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बिहार चुनाव पर ओपिनियन पोल बाकी राज्यों के मुकाबले मुश्किल क्यों?

बिहार ओपिनियन पोल को सिर्फ सर्वेक्षण की तरह देखें क्योंकि कोई भी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण अंतिम नतीजे नहीं बता सकता

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चुनाव पूर्व के सर्वेक्षण बहुत चुनौतीपूर्ण होते हैं, भले ही किसी भी राज्य में किए जाएं. लेकिन दूसरे राज्यों के मुकाबले बिहार में सर्वेक्षण करना और भी कठिनाइयों से भरा है.

बिहार में राजनैतिक दलों की भीड़ है, गठबंधन के जोड़ीदार बदलते रहते हैं और बहुकोणीय मुकाबले हैं. इसीलिए यहां चुनाव पूर्व सर्वेक्षण करना टेढ़ी खीर है. तिस, पर इतनी सारी जातियां और जाति आधारित वोटिंग होने की वजह से यह और भी जटिल हो जाता है.

ऐसे सर्वेक्षणों की एक चुनौती यह भी होती है कि लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना है. लोग किसी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण से क्या उम्मीदें करते हैं.

कोविड-19 के दौर में सर्वेक्षण करना वैसे भी मुश्किल है. फील्ड इनवेस्टिगेटर और रिस्पांडेंट यानी जवाब देने वाले, दोनों के लिए यह अनिवार्य है कि वे सावधानियां बरतें, दूरी बनाए रखें, मास्क पहनें. इस तरह इस पूरी कवायद में उत्साह कमजोर पड़ता है. दूर दराज की यात्रा करना बहुत मुश्किल हो गया है, इसलिए सर्वेक्षण करने वालों को फील्ड वर्क के लिए स्थानीय इनवेस्टिगेटर्स की मदद लेनी पड़ती है.

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बिहार के हमारे हालिया सर्वेक्षण बताते हैं कि:

  • एनडीए को 38% वोट मिलेंगे
  • आरजेडी+ को 32% वोट मिलेंगे
  • आरएलएसपी+ को 7% वोट मिलेंगे
  • एलजेपी को 6% वोट मिलेंगे, और
  • दूसरी छोटी पार्टियों और स्वतंत्र को 17% वोट मिलेंगे

वोट शेयर के आधार पर हमने सीटों का आकलन भी किया है

  • एनडीए को 133-143 सीटें मिलेंगी
  • आरजेडी+ को 88-98 सीटें मिलेंगी
  • एलजेपी को 2-6 सीटें मिलेंगी और
  • अन्य को 6-10 सीटें मिलेंगी.

यहां याद रखने वाली बात यह है कि वोट शेयर के अनुमान वोटर्स के वोटिंग प्रिफरेंस के आधार पर लगाए गए हैं और यह सर्वेक्षण 10-17 अक्टूबर के दौरान किया गया था. 10 नवंबर को जब वोटों की गिनती होगी, तब अंतिम नतीजा क्या होगा, इस सर्वेक्षण से इस बात का आकलन नहीं किया जा सकता.

वोटिंग में अब भी समय है. बिहार के लोग 28 अक्टूबर, 3 नवंबर और 7 नवंबर को अपने वोट देंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार में एनडीए के लिए कैंपेन कर रहे हैं और उनके कैंपेन का असर लोगों के वोटों पर पड़ेगा, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान दूसरे राज्यों में देखा गया है.

बिहार में वोटर्स के मूड का अंदाजा लगाना एक चुनौती

अगर राजनीतिक दलों की बड़ी संख्या हो, तो वोटों के आकलन के दौरान एक अलग ही चुनौती का सामना करना पड़ता है. बिहार में दो तरह की विशेषताएं हैं- यहां आबादी विविध प्रकार की है और वोटर अलग-अलग जातियों के हैं जिसके कारण उनकी पसंद भी अलग-अलग है. वास्तव में बिहार में कुछ पार्टियों को तो जातिगत पार्टियां ही माना जाता है.

वहां क्षेत्रीय पार्टियों की संख्या बहुत अधिक है और उनका सपोर्ट बेस कुछ ही जिलों और क्षेत्रों तक सीमित है. इससे वोट शेयर का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है.

किसी पार्टी की सीटों का अनुमान उसके वोटों के अनुमान के आधार पर किया जाता है. अगर वोट के अनुमान गलत होते हैं तो पार्टियों और गठबंधनों के लिए सीटों के अनुमान के गलत होने की भी आशंका होती है.

सीटों के अनुमान की गणना करने के लिए विशेष तौर से तैयार किए गए प्रोग्राम स्विंग मॉडल का इस्तेमाल किया जाता है. यह किसी राजनैतिक दल या गठबंधन के पक्ष में वोटों के स्विंग के आधार पर सीटों का अनुमान लगाता है. इसमें पिछले चुनाव के दौरान पार्टी या गठबंधन को प्राप्त वोटों को आधार बनाया जाता है, और वर्तमान सर्वेक्षण के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि उसे कितने प्रतिशत का स्विंग मिल रहा है. गठबंधन या पार्टी के पक्ष में पॉजिटिव स्विंग का मतलब है, कि उसे ज्यादा सीटें मिलने वाली हैं और नेगेटिव स्विंग से अनुमान लगाया जाता है कि उसे कम सीटें मिल सकती हैं.

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तेजी से बदलते गठबंधन और चुनाव विश्लेषकों की उलझन

बहुदलीय चुनावों में वोट शेयर का आकलन करना मुश्किल होता है. उससे भी मुश्किल होता है, किसी गठबंधन के बेस वोट पर काम करना. चूंकि कई बार दो चुनावों में गठबंधन बदल जाते हैं. बिहार चुनाव 2020 में ऐसा ही हो रहा है.

2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान जेडीयू और आरजेडी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और भाजपा ने एलजेपी के साथ. 2020 में जेडीयू ने भाजपा के साथ गठबंधन किया है और एलजेपी अलग चुनाव लड़ रही है. भाजपा ने विकासशील इनसान पार्टी (वीआईपी) के साथ उप-गठबंधन किया है और जेडीयू ने हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के साथ.

2015 में इन पार्टियों के वोट शेयर के आधार पर मौजूदा गठबंधन का आकलन करना बहुत जटिल है, क्योंकि तब कई पार्टियों ने एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था.

इसके अलावा अगर पार्टी में दो फाड़ हो गया हो तो और बड़ी परेशानी होती है. पिछले चुनावों में वोट शेयर के हिसाब से एक ही पार्टी के दो हिस्सों के लिए वोटों का अनुमान करना दिक्कत पैदा करता है. किस धड़े को कितना अनुपात दिया जाए? दो या उससे अधिक पार्टियों का विलय हो जाए तो भी यही दिक्कत होती है. हो सकता है कि वही वोटर अब नई पार्टियों को वोट न देना चाहें.

अंतिम नतीजे के लिए कैंपेन बहुत महत्वपूर्ण

कैंपेन यानी चुनाव प्रचार का अपना असर होता है. राजनैतिक दल और उम्मीदवार सार्वजनिक रैलियों, रोड-शो वगैरह से वोटर जुटाने की कोशिश करते हैं. कुछ उम्मीदवार और पार्टियां सफलतापूर्वक वोटर जुटा लेती हैं, कुछ उतना नहीं. कई बार वोटर राजनैतिक प्रचार से अपने फैसले बदल लेते हैं, आखिरी दिन तक और कई बार वोट देने के ऐन पहले भी.

चुनाव पूर्व के सर्वेक्षणों में रैलियों और दूसरी तरह के प्रचार की गणना नहीं की जा सकती. अगर इन्हें ध्यान में रखा जाए और वास्तविक सर्वेक्षण के अनुमानों में जोड़ा जाए तो इससे जनमत संग्रह की पूरी प्रक्रिया के साथ अन्याय होगा.

इन चुनौतियों को स्टैटिस्टिकल टूल्स के जरिए दूर किया जा सकता है, लेकिन लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरने के लिए कोई टूल है ही नहीं. लोग चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से सिर्फ इसी पूर्वानुमान की अपेक्षा करते हैं: चुनाव कौन जीतेगा, किस पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी वगैरह. ज्यादातर लोगों को वोटों के अनुमान से कोई मतलब नहीं होता जोकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का मुख्य अंग होता है.

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लोग यह उम्मीद क्यों करते हैं कि सर्वेक्षण सिर्फ अंतिम नतीजों के बारे में बताएंगे

चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में चुनाव से पहले लोगों की पसंद-नापसंद को जाना जाता है. लेकिन इनसे यही उम्मीद की जाती है कि वे अंतिम नतीजों को सही सही बताएंगे. ऐसी उम्मीद करते समय हम भूल जाते हैं कि हफ्तों पहले किए गए सर्वेक्षणों के बाद लोगों की राय बदल सकती है. चुनाव पूर्व के सर्वेक्षणों को अंतिम मान लिया जाता है, जबकि यह सही नहीं है. चुनाव पूर्व सर्वेक्षण सिर्फ लोगों की राजनैतिक वरीयता का संकेत देते हैं, वह भी डेटा इकट्ठा करते समय की वरीयता को.

अगर डेटा इकट्ठा करने समय जो कुछ जैसा था, वैसा ही बना रहे, तभी यह संभव है कि किसी सर्वेक्षण के अनुमान सही साबित हों, या उसके एकदम करीब पहुंचें. इससे मतलब यह होगा कि कैंपेन का असर बहुत कम हुआ.

लेकिन इसमें उन लोगों की गलती नहीं जो इन ओपिनियन पोल्स को देखते हैं. दरअसल एजेंसियां या सर्वेक्षणों को लोगों तक पहुंचाने वाला मीडिया इसे इसी तरह पेश करता है, मानो यही अंतिम सत्य और अंतिम नतीजा है. लोग इन सर्वेक्षणों से हद से ज्यादा उम्मीद इसलिए करते हैं क्योंकि इनकी पैकेजिंग ही इस तरह की जाती है.

इसलिए किसी चुनाव पूर्व नतीजों से यह उम्मीद करना कि वह वोटिंग के दिन के नतीजों का सटीक अनुमान लगाएंगे, उचित नहीं है.

(संजय कुमार सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस) में प्रोफेसर हैं. वह एक मशहूर चुनाव विश्लेषक और पॉलिटिकल कमेंटेटर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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