हमारे संविधान के अनुच्छेद 76 में अटॉर्नी जनरल के पद का प्रावधान है. इस अनुच्छेद में काफी विलक्षण शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. अनुच्छेद की पहली उपधारा कहती है, “राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश होने के योग्य किसी व्यक्ति को भारत के लिए महान्यायवादी यानी अटॉर्नी जनरल को नियुक्त करता है” (यहां ‘के लिए’ पर मैंने खास तौर से जोर दिया है).
इन शब्दों का अर्थ क्या है, इसे स्पष्ट करना आसान नहीं है.
इस मसौदा अनुच्छेद पर संविधान सभा में बहुत अधिक चर्चा नहीं हुई थी जो बाद में अनुच्छेद 76 बना. यूनाइटेड किंगडम की तरह भारत में इस पद के साथ कोई बहुत शानदार इतिहास और परंपरा जुड़ी हुई नहीं है. न ही अमेरिका की तरह इस पद के लिए किसी खास विद्वता की जरूरत है. अमेरिका में अटॉर्नी जनरल से यह अपेक्षा की जाती है कि वो जनहित के लिए काम करेगा.
भारत में इस पद के कार्य क्या होंगे, इसकी कुछ जानकारी हमें है. जैसे, यह पद सीधा सरकार से जुड़ा हुआ नहीं होता. संविधान सभा ने भी इस सुझाव को रद्द कर दिया था कि प्रधानमंत्री के इस्तीफा देने पर अटॉर्नी जनरल को भी इस्तीफा दे देना चाहिए.
वैसे अनुच्छेद 76 की उपधारा 2 अटॉर्नी जनरल के कार्यों का खुलासा करती है. उसमें कहा गया है: वह न सिर्फ कानूनी मसलों पर भारत सरकार को सलाह देता है, बल्कि “संविधान द्वारा या किसी अन्य कानून के तहत उसे सौंपे गए कामों को पूरा करता है.”
अब इन संवैधानिक जिम्मेदारियों की तुलना मौजूदा अटॉर्नी जनरल के कामकाज से की जाए. फिलहाल वह स्टैंड अप कॉमेडियन्स और कार्टूनिस्ट्स के खिलाफ आपराधिक अवमानना की याचिकाओं पर अपनी सहमतियां जता रहे हैं.
शायद ज्यादातर लोग जानते होंगे कि सैनिटरी पैनल्स कॉमिक्स की इलस्ट्रेटर रचिता तनेजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अवमानना की एक याचिका दायर की गई है. रचिता ने सुप्रीम कोर्ट के बारे में एक कार्टून बनाया था.
अदालत की अवमानना का चलन
तो, मौजूदा एजी केके वेणुगोपाल ने सैनिटरी पैनल कॉमिक्स की कार्टूनिस्ट के खिलाफ अवमानना याचिका दायर करने को अपनी मंजूरी दे दी है. वो एक वरिष्ठ वकील भी हैं. इस याचिका को दायर करने वाले लॉ स्टूडेंट ने इस संबंध में वेणुगोपाल को चिट्ठी लिखी थी और उन्होंने इसके जवाब में लिखा था- “मैंने तीन ट्वीट्स और ट्वीट्स में दिखाए गए कार्टून की जांच की है. मुझे यकीन है कि उनमें से प्रत्येक का उद्देश्य भारत के सर्वोच्च न्यायालय को बदनाम करना और लोगों की नजर में उसकी अथॉरिटी को कम करना है.”
इससे कुछ ही हफ्ते पहले एजी ने ऐसे ही एक मामले में कॉमेडियन कुणाल कामरा के ट्वीट के खिलाफ भी अवमानना की कार्रवाई शुरू करने को मंजूरी दी थी. कुणाल कामरा ने अपने ट्वीट में सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की थी. इस मामले में भी एक लॉ स्टूडेंट के एजी को पत्र लिखा था. कुणाल कामरा ने अरनब गोस्वामी को बेल देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की थी. इसके बाद एक लॉ स्टूडेंट ने कामरा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अवमानना की याचिका दायर की.
अदालतों का मजाक असल में कौन उड़ा रहा है
अब यहां एक बात स्पष्ट कर दी जानी चाहिए- अटॉर्नी जनरल मंजूरी मांगने वाली चिट्ठियों का जवाब देकर किसी किस्म का हस्तक्षेप नहीं कर रहे. अवमानना के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट के नियम साफ कहते हैं कि कोई तीसरा पक्ष आपराधिक अवमानना की याचिका एपेक्स कोर्ट में तभी दायर कर सकता है, जब अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल लिखित में उसे इसकी सहमति दें.
अटॉर्नी जनरल अपनी प्राथमिकताओं पर ध्यान नहीं दे रहे, ये कोई मुद्दा नहीं. चूंकि प्राथमिकता तय करना सुप्रीम कोर्ट के लिए अहम है और वो खुद कई महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों को लगातार लंबित कर रहा है, जैसे इलेक्टोरल बॉन्ड्स को चुनौती, सीएए, अनुच्छेद 370 को रद्द करना, और नोटबंदी की वैधता.
असल मुद्दा ये है कि एक उच्च संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति ऐसे फैसले ले रहा है जोकि संविधान की आत्मा के साथ अन्याय करते महसूस होते हैं.
इस समय प्रशांत भूषण वाला मामला भी याद आता है जब सुप्रीम कोर्ट ने दो ट्वीट्स के लिए उन्हें आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया था. तब वेणुगोपाल ने उदारता का आग्रह किया था और मामले की सुनवाई करने वाले जजों से कहा था कि ऐसे कई रिटायर्ड जज हैं जिन्होंने ज्यूडीशियरी की ऐसी ही आलोचनाएं की हैं.
ये एजी की तरफ से दिया गया तर्क था. उन्होंने माना था कि सुप्रीम कोर्ट की आलोचनाएं होती हैं, इसके बावजूद उन्होंने प्रशांत भूषण से कहा था कि वह अपने किए पर माफी मांग लें.
लेकिन कुछ महीने बाद एजी आक्रामक मुद्रा में आ गए. कामरा के मामले में उन्होंने लगभग चेतावनी देते हुए कहा,
“बोलने की स्वतंत्रता अवमानना के कानून के अधीन है और मेरा मानना है कि यह समय है कि लोग यह समझें कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय पर अन्यायपूर्ण और ढिठाई से हमला करने से सजा हो सकती है.”
जब सैनिटरी पैनल के ट्वीट्स की बात आती है तो वो कहते हैं-
- "भारत की सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता और निष्पक्षता में जनता के विश्वास को कमजोर करने के लिए सुनियोजित हैं ";
- "लोगों को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय, यानी पूरी न्यायपालिका के खिलाफ करने का स्पष्ट प्रयास हैं"; और
- "जानबूझकर देश के सर्वोच्च न्यायालय में लोगों के भरोसे के कमजोर करते हैं और इस संस्था के प्रभाव को कम करते हैं."
वाकई में?
क्या हम उस स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां 20 हजार ट्विटर फॉलोअर्स और 84 हजार इंस्टाग्राम फॉलोअर्स वाला कार्टूनिस्ट सुप्रीम कोर्ट में जनता के भरोसे को कमजोर कर सकता है? क्या भारत के सुप्रीम कोर्ट, जोकि दुनिया की सबसे ताकतवर अदालत माना जाता है, की बुनियाद इतनी कच्ची है कि किसी भी तीखे कार्टून के हमले से भरभराकर गिर जाएगी?
अगर सचमुच ऐसा है तो सुप्रीम कोर्ट को खुद गंभीरता से सोचना चाहिए कि उसकी यह दशा कैसे हो गई है.
इसके अलावा इस इल्जाम पर भी ध्यान दीजिए- एजी को सचमुच ऐसा लगता है कि कार्टूनिस्ट रचिता तनेजा सक्रियता से सुप्रीम कोर्ट को कमजोर करने की कोशिश कर रही है? क्या इस देश में असहमति जताना इतना मुश्किल है कि राज्य की किसी भी आलोचना को तिरछी निगाहों से देखा जाता है. यह नहीं सोचा जाता कि कई बार नुक्ता चीनी का मकसद सुधार भी हो सकता है.
बेशक, कार्टून्स हमला नहीं करते थे, और सिर्फ यह इशारा करते थे-
- कि सुप्रीम कोर्ट अर्णब गोस्वामी मामले की सुनवाई और उन्हें राहत देने का इच्छुक था,
- कि सुप्रीम कोर्ट अर्णब गोस्वामी, जोकि बीजेपी सरकार के जोशीले समर्थक हैं, को बेल देने का इच्छुक था, लेकिन सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों के साथ उसका रवैया अलग था, जोकि अदालत के अपने राजनैतिक झुकाव का संकेत हो सकता है,
- कि सीजेआई के तौर पर रिटायर होने (और अयोध्या मामले की पीठ की अध्यक्षता) के कुछ ही महीने बाद रंजन गोगोई की ताजपोशी राज्यसभा सांसद के रूप में हो गई और ये लोगों के बीच न्यायालय की अच्छी छाप नहीं छोड़ता
– और कार्टून अप्रत्यक्ष तरीके से, बीच बचाव करते हुए ऐसा नहीं कहता- साफ शब्दों में कहता है.
लेकिन भगवान के लिए यह तो समझिए कि ये कार्टून्स हैं!
क्या कार्टूनिस्ट को लंबे-चौड़े तर्क गढ़ने चाहिए- क्या अपने व्यंग्य के प्रयोजन के साथ विस्तृत स्पष्टीकरण देने चाहिए? क्या अपने तर्क के समर्थन में उन्हें 100 पेज का एफिडेविट लगाना चाहिए (हालांकि वह भी काफी न होता).
बिल्कुल नहीं!
कॉमेडियन्स और कार्टूनिस्ट्स को अपनी बात संक्षिप्त में, चुटीले तरीके से कहनी होती है. उनके काम पर बहस मुबाहिसा होना चाहिए- विचार किया जाना चाहिए. यह बहस और चर्चा लोकतंत्र के लिए जरूरी है, बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए अनिवार्य है. हां, इन कार्टून्स और जोक्स में यह माना गया था कि अदालतों की अपनी मंशा थी जोकि आम तौर पर वर्जित होता है, लेकिन आखिर ये जोक्स थे, और जोक्स में हर बारीकी पर उतना जोर नहीं दिया जाता, न ही उतनी स्पष्टता की गुंजाइश होती है.
क्या अवमानना संविधान के अंतर्गत बोलने की आजादी पर प्रतिबंध लगाने का वैध आधार है?
हां, लेकिन यह मत भूलिए कि मूलभूत अधिकार पर पाबंदी उचित होनी चाहिए. फिर व्यंग्य की परंपरा, असम्मति और आलोचना की परंपरा का ही एक अंग है, और इस पर नाराजगी जताना, उसके पूरे संदर्भ को नजरंदाज करना ही है. इसे देखते हुए इस पाबंदी को उचित नहीं कहा जा सकता.
यही कारण है कि खुद सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में कहा है कि अवमानना की शक्ति को सावधानी और समझदारी से इस्तेमाल किया जाना चाहिए, फिर ज्यूडीशियरी के प्रति सम्मान की भावना उसके अपने फैसलों से पैदा होनी चाहिए, आलोचनाओं को दबाने से नहीं.
ऐसे ही एक फैसले की कुछ पंक्तियां इस तरह थीः
“क्रोध या आवेग में इस अधिकार का बार-बार या अंधाधुंध उपयोग अदालत की गरिमा या प्रतिष्ठा को बरकरार नहीं रख सकता, बल्कि कई बार इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. बुद्धिशाली न्यायाधीश यह कभी नहीं भूलते हैं कि उनके पद की गरिमा और प्रतिष्ठा को बरकरार रखने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उनके निर्णय की गुणवत्ता, निडरता, निष्पक्षता और दृष्टिकोण में वस्तुनिष्ठता, तथा उनके न्यायिक आचरण के संयम, गरिमा और शिष्टता के आधार पर जनता उनका सम्मान करे.”1964 के स्पेशल रिफ्रेंस नंबर 1 में चीफ जस्टिस गजेंद्रकर
या, बोलने की आजादी और अवमानना की शक्ति के बीच संतुलन कायम करने की सीख देने वाले ये ज्ञानपूर्ण वाक्य:
“…सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों को सतर्क होकर बोलने की आजादी की रक्षा करनी चाहिए, भले ही मामला न्यायपालिका के अपमान का हो... क्योंकि इससे न सिर्फ बोलने की आजादी की रक्षा होती है, बल्कि सच्चाई के प्रकाश में विश्वास भी पैदा होता है, इसके बावजूद कि अत्यधिक आलोचनाओं को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. दरअसल न्याय करना कोई पुण्य करना नहीं है.”जस्टिस कृष्णनन अय्यर, बरदकांत मिश्रा बनाम उड़ीसा हाई कोर्ट रजिस्ट्रार (1974)
एजी की सहमति में अवमानना के लिए सजा देने की बात नहीं कही गई थी, वह यह राय दे रहे थे कि ये कार्टून अवमानना के बराबर हैं, और उनके हिसाब से, कड़ी आलोचना करने वाले को रोका जाना चाहिए. पर क्या यह उस बोलने की आजादी से ज्यादा जरूरी है जिसके जरिए ज्यूडीशियरी की मौजूदा समस्याओं को उजागर करने की कोशिश की जा रही है.
इसके बाद ये कहना मुश्किल है कि वह अब भारत के अटॉर्नी जनरल के तौर पर काम कर रहे हैं. अगर उस पद का कोई मायने है तो इसके लिए यह जरूरी है कि वह उस पद के संवैधानिक निहितार्थ को समझें (सरकार के कानूनी अधिकारी की भूमिका पर विचार करने के बजाय).
उनका मौजूदा रवैया बोलने की आजादी को कमजोर करता है और उन कोशिशों को भी जिनके माध्यम से भारत के सरकारी संस्थानों पर महत्वपूर्ण बहस छेड़ी जा सकती है. आखिर, दूसरे उदार लोकतांत्रिक देशों ने आपराधिक अवमानना की अवधारणा को त्याग दिया है तो इसके पीछे कोई न कोई कारण तो जरूर होगा (इन देशों में यूके भी शामिल है जिससे हम इस अवधारणा की प्रेरणा ली है).
बेशक, कॉमिक्स और कॉमेडियन्स को निशाना बनाने से संस्थान के तौर पर न्यायपालिका का कोई फायदा होने वाला नहीं है.
हां, इससे न्याय तंत्र पर लोगों का विश्वास उठ सकता है. उन्हें महसूस हो सकता है कि यह तंत्र इतना अधिक संवेदनशील है कि अदना से लोगों को सजा देने की फिराक में रहता है. वह भी उन लोगों को, जिनका रुतबा और ताकत तुलनात्मक रूप से न के बराबर है. जाहिर सी बात है, अगर सचमुच अवमानना होती है तो उसके लिए उसे एजी की जरूरत नहीं, वह स्वप्रेरणा से भी ऐसे मामलों को संज्ञान में ले सकता है.
अदालत ने खुद ही तो तैयार की है ये खिचड़ी
ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मुद्दा अचानक उठने लगा है. यह पहले भी होता रहा है.
हां, ऐसे उत्साही लॉ स्टूडेंट्स और वकील पहले भी रहे हैं जिन्होंने क्षणिक लोकप्रियता की खातिर या खुद को बड़ा राजभक्त बताने के लिए ऐसे मुद्दे उठाए. लेकिन इस बार यह महज चापलूसी नहीं है.
प्रशांत भूषण अवमानना मामला इससे बहुत अलग था. इस मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच को प्रशांत भूषण के दो ट्वीट नागवार गुजरे थे. लीगल एक्सपर्ट्स और सिविल सोसायटी की आलोचनाओं के बावजूद अदालत ने प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी माना- और अपना फैसला सुनाया. यह बात और है कि प्रशांत भूषण उन्हीं कमियों को उजागर कर रहे थे जो इस अदालती फैसले में दिखाई दे रही थीं.
अपने फैसले में अदालत ने कहा कि प्रशांत भूषण के ट्वीट आपराधिक अवमानना के दोषी हैं, पर उनके उस तर्क और एफिडेविट पर विचार नहीं किया कि क्यों उनकी राय प्रामाणिक थी और न ही इस बात को कोई विश्लेषण किया कि किसी की व्यक्तिगत राय पूरी न्यायपालिका को कैसे कमजोर कर सकती है.
अदालत की आपराधिक अवमानना क्या होती है, यह स्पष्ट के लिए जिस मामले को नजीर बताया गया, वह अपर्याप्त था. अब लॉ स्टूडेंट्स उसी नजीर के मद्देनजर अदालत की आलोचनाओं को अवमानना का मामला मान रहे हैं. ऐसा सिर्फ तनेजा और कामरा के मामले में नहीं हुआ, स्वरा भास्कर, राजदीप सरदेसाई और फिर प्रशांत भूषण के खिलाफ भी इसी तरह मामले शुरू किए गए.
संभव है कि इन लॉ स्टूडेंट्स और तमाम दूसरे लोगों को ऐसा लग रहा होगा कि इस समय सबसे ज्यादा जरूरी सुप्रीम कोर्ट को हमलों से बचाना है. उन्हें यह गैरजरूरी लग रहा होगा कि कानून का काम तो कमजोरों की रक्षा करना है.
लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट खुद ऐसी मिसाल पेश कर रहा हो तो क्या कहा जाए. उसने कई जरूरी संवैधानिक मामलों की सुनवाई की बजाय प्रशांत भूषण मामले को तवज्जो दी. साथ ही यह स्पष्ट नहीं किया कि अदालत की प्रतिष्ठा और बोलने की आजादी के बीच कैसे संतुलन कायम किया जाए- क्या यह उनकी मुख्य जिम्मेदारी नहीं है.
यह उम्मीद की जा सकती है कि भारत के अटॉर्नी जनरल एक बेहतर मिसाल कायम करने की कोशिश करेंगे- असम्मतियों के खिलाफ न्यायिक ताकत के इस्तेमाल को कम करेंगे.
लेकिन यह 2020 है, और हैरानी की बात नहीं कि कितनी ही उम्मीदें धराशायी हो रही हैं.
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