अमेरिका ने अपना नया राष्ट्रपति चुन लिया है. डेमोक्रेट जो बाइडेन. पिछली बार की तरह जीत का दावा कर रहे ट्रंप को अमेरिका की जनता ने तगड़ा झटका दिया है. लेकिन चुनाव के दौरान अमेरिका एक ऐसे देश के तौर पर सामने आया है जिसने अपनी अमिट साझा सांस्कृतिक पहचान में विश्वास खो दिया है और सबसे अहम अपनी स्पष्ट नियति. ऐसी ताकतें जिन्हें रोका नहीं जा सकता, अटल चीजों से भिड़ गई हैं. चुनाव खत्म हो गए हैं. लेकिन ये ताकतें एक दूसरे के खिलाफ बनी रहेंगी. इसलिए लड़ाई खत्म हो सकती है, लेकिन युद्ध केवल तेज होगा.
पहला एहसास ये रहा कि अमेरिकी ताकत की एक सीमा है. COVID-19 ने इस देश को तबाह कर दिया. सरकार अपनी पूरी कोशिश के बाद भी इसे रोक पाने में असफल रही. हर तरह से आजाद अमेरिका को क्वारंटीन की बेड़ियों में जकड़ना काफी मुश्किल रहा.
न्यूयॉर्क सिटी में राष्ट्रपति चुनाव के पहले शनिवार को जब मैं सुबह 9 बजे एक स्टारबक्स स्टोर पहुंचा तो मैं अकेला ग्राहक था. ये डरावना था क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि मैं एक भूतिया शहर में हूं. ये अभी खत्म नहीं हुआ है. अमेरिकियों को जवाबदेही के सिद्धांत में ट्रेनिंग दी जाती है और राष्ट्रपति ट्रंप के लिए COVID से हार उन पर भारी पड़ी है.
दूसरा खतरनाक रहस्योद्घाटन एक उभरती शक्ति और घटती शक्ति के बीच आंतरिक शक्ति संघर्ष का रहा है. मेफ्लावर जहाज के अमेरिका पहुंचने के बाद से अमेरिका में श्वेत पुरुषों का राज रहा है. इस दल के लोगों की अब उम्र हो गई है और उनकी संख्या भी घट रही है. अश्वेत, भूरे और दूसरे रंग के लोगों की संख्या भौगोलिक रूप से बढ़ रही है. अमेरिकी सांसद जिम क्लाइबर्न ने बाइडेन को अश्वेतों का समर्थन दिला दिया जो कहीं नहीं जा रहा था जिसका फायदा उन्हें चुनाव में हुआ है. क्लाइबर्न आज अमेरिका में आधिकारिक तौर पर किंगमेकर हैं.
अश्वेत समुदाय जो पहले राष्ट्रपति क्लिंटन का समर्थक था, उन्होंने डेमोक्रेट्स के लिए अपनी भूमिका दोहराई थी. लेकिन इसके बाद एक पीड़ित समुदाय के गुस्से के कारण ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन शुरू हुआ और ये प्रदर्शन अचानक COVID महामारी के बाद वोटों के ध्रुवीकरण का दूसरा सबसे बड़ा कारण बन गया. इसलिए सीनेटेर कमला हैरिस डेमोक्रेट्स की ओर से उपराष्ट्रपति के पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार मानी गईं. मुस्लिम और वामपंथी समुदाय भी ट्रंप विरोधी प्रदर्शन में शामिल हो गए.
चाहे प्रदर्शनकारी हों या अराजकतावादी, दोनों तरफ की परेड में लोडेड गन लेकर लोग चल रहे थे. खुद को असुरक्षित महससू करने वाले पहली बार गन खरीदने वाले इतने लोग हो गए कि हथियारों के व्यापारी उनकी गन की डिमांड पूरी नहीं कर पा रहे थे जिसके कारण गन की कीमत रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गई. लेकिन श्वेत मुसलमान ट्रंप के साथ आ गए. धर्म निजी मामला है लेकिन त्वचा का रंग सार्वजनिक मामला है और यहां वो आपकी पहचान है.
प्योर्टो रिका के अलेक्जेन्ड्रिया ओकासिया कोर्टेज अपने अमेरिकी इमिग्रेशन और कस्टम्स एनफोर्समेंट को खत्म करने और नौकरी के वादे, मुफ्त इलाज और दो ट्रिलियन डॉलर के नए ग्रीन डील के बड़े घोषणापत्र के साथ सोशल मीडिया पर सबकी चहेती बन गईं. वो इल्हान ओमर सहित तीन और महिला सांसदों के एक दल स्क्वाड की प्रमुख हैं जो फंड की कमी वाले पुलिस मूवमेंट का समर्थन करती हैं. लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से इमिग्रेशन को लेकर भड़काऊ बयानबाजी के बावजूद रूढ़िवादी लैटिन समुदाय में ट्रंप का आधार पिछले चुनाव के मुकाबले बढ़ गया.
इस विरोधाभासी विभाजन को सबसे अच्छे तरीके से यहूदी समुदाय के उदाहरण से समझा जा सकता है जो पारंपरिक तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन करते रहे हैं. इजरायली, हसीदिक यहूदी और रूढ़िवादी समुदाय को राष्ट्रपति ओबामा के खिलाफ कई शिकायतें थी और उन्हें लगता है कि ट्रंप ने अमेरिकी दूतावास को यरूशलम में लाने और मध्य पूर्व के कुछ देशों के साथ शांति समझौते के वादों को पूरा किया है. डेमोक्रेटिक राज्य के नेताओं के उनकी सभाओं में रोक लगाने से भी वो चिढ़े हुए थे.
लेकिन सिलिकॉन वैली और हाई टेक कंपनियों ने राष्ट्रपति ट्रंप से छुटकारा पाने की हर संभव कोशिश की. भले ही डेमोक्रेट्स ने कहा है कि वो बड़ी टेक कंपनियों का विभाजन करना चाहते हैं. बे एरिया की 9 काउंटीज ने बाइडेन के अभियान के लिए करीब 200 बिलियन डालर का दान दिया और ट्रंप को सिर्फ 22 मिलियन डॉलर का. डेमोक्रेटिक शासन वाले कैलिफोर्निया जैसे ही पूर्व में न्यूयॉर्क स्टेट के प्रेसिडेंशियल उम्मीदवार अरबपति मेयर ब्लूमबर्ग ने ट्रंप की हार सुनिश्चित करने के लिए जितने पैसे की जरूरत हो, खर्च करने का एलान किया.
फॉसिल फ्यूल इंडस्ट्री इसका विरोध कर रही थी जिसके पास सिलिकॉन वैली की कंपनियों जितने पैसे तो नहीं हैं लेकिन वहां से चार गुना ज्यादा कर्मचारी हैं.
पुरानी अर्थव्यवस्था और नई अर्थव्यवस्था का सीधा टकराव इससे अधिक नहीं हो सकता है. द्वि-तटीय नई अर्थव्यवस्था पूरी तरह से वैश्विकता की समर्थक है. वो चीन के साथ शांति चाहते हैं. इसके विपरीत चीन ने मिड स्टेट्स को बर्बाद कर दिया है. वैश्विकता को बढ़ावा देने वाले अरबपति बेशक दोनों पक्षों पर दांव लगाते हैं. चुनाव के बाद की उनकी बचने की आपात योजना तैयार होती है. गोल्डन पासपोर्ट स्कीम के तहत दूसरे देशों के पासपोर्ट खरीदे जा चुके हैं. जब पूरे अमेरिका में खुदरा विक्रेता अपनी संपत्तियों को बचाने में जुट गए हैं तो ये समझ में आता है. न्यूयॉर्क सिटी की गलियों में आप कीलों पर हथौड़े की आवाज हर जगह सुन सकते हैं.
लेकिन सबसे बड़ा बिखराव इंडो-अमेरिकन समुदाय के बीच हुआ है. शुरुआत में 93 फीसदी इंडो-अमेरिकन डेमोक्रेट्स के पक्ष में दिख रहे थे लेकिन बाद के सर्वे में ये 28 फीसदी रिपब्लिकन्स के पक्ष में आ गया था और इसके 40 फीसदी तक बढ़ने की संभावना थी.
पहली पीढ़ी के भारतीय प्रवासी की सोच, अगली पीढ़ी के अमेरिका में जन्मे भारतीय अमेरिकी से अलग है. आम तौर पर एक समान राय रखने वाले इस समुदाय के लिए ये बिखराव निजी और दर्द भरा है.
वीएस नायपॉल की किताब ए मिलियन म्यूटिनीज अब सबसे अच्छे तरीके से अमेरिकी की स्थिति को बयान करती है. पीपल लाइक अस के कंफर्ट जोन काफी घट गए हैं. डर और अविश्वास बढ़ गया है. हजारों वकील अब कोर्ट पहुंचेंगे और एक बंटे हुए घर की लड़ाई लड़ेंगे. कंजर्वेटिव जज उनका इंतजार करेंगे. अपनी रहस्यपूर्ण मुस्कान के साथा जज बैरेट भी उनमें से एक होंगी. जजों को पता है कि उनकी दुनिया में भी बदलाव का वक्त आता है. महामारी पर प्रदर्शन, देशभक्ति सत्ता राजनीति की सुनामी का असर उनपर भी होगा.
(राकेश के कौल 'द लास्ट क्वीन ऑफ कश्मीर: कोट रानी' और 'डॉन: द वॉरियर प्रिसेंज ऑफ कश्मीर' के लेखक हैं. यह एक ओपिनियन लेख है. इसमें दिए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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