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यूपी चुनाव में BJP बिना चेहरे के ही उतरने की रणनीति बना चुकी है?

उत्तर प्रदेश चुनाव में राजनाथ सिंह अच्छा चेहरा हो सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी असहमति पहले ही जता दी है.

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सर्जिकल स्ट्राइक ने यूपी की राजनीति में बीजेपी के लिए अवसर का वह द्वार खोला है, जिसे पाने के लिए बीजेपी कई महीनों से लगातार जूझ रही थी. यूपी में बीजेपी का सबसे बड़ा संकट एजेंडे का नहीं, बल्कि चेहरे का है.

यूपी में बीजेपी के पास चेहरे तो बहुत हैं, लेकिन वो इतने बड़े नहीं कि मायावती और मुलायम के कद के सामने खड़े हो सकें. कल्याण सिंह लोध जाति का प्रतिनिधित्व करने वाले अंतिम बड़े नेता थे.

बीजेपी यह जानती है कि आइडेन्टिटी पॉलिटिक्स के जमाने में चेहरा रहित चुनाव लड़ने के नुकसान क्या हैं? दिल्ली में अंतिम समय में चेहरा देने का मलाल और बिहार में बिना चेहरे के चुनाव लड़ने का अनुभव बीजेपी अब तक भूली नहीं है.

लेकिन यह भी सच है कि कमजोर चेहरे के साथ राजनीति के परिपक्व और मंझे खिलाड़ियों के सामने उतरना आधी लड़ाई हार जाने के बराबर है. तो फिर सवाल है बीजेपी के पास विकल्प क्या है?

बीजेपी के विकल्प

उत्तर प्रदेश चुनाव में राजनाथ सिंह अच्छा चेहरा हो सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी असहमति पहले ही जता दी है.
बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ के साथ केंद्रीय मंत्री उमा भारती (फोटोः IANS)

बीजेपी के पास सर्वश्रेष्ठ विकल्प तो गृहमंत्री राजनाथ सिंह को मैदान में उतारने का है .राजनाथ सिंह के पास कद भी है और पद भी .लेकिन दिक्कत ये है कि राजनाथ सिंह देश के गृहमंत्री के पद को छोड़कर फिर कालिदास मार्ग जाना नहीं चाहते.

जून में इलाहाबाद बीजेपी कार्यसमिति से पहले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राजनाथ सिंह का मन टटोला था, जिस पर राजनाथ सिंह ने अपनी अनिच्छा जताई थी. अनुभव, स्वीकार्यता, साफ-सुथरी छवि और सबको साथ लेकर चलने का कौशल निश्चित ही उन्हें गेमचेंजर बना सकता था.

राजनाथ के बाद कहने को तो बीजेपी के पास योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य, वरुण गांधी और महेश शर्मा जैसे विकल्प भी हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व और वजूद मायावती, मुलायम के सामने हल्का है. योगी उग्र हिन्दुत्व के चेहरे हैं. पर पूर्वांचल को छोड़कर उनकी स्वीकार्यता बाकी जाति समूहों में नहीं है.

साथ ही योगी के आने से बीजेपी को तब फायदा होता, जब ध्रुवीकरण का कोई बड़ा एजेंडा बीजेपी को साथ दे रहा होता. योगी के उतारने से उल्टा बीजेपी पर विकास के एजेंडे से पीछे हटने और मुस्लिमों के एकतरफा ध्रुवीकरण का खतरा अलग से बढ़ जाएगा.

वरुण गांधी युवाओं में लोकप्रिय हैं, पर अनुभव की कमी और बीजेपी अध्यक्ष के भरोसेमंद न होना उन्‍हें दौड़ में पीछे करता है. केशव मौर्य कुशवाहा जाति के नेता हैं, पर अपनी जाति के वटवृक्ष नहीं. महेश शर्मा एक अच्छे विकल्प हो सकते हैं, पर चुनाव परिणाम के बाद.

ब्रांड मोदी ही होंगे चेहरा?

उत्तर प्रदेश चुनाव में राजनाथ सिंह अच्छा चेहरा हो सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी असहमति पहले ही जता दी है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अखिलेश यादव (फोटो:IANS) 

ऐसे में सर्जिकल स्ट्राइक ने बीजेपी को एक खिड़की दी है, जहां वह ब्रांड मोदी के साथ बिना मुख्यमंत्री का चेहरा दिए चुनाव में उतरने का जोखिम उठा सकती है. लोकसभा चुनाव के तकरीबन साथ हुए हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बिना चेहरा प्रोजेक्ट किए ब्रांड मोदी के चेहरे के साथ जीत दर्ज की थी. लेकिन तब मोदी लहर उफान पर थी.

सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पिछले एक हफ्ते की यूपी में बीजेपी की गतिविधियों पर नजर डालें, तो उससे साफ होता है कि बीजेपी प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे के साथ चुनाव में उतरने का मन बना रही है. राज्यभर में एक ही डिजाइन के प्रधानमंत्री के फोटो के साथ सर्जिकल स्ट्राइक को दर्शाते फोटो का एक साथ लगना इस रणनीति की पहली कड़ी थी.

फिर सैनिक सम्मान समारोह और रक्षा मंत्री का सम्मान समारोह शुरू होना उस दिशा में दूसरा कदम था. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का यह बयान कि हम सर्जिकल स्ट्राइक को जनता के बीच लेकर जाएंगे, उस रणनीति की स्वीकारोक्ति है, जहां ब्रांड मोदी की सेंसेक्स वैल्यू को बीजेपी कैश कराना चाहती है.

सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पहली बार जब प्रधानमंत्री विजयदशमी के दिन लखनऊ में आंतक के रावण का संहार कर रहे होंगे, बीजेपी की रणनीति उस संदेश के प्रभाव को आंकने के साथ-साथ उसे जनता तक ले जाने की होगी.

ये राह नहीं आसां

उत्तर प्रदेश चुनाव में राजनाथ सिंह अच्छा चेहरा हो सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी असहमति पहले ही जता दी है.
उत्तर प्रदेश में BJP के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य (फोटो: पीटीआई)

ऐसा नहीं कि बीजेपी प्रधानमंत्री के चेहरे के साथ विधानसभा चुनाव लड़ने के खतरे नहीं जानती. प्रधानमंत्री का एक्सपोजर बढ़ाने से चुनाव मोदी बनाम मायावती और मुलायम होने की संभावना बढ़ जाती है, जो बीजेपी के रणनीतिकार कतई नहीं चाहते. हालांकि इसके फायदे व नुकसान दोनों हैं.

यह तलवार की धार पर चलने जैसा है. चुनाव हारने की सूरत में विपक्षी राजनैतिक दल उसे मोदी सरकार के कामकाज पर उसे जनमत संग्रह बताने से नहीं चूकेंगे, जिससे बीजेपी बचना चाहेगी. लेकिन सच ये है कि राजनाथ के मना करने के बाद बीजेपी के पास ज्यादा विकल्प बचे नहीं हैं.

रणनीति में बदलाव

उत्तर प्रदेश चुनाव में राजनाथ सिंह अच्छा चेहरा हो सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी असहमति पहले ही जता दी है.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और साथ में हैं पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय (फोटो: PTI)

बदली परिस्थिति में बीजेपी रणनीतिकारों का आकलन है कि चूंकि मोदी ब्रांड मजबूत हुआ है, इसलिए कैंपेन को इस तरह डिजाइन किया जाएगा, जिसके केन्द्र में मोदी का ब्रांड और निर्णायक सरकार का एजेंडा होगा. लेकिन संदेशवाहक राज्य के बीजेपी नेता होंगे. बिहार की गलती न दोहराते हुए पोस्टरों में प्रधानमंत्री के साथ राज्य के प्रमुख नेताओं की फोटो जरूर होगी.

चार अंचलों में बंटे यूपी से परिवर्तन यात्रा की बागडोर अलग-अलग नेताओं के हाथ में होगी, जिसके समापन रैली को लखनऊ में प्रधानमंत्री संबोधित करेंगे. बदली रणनीति से बीजेपी को कई फायदे होंगे. पहला, कई टुकड़ों में बंटी बीजेपी के अंतर्कलह की गुंजाइश कम हो जाएगी. दूसरा, चुनाव बाद जीतने की हालत में सभी संभावित सीएम दावेदारों के लिए विकल्प खुला रहेगा और स्‍वस्‍थ प्रतिद्वंद्व‍िता से पार्टी को फायदा होगा.

यूपी बिहार नहीं है

यूपी बिहार नहीं है और बीजेपी जानती है कि अखिलेश, नीतीश नहीं है. नीतीश की एंटी इनकमबेंसी तो छोड़िए, प्रो इनकमबेंसी थी, जो स्थिति अखिलेश के साथ नहीं है. मुलायम, अखिलेश का एमवाई (यादव, मुस्लिम ) गठजोड़ उतना मजबूत नहीं है, जितना लालू का था.

साथ ही अखिलेश के शासन की गुडविल उतनी बड़ी नहीं है, जितनी नीतीश की थी. साथ ही यूपी में 'बिहारी बनाम बाहरी' का मुद्दा भी चल नहीं सकता, क्योंकि प्रधानमंत्री इसी राज्य से सांसद है. कुल मिलाकर यूपी में बीजेपी बिना चेहरे प्रोजेक्ट किए मोदी ब्रांड के साथ चुनाव में उतरने का जोखिम उठा सकती है.

भारत में चुनाव लड़ने की दशा-दिशा बदलने वाले अपने 'चाणक्य' प्रमोद महाजन के सूत्र बीजेपी भूली नहीं होगी कि हर चुनाव एक नया चुनाव होता है. पिछले चुनाव से बिल्कुल अलग. वहां की परिस्थितियां अलग होती है, मुद्दे अलग होते हैं, रणनीति अलग होती है.

(इस आलेख में प्रकाशित विचार लेखक के अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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