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भारतीय विश्वविद्यालयों के डर्टी सीक्रेट्स और देसी #MeToo मोमेंट

भारतीय विश्वविद्यालयों का यौन शोषण का अड्डा होना एक स्वाभाविक घटना है. इसकी बड़ी वजह वहां की सत्ता संरचना है.

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भारत के टॉप के विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े प्रोफेसर और स्कॉलर्स के सिर पर इन दिनों एक प्रेतछाया मंडरा रही है. राया सरकार नाम की एक औरत उनकी जिंदगी में किसी बुरे ख्वाब की तरह आई है. राया सरकार अमेरिका में रह रही वकील हैं और जेंडर और जाति जैसे मुद्दों पर लिखती हैं. सारा विवाद उनकी एक फेसबुक पोस्ट से शुरु हुआ है और अब ये एक तूफान की शक्ल ले चुका है.

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उनकी एक फेसबुक पोस्ट के बाद, प्रोफेसर्स और स्कॉलर्स को लोग शक की नजर से देख रहे हैं. मामला यौन शोषण और उत्पीड़न का है. शिकायतें प्रोफेसर्स की फीमेल स्टूडेंट्स ने की हैं. किसी को नहीं मालूम की अगला नाम किसका आ जाए. प्रोफेसर्स भी घबराए हुए हैं और अपने समर्थकों के जरिए लामबंदी में जुटे हैं. जेएनयू की प्रोफेसर निवेदिता मेनन ने बाकायदा एक लेख लिखकर इस तरह किसी को ‘बदनाम करने’ की आलोचना की है. उनकी बात में एक तर्क भी है. शिकायतें अभी गुमनाम हैं और इनके सबूत हैं या नहीं, ये किसी को नहीं मालूम.

लेकिन इतना सभी को मालूम है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में यौन शोषण और उत्पीड़न होता है और कई टीचर्स ये करते हैं. ये खुला हुआ रहस्य है और इसने किसी को चौंकाया नहीं है. बेशक इस लिस्ट में आए कुछ लोग इतने सम्मानित बन कर जी रहे थे कि उन नामों को लेकर एक सनसनी और कई बार अविश्वास का भाव जरूर दिख रहा है.

ये सारा मामला सोशल मीडिया में खुला. राया सरकार ने अपने फेसबुक अकाउंट पर एक पोस्ट लिखा जिसमें दो ‘बदनाम’ प्रोफेसर्स के नाम लिखे, और कहा कि जिन स्टूडेंट्स के साथ कभी कॉलेज यूनिवर्सिटी में किसी प्रोफेसर ने इस तरह का हैरेसमेंट किया है वो उनका नाम शेयर करे. और देखते ही देखते 50 से ज्यादा बड़े प्रोफेसर्स के नाम महिलाओं की ओर से ‘नेम एंड शेम’ में शामिल हो गए. ये प्रोफेसर्स देश के जाने-माने नाम हैं और देश के बड़े संस्थानों जैसे FTII, JNU से लेकर DU तक में पढ़ाते हैं.

भारत में जो कुछ हो रहा है, उसका एक ग्लोबल संदर्भ है. अमेरिका के मशहूर फिल्ममेकर हार्वे विन्सटीन को लेकर यौन उत्पीड़न और शोषण के दर्जनों मामले सामने आने के बाद से महिलाओं की ओर से #MeToo (मी टू - मैं भी) यानी यौन उत्पीड़न की स्वीकृति की जो लहर अमेरिका से चली, वो अब पूरी दुनिया में छा गई है . कई नामी अदाकाराओं ने बताया कि विन्सटीन ने उनके साथ यौन उत्पीड़न किया है. विन्सटीन अब एक घृणित व्यक्ति बन चुका है.

इस घटना से ये हुआ कि महिलाओं ने जो बात दशकों से छिपा रखी थीं, उसके बारे में वे सार्वजनिक तौर पर बताने लगीं. बंद कमरों के कई राज जो दफन थे, वे कब्र से बाहर आ गए.

भारत में यौन शुचिता को लेकर सख्ती नहीं

पश्चिम के समाज में यौन भ्रष्टाचार को लेकर वैसे भी काफी सख्त नजरिया है. भारत की तरह यौन संबंधों को लेकर वहां ढीला-ढाला मामला नहीं है. खासकर विवाहेतर संबंधों को लेकर यूरोप में टॉलरेंस नहीं बरता जाता. इसलिए मी टू आंदोलन को वहां एक नैतिक सफाई अभियान के तौर पर देखा जा रहा है. भारत में कंगना रनौत जैसे इक्का-दुक्का मामलों को छोड़ दें तो बताने से ज्यादा छिपाने का ही चलन है.

भारत में यौन शुचिता को लेकर यूरोप जैसी सख्ती नहीं है. भारतीय मिथकीय या धार्मिक परंपरा में किसी बलात्कारी को दंडित किए जाने का कोई जिक्र नहीं है.

बलात्कार के एक चर्चित मामले में सजाएं ये हुईं कि इंद्र को पूजा से वंचित किया गया, चंद्रमा के मुंह पर काला टीका लगा दिया गया और पीड़ित महिला अहिल्या को पत्थर बनने की सजा दी गई, जिसका उद्धार राम के पैर से चोट खाकर होता है.

यहां बलात्कार की सजा का ज्यादा बोझ महिला उठाती है. समाज में उसका जीना मुश्किल कर दिया जाता है. इज्जत खराब होने की अवधारणा यहीं से आई है.

भारतीय विश्वविद्यालयों का यौन शोषण का अड्डा होना एक स्वाभाविक घटना है. इसकी बड़ी वजह वहां की सत्ता संरचना  है.
यहां बलात्कार की सजा का ज्यादा बोझ महिला उठाती है.
(Photo: iStock)
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बदलाव का बड़ा संकेत

ऐसे में अगर भारत के विश्वविद्यालयों की स्टूडेंट्स ये बताने के लिए आगे आ रही हैं कि किसी प्रोफेसर ने उनका यौन शोषण किया, तो इसे भारतीय समाज में हो रहे बड़े बदलाव के संकेत के तौर पर देखा जाना चाहिए.

TERI (ऊर्जा शोध संस्थान) जैसे संस्थान में इस तरह की घटनायें पहले भी सामने आ चुकी है. वहां के चेयरमैन आर.के. पचौरी को ऐसे ही एक मामले में पद से हटना पड़ा. जादवपुर यूनिवर्सिटी और दिल्ली यूनिवर्सिटी में यौन उत्पीड़न मामले में प्रोफेसरों के खिलाफ कार्रवाई हो चुकी है. पिछले साल जेएनयू में एक असिस्टेंट प्रोफेसर को एक विदेशी लड़की के साथ यौन उत्पीड़न मामले में यूनिवर्सिटी छोड़कर जाना पड़ा.

भारतीय विश्वविद्यालयों का यौन शोषण का अड्डा होना एक स्वाभाविक घटना है. इसकी बड़ी वजह विश्वविद्यालयों की सत्ता संरचना यानी पावर स्ट्रक्चर है. भारतीय शिक्षा व्यवस्था में टीचर को अलोकतांत्रिक होने की हद तक अधिकार मिले हुए हैं. खासकर उच्च शिक्षा में शिक्षक किसी देवता की तरह पावरफुल होता है और स्टूडेंट्स के भविष्य का फैसला करता है. एडमिशन से लेकर रिसर्च और फेलोशिप से लेकर नौकरी लगने तक में टीचर अक्सर निर्णायक भूमिका में होता है. ऐसे में मेल स्टूडेंट्स टीचर के घरों की सब्जी लाने से लेकर टीचरों के निजी काम करते नजर आते हैं, वहीं फीमेल स्टूडेंट्स के यौन उत्पीड़न का रास्ता खुल जाता है.

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स्टूडेंट्स के काम के मूल्यांकन में वाइवा या इंटरव्यू का वेटेज ज्यादा होना भी टीचर्स को गैरजरूरी तौर पर शक्तिशाली बनाता है. कोर्ट ने वाइवा का वेटेज 15% मैक्सिमम करने का आदेश दिया है. लेकिन देश के ज्यादातर विश्वविद्यालय वाइवा का वेटज 30% या अधिक रखते हैं. इसके अलावा विश्वविद्यालयों में यौन उत्पीड़न रोकने की इंस्टिट्यूशनल व्यवस्थाएं या तो नहीं हैं, या कमजोर हैं. जहां ऐसी व्यवस्थाएं हैं भी वहां भी शिक्षकों पर आरोप लगाने की हिम्मत कोई लड़की मुश्किल से ही जुटा पाती है. शिक्षकों के पद को लेकर अनावश्यक आदर के भाव की वजह से शिकायतकर्ताओं को न्याय भी नहीं मिल पाता.

भारतीय कैंपस की एक बड़ी समस्या ये भी है कि जेंडर के मामले में यहां भारी असंतुलन है. भारत सरकार की एक स्टडी (2013) में ये पाया गया कि हायर एजुकेशन सेंटर्स में 44 प्रतिशत लड़कियां हैं. लेकिन इन शिक्षा केंद्रों के शिखर और निर्णायक पदों पर महिलाएं या तो मौजूद नहीं हैं या बेहद कम हैं. ब्रिटिश काउंसिल की 2015 की एक स्टडी वीमन इन हायर एजुकेशन लीडरशिप के मुताबिक भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रोफसर पदों पर सिर्फ 1.4% महिलाएं हैं. इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के 431 वाइस चांसलर्स में सिर्फ 13 महिलाएं हैं और उनमें भी 6 वे हैं जो महिला विश्वविद्यालयों में हैं.

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कैंपस की सफाई की एक लंबी प्रक्रिया की शुरुआत

शिक्षा के उच्च पदों पर महिलाओं की गैरमौजूदगी से विश्वविद्यालयों की सत्ता संरचना पुरुषवादी बन जाती है. टीचर्स स्टाफ रूम की पूरी बनावट छात्राओं के लिए असहज स्थिति पैदा करती है. ये यौन उत्पीड़न की सबसे बुनियादी वजहों में से एक है. किसी शोध छात्रा के लिए अक्सर ये मजबूरी होती है वो किसी पुरुष प्रोफेसर को सुपरवाइजर बनाए और उस पुरुष प्रोफेसर को लेकर छात्रा की असहजता का कोई और समाधान नहीं होता. कहना मुश्किल है कि विश्वविद्यालयों में कब महिलाओं की संख्या संतुलित हो पाएगी. भारत में अभी इसे एक समस्या के तौर पर देखने की शुरुआत नहीं हुई है.
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पिछले दिनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी लड़कियों ने जब यौन उत्पीड़न की शिकायत की तो प्रशासन को समझ में ही नहीं आया कि ऐसे मामलों से कैसे निपटा जाए और नतीजा ये हुआ कि लड़कियों पर ही लाठीचार्ज कर दिया गया. अगर विश्वविद्यालय जेंडर सेंसेटिव हो जाएंगे, तो ऐसे मामलों की सुसंगत रिड्रेसल मेकेनिज्म विकसित हो सकती है.

बहरहाल, अब जबकि पहली बार इतने बड़े पैमाने पर विश्वविद्यालयों में यौन उत्पीड़न के मामले खुले हैं, तो मानना चाहिए कि कैंपस की सफाई की एक लंबी प्रक्रिया की शुरुआत होगी और विश्वविद्यालय लड़कियों के लिए एक लोकतांत्रिक स्पेस बन पाएंगे.

अभी जिस तरह से विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के नाम सेक्सुअल हैरेसर के रूप में सामने आ रहे हैं, उसमें हो सकता है कि कुछ निर्दोष लोग भी फंस जाएं. ऐसा इसलिए होगा कि जो लिस्ट बनाई जा रही है, उसमें साथ में सबूत नहीं दिया जा रहा है. हो सकता है कि ये आशंका सही साबित हो कि कुछ बेकसूर लोगों को फंसा दिया गया. ये मुमकिन है, लेकिन इसे पुरुषों के सैकड़ों सालों से किए गए उत्पीड़न का ऐतिहासिक प्रायश्चित मानना चाहिए. विश्विविद्यालयों की सफाई जरूरी है.

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(ये आर्टिकल गीता यादव ने लिखा है. लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं.इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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