प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डावोस भाषण पर चीन के विदेश मंत्रालय की अच्छी प्रतिक्रिया का मकसद बिल्कुल साफ है. डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद जनवरी 2017 में डावोस में जब वैश्वीकरण के समर्थकों का जोश ठंडा पड़ा हुआ था, तब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने उसका बचाव किया था. उन्होंने तब संरक्षणवाद की तुलना ‘अंधेरे कमरे में खुद को बंद करने’ से की थी.
मोदी ने भी इस साल डावोस में संरक्षणवाद पर हमला बोला, जिसे चीन की मीडिया ने नया रंग दे दिया. उसने कहा कि वैश्वीकरण पर चीन की सोच का भारत भी समर्थन कर रहा है. चीन के प्रवक्ता ने संरक्षणवाद पर मोदी के रुख की तारीफ की. उन्होंने कहा कि ज्यादातर देश मानते हैं कि आर्थिक उदारीकरण सबके हक में है.
जब उनसे ये पूछा गया कि क्या भारत और चीन मिलकर संरक्षणवाद का विरोध करेंगे, तो उन्होंने कहा कि इसके विरोध और उदारीकरण के समर्थन को लेकर दोनों देशों के बीच सहमति है. उन्होंने कहा कि चीन और भारत के रिश्तों में स्थिरता होनी चाहिए और दोनों को एक-दूसरे के साथ समझ और भरोसा बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए.
चीन के इस रुख पर शंका की कोई वजह नहीं होनी चाहिए. उसकी आर्थिक सफलता में वैश्वीकरण की बड़ी भूमिका रही है और भारत के लिए भी इसका रोल उतना ही इंपॉर्टेंट होगा. इसलिए दोनों देशों को संरक्षणवाद का हर मोड़ पर विरोध करना होगा. इस मामले में चीन के रुख को लेकर एक खास बात ये है कि ट्रंप युग में शी चीन को वैश्वीकरण का अगुवा बनाना चाहते हैं. वैसे चीन ने ग्लोबलाइजेशन का खास मॉडल अपनाया है, जिससे अपने मंतव्य हैं. चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव से इसका पता चलता है.
डावोस में शी की स्पीच के एक साल बाद हम चीन के इस मॉडल के परेशान करने वाले पहलू भी देख चुके हैं. उसने दक्षिण कोरिया जैसे देशों को धमकाया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में उसने अपना प्रभाव बढाने की कोशिश की, कंपनियों पर टेक्नलॉजी ट्रांसफर के लिए वो दबाव भी डाल रहा है.
डोकलाम को लेकर गंभीर टकराव
चीन और भारत के बीच डोकलाम को लेकर गंभीर टकराव हुआ था. ये मसला अभी खत्म नहीं हुआ है. चीन ने इस क्षेत्र में अपनी सैन्य ताकत बढ़ाई है और बर्फ पिघलने के बाद दोनों देशों के बीच तनाव फिर से बढ़ सकता है. 2017 में भारत और अमेरिका के बीच भी नजदीकियां बढ़ीं. इंडो-पैसिफिक में चीन के दखल को रोकने के लिए अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया गोलबंद हुए.
चीन के साथ भारत के रिश्ते कुछ समय तक चार C पर आधारित रहे हैं. ये हैं- कॉन्फ्लिक्ट, को-ऑपरेशन, कंटेनमेंट और कॉम्पिटीशन.
डोकलाम जहां कॉन्फ्लिक्ट का प्रतीक है, वहीं भारत (और पाकिस्तान) को जून 2017 में शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन का पूर्ण सदस्य बनाया गया. ग्लोबलाइजेशन और ट्रेड को लेकर भारत और चीन एक दूसरे के काफी करीब हैं. ब्रिक्स में चीन और भारत के साथ रूस, ब्राजील और साउथ अफ्रीका शामिल है. ब्रिक्स ने न्यू डिवेलपमेंट बैंक शुरू किया है, जिसका मकसद इन देशों में आर्थिक ग्रोथ को तेज करना है. इसका हेडक्वॉर्टर शंघाई में है. इसी तरह, बीजिंग में हेडक्वॉर्टर रखने वाले एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक का भी भारत संस्थापक सदस्य है. दोनों देशों के रिश्तों में कंटेनमेंट और कॉम्पिटीशन को परिभाषित करना थोड़ा मुश्किल है.
चीन चाहता है कि भारत दक्षिण एशिया में ही उलझा रहे. वो इसके लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है. जब तक पाकिस्तान भारत के प्रति दुश्मनी भरा रवैया अपनाए रखता है, तब तक चीन को भारत के खिलाफ बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. उसे बस पाकिस्तान को रणनीतिक सहयोग देना होगा.
चीन ने पाकिस्तान को सिर्फ सैन्य या आर्थिक मदद ही नहीं दी है, उसने परमाणु हथियार और मिसाइल बनाने में भी उसकी मदद की है. चीन अब दक्षिण एशिया में अपनी गतिविधियां तेज कर रहा है ताकि भारत को इस क्षेत्र तक सीमित रखा जा सके.
दूसरी तरफ, उसने सीपीईसी प्रोग्राम के जरिये उसने पाकिस्तान के साथ रिश्ते मजबूत किए हैं. वो नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ भी नजदीकियां बढ़ा रहा है. भारत और चीन के लिए एक-दूसरे के साथ बिजनेस करने का तरीका निकालने की चुनौती है. दोनों देशों के बीच तनाव और टकराव किसी के हित में नहीं है. दोनों देशों को एक-दूसरे के साथ राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव बढ़ाने के लिए कॉम्पिटीशन करना चाहिए. इसके लिए निगेटिव अप्रोच की जरूरत नहीं है, जैसा कि अभी देखा जा रहा है.
(लेखक नई दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सम्मानित फेलो हैं. यह विचारात्मक लेख है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट ना तो इनका समर्थन करता है, ना ही इसके लिए उत्तरदायी है.)
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