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मुंबई की उल्टी-पुल्टी नीतियों ने कोरोना को बना दिया विनाशकारी

मुंबई में कोविड-19 मामलों का विस्तार इसके शहरी बनावट और नीतियों से जुड़ी परेशानियों को दर्शाता है.

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मुंबई के नये म्यूनिसिपल कमिश्नर आईएस चाहल ने शनिवार 9 मई को पहले ही दिन दफ्तर में कोविड-19 के खिलाफ महानगर की लड़ाई में खुद को शिद्दत से शुमार कर लिया. उन्होंने कोविड-19 मरीजों के लिए समर्पित अस्पतालों की जांच की और जमीनी हकीकत जानने के लिए खुद बाहर निकल पड़े. जिन इलाकों का उन्होंने दौरा किया, उनमें धारावी भी था जिस बारे में बहुचर्चित मान्यता है कि भारत के इस शहर मुंबई में कोरोना वायरस की महामारी का यह एपीसेंटर है जहां शनिवार को सबसे ज्यादा कोरोना के 12,864 मामले थे.

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मुंबई में कोविड-19 की समस्या को धारावी व्यक्त नहीं करता, जहां शहर के 6.5 प्रतिशत से कम मामले हैं.

सच यह है कि पूरे मुंबई में कोविड-19 मामलों का विस्तार इसके शहरी बनावट और नीतियों से जुड़ी परेशानियों को दर्शाता है.

ऐसे संकेत नहीं मिलते कि महाराष्ट्र के कोविड संकट को बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार अच्छे से निबट लेती

घातक वायरस से मुंबई तब रू-ब-रू हुआ जब पुणे में रहने वाला एक दंपती 9 मार्च को छत्रपति शिवाजी इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर उतरा और बाद में उनके शहर में हुई जांच में उन्हें कोरोना वायरस पॉजिटिव पाया गया. 11 मार्च को इस दंपती से जुड़े दो लोग मुंबई में हुई जांच में पॉजिटिव निकले. दो महीने बाद कोरोना के मामले करीब 13 हजार हो गये और मृतकों की संख्या 500 के करीब. मध्य मार्च से ही मुंबई कुछ इस कदर बंद पड़ा है जैसा कभी अतीत में नहीं हुआ था.

इसके बावजूद महाराष्ट्र में करीब 20 हजार कोविड-19 मामलों में मुंबई सबसे आगे है. हर दिन संख्या बढ़ती ही जा रही है. वहीं, राज्य सरकार ने आने वाले हफ्तों में कोविड के हजारों संभावित मरीजों के लिए बांद्रा कुर्ला कॉम्प्लेक्स ग्राउंड, मुंबई एक्जिविशन सेंटर और नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ इंडिया स्टेडियम को तैयार रखा है.

ज्यादातर विशेषज्ञों का कहना है कि मुंबई के लिए और भी बुरा समय अभी आना बाकी है. वहीं, एक उच्च स्तरीय केंद्रीय टीम ने अनुमान लगाया है कि यहां मई के मध्य तक 6,56,000 मामले हो सकते हैं.

मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे स्वाभाविक रूप से निशाने पर हैं. पहली बार प्रशासन संभाल रहे ठाकरे हर तरह के विशेषज्ञों से नियमित तौर पर मशविरा कर रहे हैं और सूचनाएं हासिल कर रहे हैं. और, ईमानदारी से उन्होंने इसे नागरिकों के साथ साझा भी किया है. साथ ही, बुद्धिमानी के साथ जिम्मेदारियां भी बांटी हैं.

बीजेपी ने इस अवसर का इस्तेमाल महाराष्ट्र सरकार को अस्थिर करने और ठाकरे को कुर्सी से हटाने की कोशिश में किया है.

खासकर शुरुआती हफ्ते में कई गलत कदम उठाये गये. लेकिन, इतने भर से ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मुंबई और महाराष्ट्र में कोविड-19 की परिस्थिति कुछ अलग होती, अगर यहां कोई दूसरी सरकार होती या फिर बीजेपी के देवेंद्र फडणनवीस मुख्यमंत्री होते. आपदा प्रबंधन में फडणनवीस की दक्षता पिछले साल देखने को मिली थी जब महाराष्ट्र के कई हिस्सों में बेमौसम बारिश और बाढ़ की मार पड़ी. बुनियादी प्रशासनिक निर्णय पर ध्यान केंद्रित करने के लिए उन्हें अपनी भूल सुधारनी पड़ी और चुनाव अभियान को वापस लेना पड़ा.

क्या है जो मुंबई को कोरोना संक्रमण के लिए संवेदनशील बनाता है?

जिस तरह मुंबई की स्थिति को समझने के लिए धारावी उपयुक्त लेंस नहीं हो सकता, वैसे ही मुंबई में कोविड 19 की संख्या भर से प्रदेश के शासन को समझना भूल होगी, क्योंकि वास्तविकता यह है कि शहरी बनावट और नीतियां महामारी में अपनी भूमिका निभाया करती हैं. मुंबई सबसे अधिक आबादी और सबसे अधिक घनत्व वाला शहर है तो इसकी वजह है यहां का भूगोल, स्थापत्य, वाणिज्य, नीतियां और फैसले. इन्हीं वजहों से वायरस का संक्रमण इस हद तक पहुंचा है. मुंबई में कोविड-19 की स्थिति शहर में लोक स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को उजागर करती है. इतना ही नहीं यह शहर की बनावट और व्यवस्थागत कमियों को भी सामने लाती है.

कम से कम तीन कारक हैं जो एक-दूसरे से जुड़े हैं. पहला जनसंख्या का घनत्व है. शहर में भारी भीड़ एक साथ रहती है, एक-दूसरे के नजदीक रहते हुए लोग काम करते हैं और खेलते हैं. संयुक्त राष्ट्र के विगत 2 साल के आंकड़े मुंबई को दुनिया के सबसे घने शहरों की सूची में दूसरे स्थान पर रखते हैं जहां प्रति वर्ग किलोमीटर 31,700 लोग रहते हैं.

मुंबई की सघनता और इसके भूगोल में भी संघर्ष है. इसका प्रायद्वीपीय लेआउट का अर्थ है कि जमीन सीमित है, महानगर का सघन शहरी विकास हुआ है या फिर यह आसपास के इलाकों में फैलता जा रहा है.

इसके अंतर्गत कई क्लस्टर हैं जहां जनसंख्या का अत्यधिक घनत्व है, जैसे धारावी जहां औसतन प्रति किलोमीटर 2 लाख लोग रहते हैं (वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम के आंकड़ों के अनुसार 2,70,000). कल्पना से परे ऐसे घनत्व का मतलब होता है कोविड-19 जैसी महामारी विनाशकारी हो जाती है.

दूसरा कारक है इस शहर का अजीबोगरीब आवासीय मैट्रिक्स, जिनसे दो बातें सामने आती हैं. अनौपचारिक बस्तियों या झुग्गियों में करीब शहर की 45 फीसदी आबादी या कहें कि आश्चर्यजनक तरीके से 90 लाख मुंबईकर रहते हैं. बहरहाल वे बमुश्किल शहर के 10 फीसदी हिस्से में हैं. यह ऐसा तथ्य है जिसकी हमेशा उस वक्त अनदेखी होती है जब हाऊसिंग सेक्टर के लिए नो डेवलबमेंट जोन से जमीन रिलीज की जाती है.

सस्ते मकान का सपना मुंबई में सपना क्यों है?

मांग-आपूर्ति का तेजी से बदलता समीकरण इस मैट्रिक्स का एक और पहलू है. सस्ते और किफायती मकानों की मांग हमेशा रही है लेकिन हाउसिंग इंडस्ट्री ने अपना ध्यान दूसरे छोर पर या फिर कहें कि लक्जरी मकानों पर लगा रखा था, जहां मुनाफा बड़ा था. नतीजा यह है कि इनमें से लाखों यूनिट बिके नहीं या खाली हैं जबकि लाखों लोग एक या दो कमरे के घर के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इसने महामारी के समय शारीरिक दूरी बनाए रखने की जरूरत को असंभव बना दिया.

प्रॉपर्टी कन्सल्टेंसी फर्मों के अनुसार 2019 में करीब 2 लाख 20 हजार घरों की बिक्री नहीं हुई और वे खाली रह गये.

भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमण्यन इसे आर्थिक मंदी से जोड़कर देखते हैं. बाकी बातें छोड़ दें तो इस असंतुलन से एक गुस्सा पैदा होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है. अंतरराष्ट्रीय रूप से मान्य परिभाषा के हिसाब से किफायती घर वह है जिसकी कीमत एक औसत आय वाले व्यक्ति की पांच साल की कुल आमदनी के बराबर हो. मुंबईकरों के लिए एक कमरे का घर हासिल करने के लिए इससे पांच गुणा अधिक रकम की जरूरत होती है.

महाराष्ट्र हाउसिंग एंड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (एमएचएडीए) जैसी सरकारी एजेंसियां भी कम लागत वाले घरों के पीछे नहीं दौड़तीं और विशाल संख्या में अनसोल्ड यानी नहीं बिके मकानों को किफायती नहीं बनाया जा सकता क्योंकि उसके निर्माण में उन्हें ऊंची लागत आयी है.

मांग-आपूर्ति के आधार पर मुंबई के हाउसिंग मार्केट का संचालन बहुत पहले बंद हो चुका है. इस उद्योग के बारे में कुछ कह पाना बहुत मुश्किल हो गया है जो नीति निर्माण में असीमित प्रभाव के बदले चुनावी राजनीति को तय करता है. हाउसिंग और प्रॉपर्टी से जुड़ी नीतियां शहर की जरूरतों के हिसाब से नहीं होतीं, बल्कि पूरी तरह से मुनाफे के आधार पर होती हैं. इसका खामियाजा इंसान को उठाना पड़ता है जो लाखों-करोड़ों की तादाद में छोटी-छोटी सुविधाविहीन खोलियों में रहने को विवश होते हैं जो महामारी के विस्तार को गति देता है.

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मुंबई के सार्वजनिक परिवहन का संकट

तीसरा कारक है मुंबई का परिवहन सेक्टर. अधिकांश महानगरों की तरह मुंबई आवाजाही वाला शहर है जहां 1.2 करोड़ लोग हर दिन किसी न किसी ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते हैं और कई लाख लोग पैदल ही काम पर जाते और आते हैं. सार्वजनिक परिवहन शहर को गतिमान बनाए रखता है. कोविड-19 के समय में मुंबई को बंद रखने का मतलब है रेलवे लाइन को बंद कर देना, जो हर दिन 75 लाख लोगों को लाती-ले जाती है. इसी तरह बेस्ट (BEST) बसों को डिपो पर खड़ा करना पड़ा है जो हर दिन करीब 35 लाख लोगों को सफर कराती है.

बहरहाल सार्वजनिक परिवहन पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता है या फिर शहर में इसके महत्व के अनुपात में आवंटन नहीं होता. 

म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन को तो छोड़ दीजिए, महाराष्ट्र की सरकार तक सबअर्बन रेलवे नेटवर्क को लेकर कुछ बोल नहीं पाती क्योंकि वो केंद्रीय रेल मंत्रालय के नियंत्रण में है. बीते कुछ सालो में बेस्ट बस उपक्रम का नुकसान बढ़ता चला गया तो म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ने घाटे को पाटने के तरीकों पर काम करने के बजाए बसों की संख्या घटाने की बात कहना शुरू कर दिया.

आंकड़े कहानी बयां करते हैं : 2014-15 तक 8 साल में बस सेवाओं का केवल 23 प्रतिशत विस्तार हुआ, पश्चिमी और मध्य रेलवे लाइने क्रमश: 25 और 33 फीसदी बढ़ीं. लेकिन, निजी कारों की संख्या में 57 फीसदी की बढ़ोतरी हुई और दुपहिया वाहनों की तादाद 64 फीसदी बढ़ गयी.

परिवहन विश्लेषकों का कहना है कि एक के बाद एक आयी सरकारों ने निजी परिवहन इन्फ्रास्ट्रक्चर को प्रमुखता दी.

सरकार का जोर निजी ट्रांसपोर्ट की तरफ है लेकिन सार्वजनिक परिवहन की वकालत और अनुसंधान करने वाली मुंबई विकास समिति के मुताबिक 77 फीसदी दैनिक यात्री सार्वजनिक परिवहन के जरिए आते-जाते हैं. दक्षिण मुंबई को उत्तर मुंबई को जोड़ने वाला वेस्टर्न सी फ्रंट 29 किमी लंबा तटीय सड़क है जिसके केवल एक तिहाई हिस्से की लागत 12 हजार करोड़ आती है. इस रकम से सार्वजनिक परिवहन में आने वाली मजबूती की कल्पना करें.

मुंबई में राजनीतिज्ञों और योजनाकारों को क्या समीक्षा करनी चाहिए

मुंबई में लॉकडाउन को हल्का करने और शहर को उसके आर्थिक लय में आधा भी लाया जा सके, इसके लिए ट्रेनों और बसों को वापस ट्रैक पर लाना होगा. लेकिन हर ट्रिप में जो जबरदस्त भीड़ वाली यात्रा होती है वह कोविड-19 की रोकथाम के लिए इस्तेमाल की जा रही शारीरिक दूरी का मजाक उड़ाती नजर आएगी. अगर बेस्ट बसों का बड़ा बेड़ा मुंबई की सड़कों पर होता और ट्रेनों का एक सघन या समांतर नेटवर्क होता तो यह भार बंटकर कुछ हल्का हो जाता.

कोविड-19 निश्चय ही मुंबई के योजनाकारों और राजनीतिज्ञों को न सिर्फ शहर की स्वास्थ्य सुविधाओं, बल्कि हाउसिंग और ट्रांसपोर्ट नीतियों की भी समीक्षा करना सिखा देगी. बेशक ये अपेक्षाएं आदर्शवादी हैं.

(स्मृति कोप्पिकर स्वतंत्र पत्रकार और संपादक हैं. फिलहाल मुंबई में रह रहीं कोप्पिकर ने राजनीति, जेंडर इश्यूज और विकास पर करीब तीन दशक तक राष्ट्रीय अखबारों और पत्रिकाओं में लिखा है. उनका ट्विटर हैंडल है @smrutibombay. ये लेखिका के अपने विचार हैं. इन विचारों का क्विंट से कोई सरोकार नहीं है. )

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