यह सच है कि अगर हमने 27 जुलाई, 2015 को हुए गुरदासपुर हमले से सबक सीखा होता, तो आज हम पठानकोट हमले से बेहतर तरीके से निपट सकते थे. इस समय तो हम अपने पड़ोसी देशों में हुए इसी तरह के हमलों को देखते हुए राहत की सांस ही ले सकते हैं.
श्रीलंका के कटुनायके (2001) और अनुराधापुरा (2007) एयरफोर्स बेस पर हुए हमलों में 20 मिलिट्री एयरक्राफ्ट पूरी तरह नष्ट हुए थे, 24 को नुकसान पहुंचा था और 30 एयरफोर्स अधिकारियों की जान गई थी.
इसी तरह पाकिस्तान के मेहरान नेवल बेस पर 2011 में हुए तालिबानी हमले में न सिर्फ दो सर्विलांस एयरक्राफ्ट नष्ट हुए थे, बल्कि 18 नौसेना अधिकारियों की जान भी गई थी. पेशावर के नजदीक बाडाबेर एयरबेस पर सितंबर 2015 में हुए एक और तालिबानी हमले में भी 25 जवानों ने अपनी जान गंवा दी थी.
इन सब अनुभवों को ध्यान में रखते हुए हमें अपने सुरक्षा अधिकारियों की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने हमें एक बहुत बड़े नुकसान से बचा लिया.
इस बार सबसे बेहतर कदम था एनएसजी टीम को जल्द से जल्द पठानकोट भेजना. 1999 के कंधार विमान अपहरण और 26/11 मुंबई हमलों के दौरान एनएसजी को देरी से भेजने का खामियाजा हम पहले ही भुगत चुके थे.
1999 विमान अपहरण मामले में इस देरी का दोष केंद्रीय ‘क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप’ की विफलता को दिया गया था, जो 1984 के दंगों में भी सेना को तेजी से मौके पर पहुंचाने में विफल रहा था. इस बात में कोई शक नहीं है कि पठानकोट में एनएसजी के होने से और अधिक नुकसान होने से बच गया.
यह कहने के बावजूद इस हमले के कई पहलू ऐसे हैं, जो परेशान करते हैं. 5 जनवरी की एक खबर को सच माना जाए, तो पंजाब पुलिस को हमले से पांच दिन पहले ही खुफिया चेतावनी मिली थी कि नए साल की शाम को ऐसी किसी घटना की आशंका है.
हालांकि इस चेतावनी में किसी स्थान विशेष का जिक्र नहीं था, तब भी पंजाब पुलिस को सीमा की चौकियों पर सुरक्षा बढ़ा देनी चाहिए थी, क्योंकि 27 जुलाई 2015 को पहले भी सीमापार के आतंकवादी गुरदासपुर में हमला कर चुके थे.
जरूरी सबक
1999 के कंधार विमान अपहरण और मुंबई के 26/11 हमले के उलट इस बार एनएसजी को जल्दी ही मौके पर भेजा गया.
हालांकि पंजाब पुलिस को मिली खुफिया चेतावनी में किसी जगह का जिक्र नहीं था, पर पुलिस को सीमा की चौकियों पर सतर्कता बढ़ा देनी चाहिए थी.
सीमा पर घुुसपैठ के लिए बीएसएफ को जिम्मेदार ठहरा देने से पुलिस की जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती.
बीएसएफ को भी खराब पड़े थर्मल इमेजर्स पर पहले ही ध्यान देना चाहिए था.
पठानकोट हमले का एक जरूरी सबक यह भी है कि हमें अधिक रणनीतिक महत्व की जगहों पर प्रशिक्षित स्वाट (SWAT) टीम की जरूरत है.
बंद होना चाहिए आरोप-प्रत्यारोप का खेल
पंजाब की सीमा पर ड्रग तस्करी आम बात है, तो यह संभव है कि आतंकवादियों ने भी खुद को ड्रग तस्कर बताकर सीमा पार करने के लिए रिश्वत दी हो और कई बार आकर किसी खुफिया ठिकाने पर हथियार जमा किए हों.
इससे पहले सीमा पर सुरक्षा की दरारों को भरने की भी जरूरत नहीं महसूस की गई थी. अब जाकर बीएसएफ और पंजाब पुलिस के एक संयुक्त सर्वे के बाद 50-60 मीटर चौड़ी उझ और तरना नदी को भी सुरक्षित कर दिया गया है.
गुरदासपुर के एसपी की अविश्वसनीय कहानी
गुरदासपुर के एसपी की कहानी पर यकीन कर पाना लगभग नामुमकिन है. वह दावा करते हैं कि उनकी सरकारी गाड़ी को हथियाने से पहले उनके हाथ बांधकर मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया था. पाकिस्तान में प्रशिक्षित किसी भी आतंकवादी ने इतनी दयालुता मुंबई 26/11 हमले में या फिर पहले कभी नहीं दिखाई. मेरा पेशेवर अनुभव बताता है कि पुलिस की गाड़ी को ऑफिशियल ड्राइवर के अलावा कोई और नहीं चला सकता. इस कहानी में गाड़ी को एसपी के मित्र चला रहे थे.
वह रात को उस इलाके में आखिर क्या कर रहे थे, जबकि पंजाब पुलिस को राज्यभर के लिए आतंकवादी हमले की चेतावनी मिल चुकी थी. अगर वह ड्रग तस्करी जैसी अवैध घटनाओं पर निगाह रखने के लिए ‘अंडरकवर’ ड्यूटी पर थे, तो क्या उन्हें एक नीली बत्ती लगी बड़ी गाड़ी में बिना हथियार के वहां होना चाहिए था?
इन सब पहलुओं ने वरिष्ठ अधिकारियों को एसपी के बयान पर शक करने पर मजबूर कर दिया है.
नई रणनीति की जरूरत
मुंबई हमलों से सबक लेकर ही भारत सरकार ने नए एनएसजी हब बनाने की जरूरत महसूस की थी. उस समय राज्यों से भी कहा गया था कि वे अपनी स्वाट टीमें तैयार करें. पर अब तक की सुरक्षा तैयारियां भी काफी नजर नहीं आतीं, क्योंकि पठानकोट में भी भारत की ओर से असली कार्रवाई एनएसजी के आ जाने के बाद ही शुरू हुई.
मुंबई हमलों के दौरान भी जब पुलिस को लगा था कि वे आतंकवादियों से नहीं निपट सकेंगे, तभी उन्होंने आर्मी और नेवी की स्वाट टीमों से मदद मांगी थी.
उस समय आर्मी के पास कोई स्वाट टीम नजदीकी इलाके में नहीं थी. उन्होंने बताया था कि उनके पास जो ट्रूप मौजूद हैं, उन्हें बस घेराबंदी और गश्त के लिए ही भेजा जाता है. यह तो पुलिस पहले ही कर रही थी.
नौसेना से काफी देर बाद मदद मिली, पर वह भी आतंकवादियों से पार नहीं पा सकी. अंत में एनएसजी के आने के बाद ही स्थिति को संभाला जा सका था.
पठानकोट के अनुभव से हमारे नागरिक और सेना सुरक्षा नियंताओं को यह सबक ले लेना चाहिए कि हमें अधिक रणनीतिक महत्व की जगहों पर प्रशिक्षित स्वाट टीमें तैनात करने की आवश्यकता है, ताकि खतरे के दौरान वहां एनएसजी के आने का इंतजार न करना पड़े.
(लेखक कैबिनेट सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव हैं.)
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