विपक्ष के लिए मौका
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अठारहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजों से एक मजबूत संसदीय विपक्ष सामने आया है जो सोलहवीं और सत्रहवीं लोकसभा में गायब था. चुनाव नतीजों ने सत्ता और विपक्ष दोनों को संसद की महान परंपराओं को पुनर्जीवित करने का अवसर दिया है. विपक्ष को अरुण जेटली की इस धारणा को भूल जाना चाहिए कि सदन में बाधा डालना वैध संसदीय कार्य है और यह ‘लोकतंत्र के हित’ में होता है. विपक्ष कांग्रेस के घोषणापत्र 2024 के न्यायपत्र से अपनी शुरुआत कर सकता है जिसमें दोनों सदनों के साल में सौ दिन बैठने, संसद की महान परंपराओं को पुनर्जीवित करने, सप्ताह का एक दिन विपक्ष के सुझाए एजेंडे पर चर्चा करने, पीठासीन अधिकारी को तटस्थ रहने जैसे वादे किए गये थे.
चिदंबरम लिखते हैं कि 240 सीटों वाली बीजेपी को अल्पमत सरकार चलाने का ठप्पा परेशान करेगा और वे इससे छुटकारा पाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. छोटे दलों को खतरे में बताते हुए लेखक का मानना है कि वे बीजेपी के जाल में फंस सकते हैं. कांग्रेस के घोषणापत्र में संविधान की दसवीं अनुसूची में संशोधन करने और दलबदल को विधानसभा या संसद की सदस्यता के लिए स्वत: अयोग्य घोषित करने का वादा है.
विपक्ष को दसवीं अनुसूची मे संशोधन विधेयक लाना चाहिए. अगर सत्ता पक्ष संशोधन विधेयक का विरोध करता है तो वह मतदाताओं की नजर में बदनाम हो जाएगा. लेखक का सुझाव है कि इंडिया गठबंधन को नौकरियों के मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिए. एकाधिकार और क्रोनी पूंजीवाद का विरोध, हर उद्यमी के लिए अवसर, नौकरियां पैदा करने वाली कंपनियों को प्राथमिकता जैसे मुद्दों पर जोर देना चाहिए. विपक्ष को ऐसे काम करने चाहिए जैसे वे सरकार हों. उन्हें अवसर का लाभ उठाना चाहिए और सरकार के लिए पटकथा तैयार करना चाहिए.
नीट घोटाले के बीच ज्ञान का केंद्र कैसे बनेगा भारत?
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि शिक्षा में घोटालों के इस मौसम के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा विश्वविद्यालय में शानदार भाषण दिया. घोटालों का जिक्र तो नहीं किया लेकिन उन्होंने अपनी सरकार की नई शिक्षा नीति की तारीफ की. मोदीजी ने कहा कि इस नीति का लक्ष्य है कि देश की युवा पीढ़ी के सारे सपने साकार हों. भारत को ज्ञान का केंद्र बनाने के अपने मिशन का भी उन्होंने खुलासा किया.
सवाल ये है कि भारत ज्ञान का केंद्र कैसे बनेगा जब शिक्षा का इतना बुरा हाल है. लाखों विद्यार्थियों का भविष्य बर्बाद हो सकता है सिर्फ इसलिए कि शिक्षा मंत्रालय ‘नीट’ परीक्षा ढंग से नहीं करा पाया है. शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने पहले तो कहा कि कोई समस्या है ही नहीं. फिर पत्रकारों को बुलाकर स्वीकार किया कि खासी गड़बड़ी है. जांच समिति बना दी गयी जो तहकीकात करेगी.
तवलीन सिंह सवाल उठाती हैं कि जांच समिति तो ठीक है लेकिन उन विद्यार्थियों के लिए आप क्या करेंगे जिनका भविष्य खराब हुआ आपकी राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) की नालायकी के कारण? पेपर लीक के कारण परीक्षार्थियों के डॉक्टर बनने के सपने चूर-चूर हो गए हैं. छात्र कह रहे हैं कि उनको एनटीए पर विश्वास ही नहीं रहा. पटना और गोधरा से प्रश्न पत्र की खरीद के मामले सामने आए हैं. लगता है प्रधानमंत्री को खबर नहीं मिली है, अन्यथा वे कभी न कहते कि भारत को ज्ञान का केंद्र बनाने का उनका ‘मिशन’ है. लक्ष्य बहुत अच्छा है प्रधानमंत्रीजी, लेकिन क्या करने वाले हैं आप इन घोटालों का? क्या एनटीए में सुधार संभव है जब खराबी जड़ों तक पहुंच चुकी है? क्या नीट परीक्षा में किसी का भरोसा अब रहेगा जब हर स्तर पर भ्रष्टाचार इतना दिखा है? खराबी इस हद तक है कि भारतीय विद्यार्थी यूक्रेन में डॉक्टर बनने के लिए जा रहे हैं जबकि युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है. नालंदा विश्वविद्यालय बेशक दोबारा जीवित हुआ है और यह बहुत अच्छी बात है लेकिन प्राचीन दौर से जितनी जल्दी प्रधानमंत्री वर्तमान में आते हैं उतना उनके लिए अच्छा होगा.
गांधी के देश में अरुंधति
करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि महात्मा गांधी भले ही हमारे राष्ट्रपिता हों लेकिन हम कितनी बार याद करते हैं कि उन्होंने कहा क्या? सरकारें कितनी बार उनकी इच्छाओं का पालन करती हैं? 18 मार्च 1922 को यंग इंडिया में गांधी ने लिखा था, “मैं सरकार के प्रति असंतुष्ट होना एक गुण मानता हूं.”
उन्होंने आगे लिखा था, “किसी को अपनी असहमति को पूरी तरह से व्यक्त करने की स्वंत्रता होनी चाहिए जब तक कि वह हिंसा के बारे में न सोचे, उसे बढ़ावा न दे या उसे भड़काए नहीं.” लेखक का मानना है कि ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें हमारी सरकार को पत्थर पर लिख देना चाहिए और हर मंत्री के कार्यालय में प्रमुखता से रखना चाहिए. कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने या न होने पर कथित तौर पर सवाल उठाने और तत्कालीन राज्य के अलग होने की वकालत करने के चौदह साल बाद दिल्ली के उपराज्यपाल ने अरुंधति रॉय पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी है.
यह तथ्य कि लगभग डेढ़ दशक तक- जिसमें मोदी सरकार के तहत 10 साल शामिल हैं- कोई निर्णय नहीं लिया गया या इसे आवश्यक नहीं माना गया, बहुत कुछ कहता है. यह सवाल भी उठाता है अब क्यों?
करन थापर लिखते हैं कि 1 मई 1962 को राज्यसभा में सीएन अन्नादुरई ने द्रविड़ आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करते हुए दक्षिण भारत के लिए अलग देश की इच्छा रखी थी. इसे राष्ट्रविरोधी नहीं माना गया. ब्रिटेन में सॉटिश राष्ट्रवादी, कनाडा में क्यूबेकॉइस या स्पेन में कैटलन अलगाव के लिए अभियान चला सकते हैं और उन्हें राष्ट्रविरोधी नहीं, बल्कि सम्मानजनक माना जाता है.
हम बुद्धिमान सहिष्णुता की स्थिति से पीछे हटकर आवेगपूर्ण और बिना सोचे-समझे असहिष्णुता की स्थिति में कैसे पहुंच गये हैं? क्या ऐसा इसलिए है कि अरुंधति रॉय सरकार की तीखी आलोचना करती रही हैं? हमें उन्हें अपना सोलजेनित्सिन नहीं बनाना चाहिए, न ही उनके साथ वैसा व्यवहार करना चाहिए जैसा कि पूर्व सोवियत संघ ने किया था. सलमान रुश्दी को हम भूल चुके हैं. हमारे सबसे प्रसिद्ध और सम्मानित बुकर पुरस्कार विजेता के साथ इस तरह का बेशर्म, अत्याचारी और गलत व्यवहार दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को बदनाम कर सकता है.
यूपी में बीजेपी के लिए चिंता का सबब एसपी
सुनीता एरॉन ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि 22 जनवरी को अयोध्या मे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद भारतीय जनता पार्टी 2024 का आम चुनाव ‘मंदिर लहर’ पर सवार होकर जीतने की तमन्ना रख रही थी. लेकिन, पीएम नरेंद्र मोदी के रोड शो, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के 2 मई को अयोध्या मंदिर में भगवान राम को नमन करने और गणमान्य लोगों के दौरे के बावजूद नतीजे बीजेपी के अनुकूल नहीं रहे. समाजवादी पार्टी ने “ना मथुरा, ना काशी, अबकी बार अवधेश पासी” के नारे पर फैजाबाद की सीट जीत ली. चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव ने अवधेश प्रसाद को सांसद घोषित कर दिया था. अवधेश नये नायक के रूप में उभरे हैं. जहां भी जाते हैं सुर्खियों में हैं.
सुनीता लिखती हैं कि लोकसभा की दूसरी पंक्ति में अवधेश प्रसाद को जरूर जगह मिलेगी. उनके पास कथित भ्रष्टाचार और अधिग्रहित भूमि, मकान और दुकानों के लिए देरी से मिलने वाले मुआवजे के कारण स्थानीय लोगों की पीड़ा से लेकर बहुत कुछ कहने को है. वे फैजाबाद में बाहरी लोगों का मुद्दा भी उठा रहे हैं क्योंकि स्थानीय लोगों ने शिकायत की है कि निर्माण और अन्य व्यावसायिक गतिविधियों में शामिल कई लोग दूसरे राज्यों से हैं. इससे स्थानीय लोगों में नाराजगी है. बीजेपी के लिए यह सुकून की बात है कि मेरठ में भगवान राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल हार से बच गये. उन्होंने 10,585 मतों के मामूली अंतर से जीत दर्ज की.
बीजेपी अखिलेश यादव पर परिवारवाद के आरोप लगातार लगा रही थी. इसका जवाब अखिलेश ने आक्रामकता से दिया, “उन्हें अपने परिवार को आगे बढ़ाने से कौन रोकता है?” एसपी 37 सीट लेकर देश की तीसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. जब एसपी ने 35 सीटें जीती थीं तब मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने का लक्ष्य रखा गया था. मुलायम सिंह के हवाले से लेखिका का कहना है कि बाबरी मस्जिद ढांचे को नष्ट करने गये कारसेवकों पर गोलियां चलाने की घटना के बाद दोस्तों ने भी उन्हें छोड़ दिया था. आखिरकार मुलायम ने समाजवादी पार्टी बनाई. 2024 के चुनावों ने उन आवाजों को खामोश कर दिया है जो मुलायम की ओर से अपनी विरासत अखिलेश को देने के संदर्भ में उठती रही थीं.
फासीवादीकरण पर अंकुश है जनादेश
आसिम अमला ने टेलीग्राफ में लिखा है कि नरेंद्र मोदी सरकार के पूर्ण बहुमत से वापस आने में विफल रहने पर राहत की व्यापक भावना देखी गयी. कई लोगों को बेतुकी लगती यह भावना फासीवाद के चंगुल से भारतीय लोकतंत्र की जीत पर खुशी का प्रतिनिधित्व करती है. जनता ने कट्टरता की राजनीति को खारिज कर दिया. 2014 में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को लेकर अधिनायकवाद के खतरे की चेतावनी दी गयी थी उन्हें भी खारिज किया जाता रहा. पिछले दशक ने हमें सिखाया कि आत्म-प्रशंसा वास्तविकता से बहुत कम मेल खाती है. जश्न मनाने वाली बयानबाजी आम तौर पर अभिजात वर्ग से आती है न कि आबादी के हाशिए पर पड़े तबके से, जिसने सरकार के खिलाफ भारी मतदान किया है. दलित, अल्पसंख्यक और गरीब लोकतांत्रिक बदलाव की सीमित प्रकृति या पुलिस जैसी राज्य संस्थाओं के आंतरिक रूप से दमनकारी चरित्र के बारे में भ्रम नहीं रखते.
आसिम अमला ने आनंद तेलतुम्बड़े को उद्धृत करते हुए लिखा है कि टिप्पणीकारों को “अपनी भावनाओं को लोगों पर थोपने” से बचना चाहिए. उन्होंने प्रधानमंत्री की उस क्षमता का भी उल्लेख किया है जिसमें वे “अपने फासीवादी व्यक्तित्व को प्रतिशोध के साथ” लौट सकते हैं. उन्होंने “बीजेपी के खिलाफ एकमत होकर वोट करने” और “मुसलमानों और दलितों” के उत्पीड़न को बढ़ाने की शासन की प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकर्षित किया.
भीमा कोरेगांव मामले में फंसाए जाने के बाद दो साल तक जेल में रहने वाले तेलतुम्बड़े ने “असहमति जताने वालों की और अधिक कैद और केंद्रीय एजेंसियों द्वारा राजनीतिक विरोधियों पर और अधिक छापे और गिरफ्तारी” की आशंका से इनकार नहीं किया. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल द्वारा हैदराबाद में नव-नियुक्त आईपीएस अधिकारियों को दिए गए भाषण का जिक्र करते हुए लेखक ने कई आशंकाएं रखी हैं. वे लिखते हैं कि डोभाल का भाषण लेखिका अरुंधति रॉय और कश्मीर स्थित शिक्षाविद शेख शौकत हुसैन पर 2010 में नई दिल्ली में एक सेमिनार में की गई टिप्पणियों के लिए गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत मुकदमा चलाने की हाल की मंजूरी पर प्रकाश डालता है.
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