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कैंसर बन गया है भारत का कालाधन

अगर मोदी को सफल होना है तो उन्हें सरकारी कर्मचारियों के बीच मौजूद भ्रष्टाचार से भी निपटना होगा

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1000 रुपये के नोट बंद करने का जो फैसला लिया था उसे तीन हफ्ते बीत चुके हैं. तब से लेकर अबतक इस मुद्दे पर बहस चल रही है. ये बहस का माहौल ठीक वैसा ही है जैसा 1969 में था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था.

मोदी के फैसले पर अभी भी लोगों की राय बंटी हुई है, और जैसा कि लग रहा है आने वाले 50 सालों में भी इस पर कोई फैसला नहीं लिया जा सकेगा. लेकिन मुश्किल ये है कि अधिकतर लोग इस मुद्दे पर वैचारिक या राजनीतिक तर्क दे रहे हैं.

हालांकि ये बहुत ही स्वाभाविक भी है क्योंकि नोटबंदी के परिणामों की जांच करने के लिए कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है. चारों तरफ इस मुद्दे को लेकर जो भी चर्चा चल रही है वो उसी कहानी की तरह हो गई है, जिसमें 'हिन्दूस्तान' का एक अंधा व्यक्ति आंखों पर पट्टी बांधकर हाथी के नजदीक चला तो जाता है लेकिन ये नहीं बता पाता कि वो कौन सा जानवर है.

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कालेधन के प्रकार:

मोदी और उनके समर्थकों का कहना है कि इस कदम से सारा कालाधन खत्म हो जाएगा. वहीं दूसरा पक्ष पूरे विश्वास के साथ कहता है कि ये सही नहीं है. दोनों ही सही हैं और गलत भी. मोदी और उनके समर्थक इसलिए सही हैं क्योंकि उन्होंने एक तरह से कालेधन का पूरा स्टॉक खत्म कर दिया है. और उनके आलोचक इसलिए सही हैं क्योंकि इस कदम से नए कालेधन का मुद्दा सुलझ जाएगा ऐसा भी नहीं है.

ये दोनों ही मुश्किलें एक दूसरे से बहुत अलग हैं और ये जरूरी है कि इनके साथ अलग-अलग तरीके से निपटा जाए. ऐसे में ये समझना जरूरी है कि जो भी हमसे बेहतर लोकतंत्र हैं वहां केवल दो तरह का कालाधन होता है. पहला वो धन जो ईमानदार लोग छिपाकर रखते हैं और दूसरा वो जो अपराधी छिपाकर रखते हैं.

लेकिन भारत में एक तीसरा प्रकार भी होता है. एक ऐसी कमाई जो इस देश के सरकारी कर्मचारी कमा रहे हैं. जो लोग नोटबंदी की आलोचना कर रहे हैं वो इन तीनों तरह के कालेधन की बात एक समय में एक साथ और एक दूसरे के स्थान पर करते हैं. जब ईमानदार लोग अपनी कमाई का कुछ हिस्सा छिपाते हैं तो इससे किसी को नुकसान नहीं पहुंचता. जब अपराधी ऐसा करते हैं तो केवल पीड़ित को इससे नुकसान पहुंचता है. लेकिन भारत का जो तीसरा प्रकार है, जब वो ऐसा करता है तब देश समेत हर कोई इससे प्रभावित होता है.

ये लोग एक कैंसर की तरह होते हैं. इनसे कोई भी नहीं बचता, एक मरा हुआ व्यक्ति भी नहीं क्योंकि वो लोग उसे जलाने के लिए शमशान में सूखी लकड़ियों के लिए भी रिश्वत मांगते हैं. मुमकिन है कि ऐसे ही लोगों की वजह से लोग इस नोटबंदी के फैसले का समर्थन कर रहे हैं. वो देख सकते हैं कि ये कैंसर कितना खतरनाक है.

अलग-अलग रंग:

अब समय आ गया है कि मोदी इस तीसरे प्रकार पर हमला करें, उन सरकारी नौकरी करने वालों पर निशाना साधें जो कालाधन कमा रहे हैं. इससे उन्हें राजनीतिक लाभ भी मिलेगा. ये उनके लिए आसान नहीं होगा और उन्हें अपनी पूरी ताकत इसमें लगानी होगी. क्योंकि सरकारी नौकरी करने वालों का ट्रेड यूनियन सबसे बड़ा और बहुत शक्तिशाली है. अगर वो हड़ताल पर चले गए तो सबकुछ ठप्प पड़ जाएगा. इतना ही नहीं विपक्ष भी केंद्र के खिलाफ खड़ा हो जाएगा और कहेगा कि देश का लोकतंत्र खतरे में है.

लेकिन एक बहुत बड़ा सच ये भी है कि कालेधन से सबसे ज्यादा लाभ नेताओं को मिलता है. और कालेधन की समस्या असल में उन्हीं की वजह से है. भारत में मुश्किल ये है कि यहां सारी ताकत एक ईमानदार व्यक्ति के खिलाफ लगा दी जाती है. एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी ईमानदार कमाई का कुछ हिस्सा इसलिए भी छिपाने को मजबूर हो जाता है क्योंकि हर तरफ इतने तरह के और इतने ज्यादा टैक्स हैं कि उसके पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं होता है.

हैरतअंगेज करने वाली बात ये है कि जब अपराधियों की बात आती है तो सरकार ढिलाई बरतने लगती है. कई तो ऐसे होते हैं जिन्हें 'सुरक्षा' मिलती है. कुछ तो सांसद तक होते हैं. कुछ व्यवसायी तो ऐसे होते हैं कि जब उनका अकाउंट पकड़ लिया जाता है तो वो देश से ही फरार हो जाते हैं. कई बार तो राजनेता ही उनकी भागने में मदद करते हैं.

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चिकित्सक खुद को दुरुस्त करे

भारत की जो सबसे बड़ी विषमता है वो ये कि हमारी केंद्र सरकार अपने कर्मचारियों के साथ बहुत ढिलाई से पेश आती है. वो अपने कर्मचारियों को इस बात की इजाजत देते हैं कि वो देश के नागरिकों का उत्पीड़न कर सकें.

उन्होंने सरकारी नौकरी को कुछ ऐसा बना दिया है कि जहां लोगों की उत्पादन क्षमता तो शून्य है लेकिन उसमें घुसना हर कोई चाहता है. देश के नागरिक इन सरकारी कर्मचारियों का वेतन और पेंशन का खर्च उनके 60 साल के होने तक उठाते हैं और कई बार उससे ज्यादा सालों तक भी. इसके बदले में उन्हें मिलता क्या है, उत्पीड़न और उगाही.

अगर मोदी को सफल होना है तो उन्हें इस मुश्किल से तत्काल प्रभाव से निपटना होगा. वो हमेशा सरकार में भ्रष्टाचार की बात करते हैं. लेकिन अभी तक उन्होंने सरकारी कर्मचारियों के बीच मौजूद भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कुछ भी नहीं किया. ऐसे में लगता है कि वो सरकारी कर्मचारियों से डरते हैं.

इसका परिणाम ये होता है कि सरकार खुद ही कालेधन की उगाही के लिए रास्ते खोल रही है. अगर वो नोटबंदी के इस पक्ष पर कोई ठोस कदम नहीं उठाते हैं तो ये फैसला उनके लिए बहुत महंगा साबित हो सकता है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)

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