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चैनलों की तू-तू मैं-मैं में गुम हो जाती है इकोनॉमी की हर बहस

दर्शक बेवकूफ हो सकता है, पर उतना भी नहीं कि रोज रात को नेताओं की मुठभेड़ में आनंद ले.

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मैं पिछले 37 साल से इकोनॉमी पर टिप्पणी कर रहा हूं. चौबीस घंटों के न्यूज चैनलों के आने से पहले इकोनॉमी पर बहस अखबारों में लिखित रूप से, सभ्य अंदाज में होती थी. दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता था. पर अब ऐसा नहीं होता.

चैनलों की वजह से बेहद टेक्निकल विषयों पर भी नेता लोग, जिन्हें कुछ मालूम हो या नहीं अपनी राय देते फिरते हैं. इस से सबको नुकसान हो रहा है क्योंकि गंभीर बातें महज एक टी-20 बन कर रह जाती हैं. हाल में ही जीडीपी के सवाल को लेकर ऐसा ही हुआ.

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इसकी वजह यह है कि जब इकोनॉमी के आंकड़े- जीडीपी, महंगाई, ब्याज की दर वगैरह की बात होती है तो हर चैनल बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं को एक दूसरे से भिड़ाने में लग जाता है.

जीडीपी हो या एक्सचेंज रेट, मौद्रिक हो या राजकोषीय नीति, इनफ्लेशन हो या डिफ्लेशन, नेताओं की अज्ञानता से हर बार चकित रह जाता हूं. किसी भी चीज को किसी भी चीज के साथ जोड़ कर ये लोग 50 मिनट के प्रोग्राम में 35 मिनट खा जाते हैं तू-तू मैं-मैं में.

मुझे देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके कौशिक बासु का याद आती है. उन्होंने एक लेख में पूछा था कि क्या नेता लोग हवाई जहाजों और एटॉमिक रियेक्टरों के डिजाइन के बारे में भी कमेंट करना चाहेंगे. अगर नहीं, तो इकोनॉमी पर क्यों? आखिरकार इकोनॉमिक्स भी एक टेक्निकल विषय है. 99 फीसदी नेताओं को इकोनॉमिक्स का बिल्कुल ज्ञान नहीं. कुछ भी नहीं आता उन्हें सिवाय उल्टी-सीधी बात करने के.

इसलिए आरबीआई के गवर्नर लोग और बाकी सरकारी अफसर ज्यादा चुप ही रहते हैं. कौन मुंह लगाए इनसे. समझ में नहीं आता चैनल इन लोगों को क्यों बुलाते हैं. क्या वे ये नहीं जानते कि बाकी पैनलिस्ट को तो छोड़िये, इसमें दर्शकों की भी तौहीन है. जब मैंने एक एंकर से पूछा कि बाकी लोगों को फिर क्यों बुलाते हो, तो जवाब मिला कि दर्शकों को मजा आता है नेताओं को लड़ते देख. लेकिन

राज्यसभा टीवी ने साबित कर दिया है कि यह बात गलत है, दर्शक बेवकूफ हो सकता है, पर उतना भी नहीं कि रोज रात को नेताओं की मुठभेड़ में आनंद ले.
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दोनों हाथ की ताली

लेकिन गलती सिर्फ चैनलों की नहीं. राजनीतिक दलों की भी है. जो प्रवक्ता वाली प्रथा बनी है, पिछले कुछ सालों से उसमें चार नुक्स हैं.

पहला नुक्स यह है उनके पास जितनों की जरूरत है उतने प्रवक्ता नहीं हैं. और ये संभव भी नहीं क्योंकि अब चैनलों की तादाद बहुत ज्यादा हो गई है.

दूसरा नुक्स यह है कि जिन्हें प्रवक्ता बनाया जाता है उनमें मुश्किल से एक या दो को ज्ञान तो छोड़िये इकोनॉमी में दिलचस्पी होती है. इसीलिए इकोनॉमिक्स में अशिक्षित और मजबूर प्रवक्ता यह पसंद करते हैं कि तू-तू मैं-मैं हो जाए. इसलिए वे एक दूसरे पर बोलते रहते हैं ताकि किसी को कुछ समझ नहीं आए. यह बात पांच प्रवक्ताओं ने मुझे बताई है.

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तीसरी दिक्कत यह है कि पार्टी में जिन्हें इकोनॉमिक्स का ज्ञान हो वो साफ मना कर देता है टीवी पर जाने से. क्योंकि उन्हें एंकर पर भरोसा नहीं के वे उन्हें बोलने देंगे.

एंकरों का कहना है कि इकोनॉमिक्स एक बहुत बोरिंग विषय है और उस पर कोई ज्यादा लंबा बोले तो दर्शक चैनल बदल देंगे. और चौथा नुक्स यह है कि खुद एंकरों को इकोनॉमिक्स नहीं आती. और यह उम्मीद रखना कि गलत होगा कि उन्हें इकोनॉमिक्स आनी चाहिए. क्या हम यह यह उम्मीद रखते हैं कि उन्हें फिजिक्स, गणित, केमिस्ट्री, और इंजीनियरिंग भी आए.

ना रहेगा बांस....

तो फिर चैनलों और पार्टियों का क्या करना चाहिए? मेरे पास तीन सुझाव हैं.

पहला, यह कि जब इकोनॉमिक्स पर चर्चा हो तो चैनल नेताओं को ना बुलाएं, सिर्फ विशेषज्ञों को बुलाएं, यह कह कर कि सरल भाषा में सारी बात समझाएं. मैं समझता हूं कि इससे टीआरपी बढ़ेगी, घटेगी नहीं जैसा चैनलों को डर है.

दूसरा सुझाव पार्टियों के लिए है कि अगर भेजना ही है तो सिर्फ बजट के प्रोग्राम में प्रवक्ता भेजें-पूरी तैयारी के बाद. बाकी इकोनॉमिक इवेंट्स को वैसे ही ट्रीट करें जैसे पीएसएलवी के लांच को या कैंसर के नए इलाज को.

और तीसरा सुझाव दर्शकों के लिए. जैसे ही एंकर राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं की बक-बक शुरू होने देता है आप कार्टून चैनल पर चले जाएं.

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