पिछले सप्ताह एक सैन्य कार्यक्रम हुआ था, जिसे बहुत अधिक मीडिया कवरेज नहीं मिला, उसमें असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कांस्य की एक मूर्ति का अनावरण किया था. यह मूर्ति 17वीं सदी के अहोम जनरल लचित बोरपुखान की थी जिन्होंने 1627 में हुए सरायघाट के युद्ध में मुगलों को शिकस्त दी थी. इस दौरान सोनोवाल ने जनरल की बहादुरी और देशभक्ति की खूब प्रशंसा की और वहां मौजूद लोगों में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता बढ़ाने की कोशिश की. इस पूरे वाकये को बताने का मकसद मोदी सरकार की उस नीति की तरफ ध्यान आकर्षित करना है जिसे बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है और उसे मीडिया का एक धड़ा काफी प्रचारित भी कर रहा है.
लचित बोरपुखान की मूर्ति का अनावरण
असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकार है. हालांकि बहुत सारे लोग मणिपुर और अरुणाचल में बीजेपी की जीत के तरीके पर सवालिया निशान उठा रहे हैं. बीजेपी का दावा है कि वो पूरे उत्तर पूर्व पर कब्जा करेगी.
लचित बोरपुखान का मूर्ति अनावरण कार्यक्रम दिनजन स्थित सेकेंड माउंटेन डिविजन मुख्यालय में आयोजित किया गया जो कि सक्रिय रूप से चीन के साथ लगी पूर्वी सीमा की रक्षा के लिए जिम्मेदार है. यहां ऐसा पहली बार हुआ है कि सैन्य कौशल के जाने-माने प्रांतीय जनरल को इस तरह याद किया गया.
हालांकि गुजरे जमाने के भी किसी सैन्य अधिकारी का अधिष्ठापन अगर किया जाता है तो उसके लिए सैन्य मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय की रजामंदी जरूरी होती है. अगर मान भी लिया जाए कि सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली गई थीं तो भी केवल इस कार्यक्रम को आधार मानकर यह नहीं कहा जा सकता कि सेना का राजीनतिकरण किया जा रहा है.
इसमें कुछ गलत भी नहीं दिख रहा. लेकिन सेना के विशेषज्ञों की मानें तो उन्होंने ऐसा कुछ पहले कभी नहीं देखा. अगर सेना के किसी प्रांतीय हीरो की मूर्ति लगती भी है तो वो राज्य के हॉल आॅफ फेम, किसी सड़क या फिर ऐसे ही किसी महत्वपूर्ण स्थल पर लगा दी जाती है.
सेना का राजनीतिकरण?
जब बीजेपी के राम माधव जैसे नेता जम्मू कश्मीर की सुरक्षा पर कहते हैं कि यहां ठीक वैसे ही सब कुछ जायज है जैसे प्यार में होता है तो हमें सजग हो जाने की जरूरत है.
ऐसे में जो लोग सेना से प्यार करते हैं उन लोगों को अधिक सतर्क रहने की जरूरत है. उन्हें इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि ऐसे समय में सेना के तीन मूल तत्व अराजनैतिक, धर्मनिरपेक्ष और पेशेवर पर कोई आंच न आए.
सेना को कंधे पर बैठाना बहुत ही अच्छी बात है लेकिन राष्ट्रवाद और देशभक्ति की आड़ में उसे आलोचना के दायरे से बाहर कर देना उसके लिए ही खतरनाक साबित हो सकता है. सेना को पूरी छूट देना उसके परिचालन में मददगार साबित होता है लेकिन किसी भी युद्ध को अंजाम देने का हक नियम और युद्ध के मानवीय कानूनों के भीतर रहकर ही दिया जाना चाहिए.
सेना की कार्यवाही की सीमा इस बात से तय होती है कि जम्मू कश्मीर में आंतरिक सुरक्षा बनाए रखना सेना की प्राथमिकता नहीं है. वहां उसका पहला और सबसे महत्वपूर्ण काम नागरिक अधिकारों को बनाए रखना है. सेना ने हमेशा से इस बात पर गर्व किया है कि उसने हमेशा मानवाधिकारों को सबसे ऊपर रखा और कम से कम ताकत का इस्तेमाल किया. लेकिन किसी नागरिक को मानव ढाल बनाने जैसे सख्पत रवैये पर इसके पूर्व अधिकारियों की राय बंटी हुई है. क्या ये नया प्रयोग है? या फिर असंवेदनशीलता? सेना को इस तरह से सख्त रूप से पेश करने के अपने नुकसान भी हैं. जिस तरह से मीडिया इन मुद्दों को उछाल रहा है उससे टीवी पर आने वाले 'हीरो' पाकिस्तान को मिटाने और लाल चौक पर हुर्रियत नेताओं के कटे हुए सिर टांगने की मांग तक कर रहे हैं.
सर्जिकल स्ट्राइक: नया राजनीतिक मुहावरा
सेना का राजनीतिकरण पिछले साल पीओके पर हुए सर्जिकल स्ट्राइक से शुरू हुआ. हालांकि पाकिस्तान ने इसे नकार दिया, जो कि एक नजरिये से सही था क्योंकि उससे किसी तरह के संघर्ष की आशंका कम हो गई. इस साधारण से आॅपरेशन के सफल होने के कुछ दिन बाद सरकार ने इसका जमकर प्रचार किया और इसकी वाहवाही लूटने में जुट गई. इससे पहले यूपीए सरकार में भी सर्जिकल स्ट्राइक हुआ करते थे लेकिन उसे इस तरह से उजागर करने के बजाए छिपाकर रखा जाता था.
इसके बाद पांच राज्यों में चुनाव हुआ जहां सर्जिकल स्ट्राइक को एक नए चुनावी मुहावरे की तरह प्रचार में खूब इस्तेमाल हुआ. मैंने खुद देखा कि सर्जिकल स्ट्राइक के जो सार्वजनिक चेहरे थे उनका किस तरह से गलत इस्तेमाल किया गया.
लखनऊ में सैन्य आॅपरेशंस के मिलेट्री जनरल, लेफ्टिनेंट जनरल रणबीर सिंह की तस्वीर पोस्टरों पर नरेंद्र मोदी, अमित शाह और मनोहर पर्रिकर के साथ लगी हुई थी.
एलओसी पर हुए सर्जिकल स्ट्राइक को पहला झटका तभी लग गया था जब इसकी चर्चाएं जनसभाओं में नेताओं ने करनी शुरू कर दीं. एक रैली में पर्रिकर ने यहां तक कह दिया कि ये उनकी आरएसएस की ट्रेनिंग ही थी जिसकी वजह से वो सेना में हनुमान जैसी शक्ति का संचार कर सके. इसी बात को पर्रिकर और उनके साथियों ने हर जगह लगातार दोहराया. इस तरह से सेना को बीजेपी और हिंदू धर्म से जोड़कर उसका राजनीतिकरण शुरू किया गया. इसके बाद लखनऊ में हुए एक भव्य समारोह में मोदी को इन सबका श्रेय दिया गया. इन्हीं वजहों ने सेना के अराजनैतिक और धर्मनिर्पेक्ष छवि को धूमिल किया.
जब एक रंगरूट को सैनिक की वर्दी पहनाई जाती है तो वहां पादरी, पंडित, मौलवी और ग्रंथी सभी मौजूद होते हैं. कई सैन्य युनिटों में सभी धर्मों के सैनिक एक साथ अपने भगवान की उपासना करते हैं.
सिद्धांतों पर कायम रहे सेना
भारतीय सेना के चमत्कारिक ढंग से 1960 के दौर में खुद को राजनीतिक होने से बचा लिया था. लेकिन जब पाकिस्तानी सेना ब्रिटिश भारतीय सेना से अलग हुई तो उसने सेना के मूल तत्वों को नहीं अपनाया जिनमें चुनी गई सरकार द्वारा नागरिक नियंत्रण जैसी आधारभूत बातें शामिल थीं. इसी वजह से आज कई लोग पाकिस्तान का यह कहकर मजाकर उड़ाते हैं कि दुनिया में देशों की सेना होती है लेकिन पाकिस्तानी सेना के पास एक देश है.
भारतीय सेना को किसी भी हाल में नैतिक दबाव में आकर अपने मूल सिद्धांतों से नहीं भटकना चाहिए भले ही उसे राजनीतिक तौर पर कितना भी प्रोत्साहित क्यों न किया जाए. सरकार को अपने मंत्रियों को भी सियाचिन भेजकर सैनिकों को राखी बांधने की कवायद पर विराम लगाने की जरूरत है. सामने के दिखावे की जगह आपको सेना के असल सुधारों पर ध्यान देने की जरूरत है. लेकिन उसके लिए पहले आपको एक फुल टाइम रक्षा मंत्री की जरूरत है.
(मेजर जनरल (रिटायर्ड) अशोक के मेहता डिफेंस प्लानिंग स्टाफ के संस्थापक सदस्य है. उपर्युक्त विचार लेखक के निजी हैं और क्विंट हिंदी का इससे कोई सरोकार नहीं है.)
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