जिस तरह उत्तर भारत में कोहरा सर्दियों के आने की खबर लाता है, उसी तरह जब कोई राज्य सरकार किसी दबंग जाति या समूह के लिए आरक्षण का ऐलान करती है, तो इसका मतलब है कि वहां जल्द चुनाव होने जा रहे हैं.
इस बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने दबंग मराठाओं से आरक्षण का वादा किया है. इसका आधार महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की हालिया रिपोर्ट को बनाया जा रहा है, जिसमें मराठाओं को ‘सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ा’ बताया गया है.
सामाजिक गैर-बराबरी खत्म करने के लिए है आरक्षण
इस पिछड़ेपन का आधार क्या है, रिपोर्ट में यह बात स्पष्ट नहीं की गई है. वैसे इसे अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है और रिपोर्ट को शीतलकालीन सत्र में विधानसभा में पेश किया जाएगा, लेकिन इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि मराठा सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े हुए नहीं हैं. ऐसी पर्याप्त रिसर्च हुई हैं, जिनसे यह बात साबित की जा सकती है.
सामाजिक-आर्थिक पैमानों पर मराठा मोटे तौर पर ब्राह्मणों और अगड़ी जातियों के करीब हैं, न कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (एससी, एसटी) और पिछड़ा वर्ग के शिक्षा, सरकारी नौकरियों, गरीबी या जमीन पर मालिकाना हक के मामले में मराठाओं की हालत राज्य में दूसरी जातियों से बेहतर है. इससे भी बड़ी बात यह है कि सामाजिक पिछड़ेपन के चलते मराठाओं का हक नहीं मारा जा रहा है.
आरक्षण पर जब भी बहस होती है, तो अक्सर इस बिंदु पर ध्यान नहीं दिया जाता. गरीबी खत्म करने के लिए आरक्षण का इस्तेमाल दान के रूप में नहीं हो सकता. इसके उलट यह गैरबराबरी और भेदभाव खत्म करने का औजार है. हालांकि इधर आरक्षण की मांग इस गैरबराबरी और ताकत को बनाए रखने की खातिर की जा रही है.
मराठाओं को आरक्षण कैसे मिलेगा, तस्वीर नहीं है साफ
अगर यह मान भी लिया जाए कि मराठा सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़ेपन के शिकार हैं, तब भी उन्हें आरक्षण देने का प्रस्ताव कानूनी दांवपेच में फंस सकता है. सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट कर चुका है कि किसी भी राज्य में आरक्षण 50 पर्सेंट से अधिक नहीं हो सकता (कुछ परिस्थितियों में रिजर्वेशन इससे अधिक हो सकता है, लेकिन अभी तक इन्हें स्पष्ट नहीं किया गया है.)
वहीं महाराष्ट्र में अभी सरकारी नौकरियों में 52 पर्सेंट आरक्षण की व्यवस्था लागू है. इसमें पहले ही 'विशेष पिछड़ा वर्ग’ को 2 पर्सेंट का अतिरिक्त आरक्षण दिया गया है.
इतना तो साफ है कि राज्य सरकार मराठाओं को इस वर्ग में शामिल करने की नहीं सोच रही. वह उनसे ‘सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग’ की एक अलग कैटेगरी के तहत आरक्षण देने का वादा कर रही है. यह नया वर्ग नहीं है.
संविधान कहता है कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आर्टिकल 16, क्लॉज (4) के तहत आरक्षण दिया जा सकता है. हालांकि इससे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि महाराष्ट्र सरकार नौकरी और शिक्षा में मराठाओं को किस तरह आरक्षण देने जा रही है.
कैसे मिल सकता है मराठाओं को रिजर्वेशन?
इसके लिए मोटे तौर पर तीन रास्ते हैं. पहला, उन्हें ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ में शामिल किया जाए. दूसरा, ओबीसी के अंदर ‘सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग’ की एक सब-कैटेगरी बनाई जाए या ‘सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग’ की एक बिल्कुल नई कैटेगरी बनाई जाए, जो मौजूदा रिजर्वेशन व्यवस्था से बाहर हो. इस मामले में सरकार की तरफ से जो बयान आए हैं, उनसे इतना तो साफ हो गया है कि मराठाओं को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल नहीं किया जा रहा.
दूसरे और तीसरे विकल्प को अपनाने की अपनी चुनौतियां हैं. राज्य की कुल आबादी में मराठा 16 पर्सेंट हैं. इसलिए अलग ओबीसी में उनके लिए अलग से कैटेगरी बनाई गई, तो इस वर्ग की दूसरी जातियां उसका भारी विरोध करेंगी. अगर मराठाओं को आरक्षण देने के लिए अलग कैटेगरी बनाई जाती है, तो वह सुप्रीम कोर्ट में नहीं टिक पाएगा, क्योंकि उससे 50 पर्सेंट आरक्षण के नियम का उल्लंघन होगा.
तमिलनाडु अकेला राज्य है, जहां 50 पर्सेंट से अधिक रिजर्वेशन की व्यवस्था लागू है. हालांकि इसे भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है, जिस पर अभी तक फैसला नहीं आया है. दूसरी तरफ, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कई बार 50 पर्सेंट से अधिक आरक्षण को रद्द कर चुके हैं.
जमीनी हालात और तथ्यों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि महाराष्ट्र सरकार की यह कोशिश कानून के सामने नहीं ठहर पाएगी. बॉम्बे हाईकोर्ट पहले भी मराठाओं के आरक्षण को खारिज कर चुका है. राज्य सरकार ने भले ही मराठाओं के आरक्षण की खातिर राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग से ‘रिपोर्ट’ हासिल कर ली है, लेकिन उसके लिए यह साबित करना मुश्किल है कि मराठाओं से सामाजिक भेदभाव होता है.
इस मामले में चाहे जो भी हो, लेकिन एक बड़ा सच यह है कि राजनीतिक पार्टियां अपने मतलब के लिए आरक्षण का इस्तेमाल करती हैं. जिस सामाजिक न्याय की खातिर रिजर्वेशन की व्यवस्था लागू की गई थी, उसे काफी पहले भुला दिया गया है.
नेताओं को भी आरक्षण पर कानूनी हदबंदी का पता है, इसके बावजूद वे किसी न किसी जाति या समूह को असंवैधानिक और गैरकानूनी आरक्षण देने की कोशिश करते रहते हैं. दूसरी तरफ, उन पर वैसे समूह का इसके लिए दबाव है, जो जातीय व्यवस्था में गैरबराबरी को बरकरार रखना चाहते हैं, ताकि उनका रुतबा न घटे.
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