अदम्य और अद्वितीय 'सैम बहादुर' दिवंगत फील्ड मार्शल एसएचजे मानेकशॉ (Sam Manekshaw) अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के लिए जाने जाते थे. वो उन लोगों के बारे में अपनी राय बिल्कुल ही नहीं छिपाते थे जो डिफेंस के बाहर के लोग थे. उन्होंने कहा था-"मैं सोचता हूं कि क्या हमारे राजनीतिक लीडर्स जिन्हें देश की रक्षा का प्रभारी बनाया जाता है, वो एक मोटर और मोर्टार, एक हॉवित्जर और एक बंदूक, एक गोरिल्ला (छापामार) और गुरिला (वनमानुष) में फर्क कर सकते हैं.
हालांकि, इस लार्जर दैन लाइफ पर्सनैलिटी वाले मानेकशॉ पूरी जिंदगी प्रोफेशनल रहे. उन्होंने गैर आर्मी और आर्मी नेतृत्व के बीच कामकाज को लेकर एक साफ लकीर खींची. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (PM Indira Gandhi) के सामने भी सैम ने अपने मन की बात स्पष्टता और निडरता से रखी थी. जब इंदिरा गांधी चाहती थीं कि सेना जल्दी से जल्दी ईस्ट पाकिस्तान (East Pakistan) में जाकर ऑपरेशन शुरू करे. लेकिन सैम ने बिना झिझके अपनी बात रखी और ना सिर्फ बांग्लादेश प्रोजेक्ट में कामयाबी हासिल हुई बल्कि जनरल का मान सम्मान भी बढ़ाया.
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मिलिटरी लीडर्स को बेझिझक सरकार को सही सलाह देनी चाहिए
इंडियन आर्मी में 'सैम बहादुर' से पहले और बाद में भी कई ऐसे दिग्गज हुए जैसे फील्ड मार्शल केएम करियप्पा, जनरल थिमय्या, हरबक्श, सैगत, इंदर, भगत, हनुत जिन्होंने सर्विस में रहते हुए सरकार के सामने बिना डरे अपनी बात की. इनकी वजह से ही इंडियन आर्मी एक शानदार संस्था बनी. इन दिग्गजों के कारण 'कारगिल' और दूसरे संघर्षों में आर्मी ने अपनी नई ऊंचाई हासिल की.
इन सभी दिग्गजों ने अपने अपने समय के सिस्टम से संघर्ष किया. इनमें से कुछ कामयाब हुए तो कुछ नाकाम भी. लेकिन इनमें से सभी ने संस्था को हमेशा तरजीह दी.
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लोकतंत्र में सिविल-मिलिटरी रिलेशनशिप एक सच्चाई है. जहां अक्सर सिविल लीडरशिप के 'गलत होने का अधिकार' है, को नहीं भूलना चाहिए. सैमुअल हंटिंगटन ने 'द सोल्जर एंड द स्टेट' में सुझाव दिया, "जब सैन्य व्यक्ति को अधिकृत वरिष्ठ से कानूनी आदेश प्राप्त होता है, तो वह संकोच नहीं करता, वह अपने विचारों को मानने के लिए जोर नहीं लगाता, वह तुरन्त आज्ञा मानता है ".
'वर्दी में रहने वाला आर्मी का शख्स एक भरोसे और विश्वास के साथ आदेश को मानता है क्योंकि वो ये मानता है कि जो आदेश उनको दिया गया है वो पूरी तरह से प्रोफेशनल इनपुट और राय पर आधारित है और शायद आर्मी के लीडर जैसे मॉनेकशा और हनूत होते तो ऐसा ही करते.
अग्निपथ स्कीम पर सवाल क्यों अच्छी बात है ?
टूर ऑफ ड्यूटी की हाल ही में घोषित नीति जिसे सैन्य शब्दों में अग्निवीर या अग्निपथ कहा जा रहा है , उसको लेकर मिलिटरी संस्था बंट सी गई है. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज ये विचारों का विभाजन ज्यादा पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रह में फंसा हुआ दिखता है. जो लोग इसके पक्ष में हैं, वो कहते हैं कि ‘इसको बनने दें, कम से कम कोशिश करके तो देखें और जो सर्विस करते हैं उनको ज्यादा मालूम होगा ‘ .. जबकि जो इस स्कीम के विरोध में है वो सीधे तौर पर इसके खिलाफ हैं और इसके अमल में आने को लेकर चिंतित हैं.
'रैंक्स' के भीतर राय –मशविरा में असहमति होने से ये जरूरी नहीं है कि वो गलत ही हो. क्योंकि सेना में तो ये बात शुरु से आम फहम है कि पेशेवर तरीके से नाराजगी जताना गलत नहीं है. क्योंकि अगर ऐसा होता है तो किसी युद्ध / संकट के समय में यही संस्था को बचाएगा. इसलिए, टूर ऑफ ड्यूटी जैसे मुद्दे से जो अलग अलग विचार पैदा हो रहे हैं उसको लेकर हायतौबा नहीं होना चाहिए.
लेकिन सच्चाई यह है कि टूर ऑफ ड्यूटी अब पूरी तरह से तैयार हो चुका है ! हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि संबंधित रैंकों और पदों पर बैठे लोगों ने इसकी औपचारिक घोषणा करने से पहले विचार-विमर्श किया होगा. और ऐसा निडर और पेशेवर रूप से किया गया होगा. टूर ऑफ ड्यूटी पर मेरी अपनी राय है, लेकिन यह अब स्पष्ट रूप से अप्रासंगिक है और अब 'आदेश' का सम्मान किया जाना चाहिए.
आर्मी अगर राजनीति करने लगे तो ये अच्छी बात नहीं
यह सच है कि कभी-कभी कुछ सैन्य नीतियां और आदेश जो सिविल प्रशासन की ओर से जारी किया जाता है कि वो नकारात्मक परिणामों के साथ समाप्त हो जाते हैं. कुछ मामले में इनमें संशोधन हो जाता है. स्वाभाविक रूप से सशस्त्र बलों को 'प्रयोग' के लिए खेल का मैदान नहीं होना चाहिए., इसलिए, आधुनिक प्रबंधन कहता है कि, 'यदि आपको असफल होना ही है, तो जितनी जल्दी हो जाए उतना ठीक रहता है’
इतिहास में कुछ गलतियां हुई हैं. जैसे एक बहुत पुराना उदाहरण है जब रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन ने आवास क्वार्टर बनवाने के लिए सेवारत सैनिकों को काम पर लगा दिया था. एक वरिष्ठ अधिकारी (जो बाद में 1962 के युद्ध में बदनाम हुआ था) ने इस काम को करना खुशी खुशी स्वीकार कर लिया था जबकि सामने से ये बहुत गंदा लगा रहा था. जब युद्ध नहीं चल रहा था तब उसकी तारीफ की गई उस काम को स्वीकार करने के लिए लेकिन जब वास्तव में उस अधिकारी को युद्ध की स्थिति का सामना करना पड़ा तो वो फिसड्डी साबित हुआ.
शुक्र है कि जल्द ही सबक सीख लिया गया. मिलिटरी चेतना के हिसाब से सिर्फ नेहरू-मेनन ही नहीं कमतर हुए,बल्कि जैसा कि जयराम रमेश की नवीनतम पुस्तक से पता चलता है – आर्मी के भी कई लोग हैं जिन्होंने मानेकशॉ, हरबख्श सिंहू या हनूत सिंह जैसा पेशेवर रुख नहीं अपनाया.
गलती सुधारने में कोई शर्म नहीं होना चाहिए
जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, नीति में कुछ बदलाव करने के लिए अभी भी समय है, क्योंकि विभिन्न अनुभवी पेशेवरों की सोची समझी राय की जरूरत है. इन परिवर्तनों से सिस्टम की चमक दमक कम नहीं होगी, बल्कि ये विनम्रता सेना के लिए जो सर्वोत्तम है, उसे सुनिश्चित करेगा.
द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसिद्ध अमेरिकी जनरल उमर ब्रैडली ने सैनिकों के कल्याण, संवैधानिक मूल्यों और रणनीतिक युद्ध सिद्धांत को अपने विचारों और आग्रहों में डालने की सैन्य नेतृत्व शैली को संस्थागत रूप दिया. अपनी पुस्तक ए सोल्जर स्टोरी की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा, " मैदान में युद्ध कैसे लड़ा जाता है.. फील्ड कमांड पोस्ट पर युद्ध की तैयारी कैसे होती है. यह कॉन्फ्रेंस मेज और युद्ध के दौरान खोदी जाने वाली खाई के बीच की कुछ बातें होती हैं.
मैदान में युद्ध जीतने के लिए जो रणनीति बनाई जाती है उसके लिए सबकुछ ध्यान में रखना होता है. वहां फील्ड कमांडर को नदियों, सड़कों और पहाड़ियों, बंदूकें, टैंक, वजन सबकुछ का हिसाब किताब लगाना होता है. - और सबसे महत्वपूर्ण रूप से अपने सैनिकों की जान को भी समझना होता है. कई सवाल जैसे , हम अपने महत्वपूर्ण निर्णयों तक कैसे पहुंचें? हम जहां गए वहां क्यों और कैसे गए? ये सवाल मुझसे सबसे अधिक बार पूछे गए हैं….’।
आर्मी के मामलों में गलतियों की गुंजाइश नहीं
सुरक्षा और सशस्त्र बलों से संबंधित मामलों पर निरंतर आत्मनिरीक्षण, सुधार वास्तव में बढ़िया कदम है. इसे किसी पक्षपातपूर्ण लेंस के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. सशस्त्र बल राष्ट्र की तलवार है जिसे धारदार, तेज और गतिशील बने रहना चाहिए. सेना राष्ट्रवाद के निर्माण का जरिया नहीं है.. देश में रोजगार के संकट को दूर करने के लिए भी ये कोई सही मंच नहीं है, क्योंकि ऐसा करने के लिए पर्याप्त सरकारी एजेंसियां हैं.
स्पष्ट रूप से, सुरक्षा के क्षेत्र में गलती होने की गुंजाइश बहुत कम है. यह सैन्य क्षेत्रों की फायरिंग-रेंज में अक्सर लिखा होता है, 'एक गोली, एक निशान' (एक गोली, एक लक्ष्य) और इसके लिए हमेशा वो लक्ष्य 'दुश्मन' होना चाहिए, न कि कोई दलगत और पक्षपातपूर्ण एजेंडा.
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