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CAA-NRC विरोध और मुसलमान: क्यों इसे अपनी पहचान से जोड़ना गलत है

मुस्लिम सांप्रदायिकता को आगे बढ़ा कर हिन्दूवादी सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं कर सकते. 

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  • सीएए-एनआरसी के विरोध प्रदर्शनों में अक्सर मुसलमान अगली कतार में होते हैं. आखिरकार भारत उनकी भूमि है और भारतीय नागरिकों जैसे उनके अधिकार हैं, जिन पर हमारी विभाजनकारी सरकार की ओर से निशाना साधा जा रहा है.
  • दुर्भाग्य से विरोध प्रदर्शनों के दौरान कुछ मुसलमानों ने अपनी आस्था पर जोर देते हुए जिस अंदाज में अपनी पहचान का बढ़-चढ़कर दिखावा किया है, वह बेशक उनकी स्वाभाविक हताशा और जायज गुस्से को प्रकट करता है.
  • इस पर सचेत करते हुए मैंने ट्वीट संदेश दिया था जिसके बाद ज़हरीली प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गयीं. ऐसे ट्वीट्स, सोशल मीडिया पोस्ट और प्रिन्ट मीडिया में आर्टिकल्स के तूफान खड़े हो गये, जिसमें मुझे इस बात के लिए घेरा गया कि आस्था के नाम पर मुसलमानों के विरोध करने के अधिकार को नकारा जा रहा है.
  • आप मुस्लिम सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाकर हिन्दूवादी सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं कर सकते. पहचान की राजनीति भारत को बर्बाद कर देगी.
  • भारत की आत्मा के लिए यह लड़ाई है. जिस भारत के लिए महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई लड़ी, उसमें हर भारतीय की हिस्सेदारी है.
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शाहीनबाग में रात भर जाकर महिलाएं कर रही हैं प्रदर्शन

भेदभावपूर्ण नागरिकता संशोधन कानून (और इसके बाद आने वाले प्रस्तावित ऑल इंडिया नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स) के खिलाफ स्वत: स्फूर्त और सतत विरोध प्रदर्शनों ने देश में हर लोकतंत्र समर्थक को प्रेरित किया है. छात्र, दफ्तर जाने वाले, कलाकार और आम भारतीय इसमें शामिल होने को आतुर दिखे.

विश्वविद्यालय की एक गोल्ड मेडलिस्ट छात्रा ने विरोधस्वरूप राज्यपाल से अपना मेडल लेने से इनकार कर दिया, दोपहर की नमाज के लिए मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के लिए लोगों ने मानव श्रृंखला बनायी, इन प्रदर्शनों के पक्ष में लगातार छात्रों ने पुलिस और मीडिया का सामना किया, दिल्ली में शाहीन बाग की साधारण महिलाएं ठिठुरती ठंड में भी रात भर जाग-जाग कर प्रदर्शन कर रही हैं. और, सबसे बड़ी बात कि सरकार की ओर से धमकाने के तमाम प्रयासों के बावजूद आम भारतीय इसे दिन ब दिन जारी रखने के लिए मजबूती से खड़ा है. इन सबकी खुली प्रशंसा हुई है, इन्हें सराहा गया है और बेशक इन्हें डराने-धमकाने और बदनाम करने की कोशिशें भी हुई हैं.

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क्या केवल मुसलमान प्रदर्शन कर रहे हैं?

ऐसे प्रयासों के बीच इन विरोध प्रदर्शनों को केवल मुसलमानों का बताकर उसकी अहमियत कम करने की फूहड़ कोशिश बीजेपी की ओर से हुई. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “आप उनके कपड़ों से बता सकते हैं कि प्रदर्शन कौन कर रहा है.” “इन प्रदर्शनों में दाढ़ी, मुस्लिम टोपी (स्कल कैप्स) और बुर्कों को देखिए”. सत्ताधारी दल के एक समर्थक ने कहा, “इससे और अधिक हिन्दू वोट हमारी ओर आएंगे.”

वास्तव में मुसलमान इन प्रदर्शनों में अक्सर आगे की कतार में रहे हैं. आखिरकार भारत उनकी भूमि है और भारतीय नागरिकों की तरह उनके अधिकार हैं, जिन पर हमारी विभाजनकारी सरकार निशाना साध रही है. लेकिन किसी मायने में वे अकेले नहीं हैं. बड़ी तादाद में गैर मुस्लिम भारतीय उनके साथ खड़े हैं, क्योंकि वे सीएए/एनआरसी को उस भारत पर हमला मानते हैं, जिसे संविधान में समावेशी भारत माना गया है और जिसके साथ वे गहरे जुड़े रहे हैं.

दुर्भाग्य से विरोध प्रदर्शनों के दौरान कुछ मुसलमानों ने अपनी आस्था पर जोर देते हुए जिस अंदाज में अपनी पहचान का बढ़-चढ़कर दिखावा किया है. वह बेशक उनकी स्वाभाविक हताशा और जायज गुस्से को प्रकट करता है.

4 नवंबर 1948 को संविधान सभा में व्यक्त की गयी डॉ बीआर अंबेडकर की बुद्धिमत्तापूर्ण चेतावनी को इन भारतवासियों ने महसूस किया था, “भारत में अल्पसंख्यक अपना अस्तित्व बहुसंख्यकों के हाथों सौंपने को सहमत हो गये हैं. उन्होंने वफादारी के साथ बहुसंख्यकों के शासन को स्वीकार कर लिया है, जो वास्तव में सांप्रदायिक बहुसंख्यक है न कि राजनीतिक बहुसंख्यक. यह बहुसंख्यकों पर है कि वह इस कर्त्तव्य को महसूस करें कि अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भेदभाव ना हो.”

इन लोगों ने बीजेपी और उनके समर्थकों के उन प्रयासों का लगातार विरोध किया, जिसमें सीएए/एनआरसी के विरोध को सिर्फ मुसलमानों के लिए, मुसलमानों का और मुसलमानों के द्वारा बताने की कोशिशें की गयीं. यह महज संयोग नहीं है कि अलग-अलग धर्मों के प्रदर्शनकारियों ने प्रदर्शन के दौरान धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी कविताओं का पाठ किया और लगातार पूरी भावना के साथ राष्ट्रीय गान गाए.

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अतिवाद और धार्मिक कट्टरता को देखने का मेरा नजरिया

जब मैंने तिरुअनन्तपुरम में राजभवन के बाहर मुस्लिम को-ऑर्डिनेशन काउंसिल के बाहर एक रैली का उद्घाटन किया, तो मैं जानबूझकर वहां एक मंदिर में पुजारी के हाथों अपने माथे पर चंदन का पेस्ट लगाकर पहुंचा. संदेश यह था कि आप अकेले नहीं हैं, हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले भी आपके साथ हैं.

दुर्भाग्य से विरोध प्रदर्शनों के दौरान कुछ मुसलमानों ने अपनी आस्था पर जोर देते हुए जिस अंदाज में अपनी पहचान का बढ़-चढ़कर दिखावा किया है. वह बेशक उनकी स्वाभाविक हताशा और जायज गुस्से को प्रकट करता है. बीजेपी ने खुशी के साथ इसे स्वीकार कर लिया. जिस ह्वाट्सएप ग्रुप में वे नियमित तौर पर संदेश भेजा करते हैं, उनमें ऐसे प्रदर्शनकारियों को धमकी देते हुए संदेश भरे पड़े हैं. ऐसे लोगों के लिए हाल में तोहफे के तौर पर कलीमा पढ़ते हुए प्रदर्शनकारियों का एक वीडियो संदेश आया, जो इस्लाम मानने वाले लोगों की प्रार्थनाओं में एक है : ला इलाह इल्ललाह, मुहम्मदुर रसुलुल्लाह. इससे आगे इसमे जुड़ा था, “तेरा मेरा रिश्ता क्या? ला इलाह इल्लल्लाह.”

इससे चिंतित होकर मैंने उन लोगों को आगाह करने के लिए संदेश दिया, जो उनके संदेश को गलत तरीके से व्यक्त कर रहे थे. मैंने लिखा, “हिन्दुत्व अतिवाद के विरुद्ध हमारी लड़ाई का फायदा इस्लामिक अतिवादियों को नहीं होना चाहिए. सीएए/एनआरसी के विरुद्ध प्रदर्शनों में अपनी आवाज उठा रहे हम लोग समावेशी भारत की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. हम अपनी विविधता और विभिन्न्ता की जगह किसी भी किस्म की धार्मिक कट्टरता को पनपने नहीं देंगे.”

जैसे ही गुस्साए मुसलमानों की प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हुई, मैंने आगे कहा, “ कुछ गलत नहीं कहा. केवल यह साफ कर रहा हूं कि हममें से ज्यादातर के लिए यह लड़ाई भारत के लिए है इस्लाम या हिन्दुत्व के लिए नहीं. यह लड़ाई हमारे संवैधानिक मूल्यों और स्थापित सिद्धांतों की है. बहुलतावाद को बचाने की है. भारत की आत्मा बचाने की है. किसी धर्म की दूसरे धर्म से लड़ाई नहीं है.”

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एक गैरजरूरी विवाद

बात यहां खत्म हो जानी चाहिए थी, मगर इसके बाद जहरीली प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया. ऐसे ट्वीट्स, सोशल मीडिया पोस्ट और प्रिन्ट मीडिया में आर्टिकल्स के तूफान खड़े हो गये, जिसमें मुझे इस बात के लिए घेरा गया कि आस्था के नाम पर मुसलमानों के विरोध करने के अधिकार को नकारा जा रहा है. कुछ ने मुझ पर बहुसंख्यकवादी कट्टरता को बढ़ावा देने का आरोप लगाया. एक ऐसा आरोप जिसके खिलाफ मैंने पूरा जीवन जीया है और लिखता रहा हूं. कई लोगों ने मेरे आस्तीन पर हिन्दूवादी प्रतीक देखे और मुसलमानों को कमतर आंकने का आरोप लगाया.

आप मुस्लिम सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाकर हिन्दुत्व सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं कर सकते. पहचान की सियासत भारत को बर्बाद कर देगी.

जब मिस्र के कलाकार रैमी युसूफ ने गोल्डेन ग्लोब पुरस्कार ‘अल्लाहू अकबर’ के उच्चारण के साथ हासिल किया, तो कई लोगों ने इसलिए मजाक उड़ाया कि मैंने उसका समर्थन नहीं किया.

 मुस्लिम सांप्रदायिकता को आगे बढ़ा कर हिन्दूवादी सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं कर सकते. 
मिस्र के कलाकार रैमी युसूफ
(Photo : Hulu)

मेरे रुख से असहमत होने के दूसरों के अधिकार का मैं आदर करता हूं, लेकिन गलत तरीके से मुझे व्यक्त किया जाए, इसकी अनुमति नहीं देता. मेरा अब भी मानना है कि प्रदर्शनकारियों को अपने विरोध प्रदर्शनों में सांप्रदायिक रंग नहीं देना चाहिए. हमारा संघर्ष इस्लाम के लिए नहीं है, बल्कि उन मुसलमानों का समर्थन करने के लिए है, जो भारत में अपनी पहचान के लिए लड़ रहे हैं. सवाल यह है कि ऐसा करने का सबसे प्रभावी तरीका क्या हो और किस तरह के आचरण को नजरअंदाज किया जाए.

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पहचान की राजनीति भारत को बर्बाद कर देगी

बेशक इस्लाम धर्म में कलीमा के स्थान को मैं समझता हूं. “ला इल्लाह इलल्लाह” अपने आप में अद्वितीय है. मगर, यहां महत्वपूर्ण है संदर्भ. ‘तेरा मेरा रिश्ता ला इलाह इल्ललाह’ से यह समुदाय उन बाकी लोगों से अलग-थलग हो जाएगा, जिसका भारत से रिश्ता है. सीएए-एनआरसी को लेकर हो रहे प्रदर्शनों में कितने गैर मुस्लिम इस बात को समझते हैं कि ‘तेरा मेरा रिश्ता’ का संदर्भ अल्लाह के साथ व्यक्तिगत संबंध को लेकर है?

खुद अल्लाह को भी इस प्रदर्शन में नहीं आना चाहिए जो संवैधानिक मूल्यों के लिए है, कानून की भावना और भारत के बहुलतावादी आधार की रक्षा के लिए है. खासकर तब जब बीजेपी के समर्थक बहुत उत्साह के साथ ऐसे वीडियो को सोशल मीडिया में फैला रहे हैं और हिन्दुओं को भरमा रहे हैं : “देखो किसलिए यह लड़ाई हो रही है, तुम किस तरह हो?”

किसी धार्मिक कट्टरता और पहचान की राजनीति में मेरा विश्वास नहीं, मैं बहुलतावादी और विविधता वाले भारत में विश्वास करता हूं.

सभी भारतीयों के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम समुदाय के लिए क्या कुछ दांव पर है. लेकिन यह इसलिए है, क्योंकि सीएए/एनआरसी के द्वारा मूलभूत भारतीय सोच पर दोहरा हमला किया गया है. इस हमले का उचित जवाब यह है कि सबको आह्वान कर एकजुट प्रतिरोध का आधार मजबूत किया जाए. आप हिन्दूवादी सांप्रदायिकता का मुकाबला मुस्लिम सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाकर नहीं कर सकते. पहचान की राजनीति भारत को बर्बाद कर देगी.

हर चुनाव से पहले मतदाताओं के ध्रुवीकरण को प्राथमिकता देने वाली बीजेपी मौका देख रही है कि इस आंदोलन को हिन्दू बनाम मुसलमान के सांप्रदायिक रंग में रंग दें. मैं मुस्लिम प्रदर्शनकारियों से कहता हूं : यह मौका उनको मत दीजिए. केवल ‘मुस्लिम’ होकर विरोध करते हुए आप दूसरे पक्ष के लिए माहौल बनाते हैं कि वे सांप्रदायिक आधार पर लोगों को बांटें. आप कहें कि एक भारतीय के रूप में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. और हर सही सोच वाला भारतीय आपके साथ सहानुभूति रखेगा.

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CAA/NRC विरोधी प्रदर्शन केवल मुसलमानों का मामला नहीं

जैसा कि रैमी युसूफ के मामले में, मैं चकित था कि लोगों को लगा कि मैं इसका समर्थन नहीं करूंगा. अपनी संस्कृति या आस्था पर कोई गर्व करता है, तो किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? मैंने सराहा था. जब इरफान पठान ने 2004 में पाकिस्तान पर भारत की जीत के बाद अल्लाह का शुक्रिया अदा किया था या फिर ऑस्कर मिलने पर रेसुल पूकुट्टी ने ‘ओम’ का उद्घोष किया था. हमेशा मैंने विरोध किया है और अब भी यह विरोध रहेगा अगर सीएए/एनआरसी के विरोध को मुस्लिम मामलों तक सीमित कर दिया जाता है. अन्याय के प्रति भारत का विरोध सभी समुदायों को गले लगाता है. मुसलमानों के साथ भेदभाव के विरोध में मुझे मुसलमान नहीं बनना है. भारत का संविधान मुसलमानों की भी उतनी ही रक्षा करता है, जितना दूसरों की और इस तरह ऐसे गणतंत्र का निर्माण होता है, जहां सभी आस्थाओं के लोग सुरक्षित हैं. कुछ मुसलमान इसे केवल मुसलमानों के लिए बताकर गलत करते हैं. इसमें हम सब साथ हैं.

मैं धार्मिक कट्टरता और पहचान की राजनीति में नहीं, बहुलतावाद और विविधता वाले भारत में विश्वास करता हूं. मेरा विश्वास ऐसे भारत में है, जो अपने आप में सुरक्षित हो और दुनिया में अपना स्थान बनाने का विश्वास रखता हो. एक ऐसा भारत जो सहिष्णुता, स्वतंत्रता और दबे-कुचले व वंचित तबके की उम्मीदों का गौरवपूर्ण उदाहरण हो. यह वह ‘न्यू इंडिया’ नहीं है जिसे बीजेपी बनाना चाहती है.

जैसा कि मैंने संसद में कहा था कि भारत की आत्मा के लिए यह लड़ाई है. जिस भारत के लिए महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई लड़ी, उसमें हर भारतीय की हिस्सेदारी है. हम उनके आदर्शों के साथ धोखा न होने दें.

(संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अंडर-सेक्रेट्री-जनरल शशि थरूर कांग्रेस सांसद और लेखक हैं. उन्हें @ShashiTharoor पर ट्वीट किया जा सकता है. आर्टिकल में दिये गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे कोई सरोकार नहीं है.)

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