.

पार्टी भी दलीलों के जरिये तर्क को अपने पक्ष में मोड़ने की ‘जेटली कला’ की मुरीद है. बरसों से बीजेपी के नए प्रवक्ता अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले अरुण जेटली के पास जाकर लाइन-लेंथ तय करते हैं.

पिछले डेढ़ साल से तबियत ने संसद और मंत्रालय में उनकी सक्रियता भले कम की हो लेकिन सोशल मीडिया पर वो लगातार बने हुए हैं और ताल ठोंककर पार्टी और सरकार की वकालत कर रहे हैं.

तो जो लोग जेटली की चिट्ठी को उनके राजनितिक करियर की इतिश्री मान रहे हैं वो जान लें जेटली की ‘केतली’ में ना चाय इतनी जल्द खत्म होने वाली है और ना ही उसका धुआं.

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