अक्सर जब मुझे बुखार होता है तो मैं खुद जब तक थर्मोमीटर से जांच नहीं लेता, तब तक बढ़िया काम करता हूं. मगर जैसे ही मुझे अपने टेम्प्रेचर का पता चलता है तो मैं थका हुआ महसूस करने लगता हूं. सोने का मन करता है या ऐसा लगता है कि बिस्तर पर ढेर सारे तकिए लेकर बैठ जाऊं और गर्मागर्म चिकन सूप पीयूं.
ठीक ऐसा ही अप्रैल में देश के इंडस्ट्रियल आउटपुट के साथ हुआ है. हम सब जानते थे कि लॉकडाउन के बाद देश की फैक्ट्रियों में प्रोड्क्शन लगभग बंद हो गया. बावजूद इसके गिरावट के आंकड़े बेहद ही निराशाजनक हैं.
भारत की इंडस्ट्री के ढहने के पीछे का गणित
नंबर्स किसी भी चीज को बेहतर ढंग से दिखाते हैं. नंबर्स प्रोत्साहित करते हैं और अच्छा प्रभाव डालते हैं, लेकिन खराब नंबर ठीक इसका उलटा भी करते हैं.
यही कारण है कि मोदी सरकार के डेटा विभाग ने, सिर्फ फैक्ट्री आउटपुट के इंडेक्स नंबर्स - इंडस्ट्री प्रोडक्शन के इंडेक्स नंबर दिए हैं, लेकिन ये नहीं बताया कि कितने फीसदी का बदलाव आया है.
बेशक ये मिडिल स्कूल का साधारण सा गणित है, जिसे कैलकुलेट किया जा सकता है. मगर मोदी सरकार चाहती है कि कुछ काम आप खुद करें. असल में सरकार की प्रेस रिलीज भी आंकड़ों को साफ ढंग से नहीं बताती -कहती है ताजा आंकड़ों की तुलना बीते महीने के आंकड़ों से करना ठीक नहीं.
जाहिर है, कोई भी इस मशविरे को नहीं सुनेगा.
तो आइए आपको गणित बताते हैं: इस साल के अप्रैल महीने का इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन बीते साल अप्रैल के प्रोडक्शन से आधे से भी कम हो गया है. गिरावट की सबसे बड़ी वजह रही मैन्युफेक्चरिंग में तकरीबन 64 फीसदी की कमी.
खनन में 27 फीसदी की गिरावट है. लॉकडाउन के कारण फैक्ट्रियों और ऑफिसों के बंद होने से बिजली का उत्पादन भी 22 फीसदी तक घट गया.
अगर आप मई से अप्रैल तक 12 महीने की बात करें तो इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन बीते साल की तुलना में 5.6 फीसदी गिरा है. मैन्युफेक्चरिंग में 6.8 फीसदी, खनन में 1.1 फीसदी और बिजली उत्पादन में 1.5 फीसदी की कमी आई है.
जैसा कि मैंने पहले कहा था, यह सब तो होना ही था. इंडेक्स नंबर्स यही दिखाते हैं कि कुछ इंडस्ट्री पूरी तरह से बंद थीं. इसलिए सारे उत्पादन के आंकड़े नीचे की तरफ चले गए. चिंता की बात ये है कि यह डेटा पिछले वित्तीय वर्ष - अप्रैल 2019 से मार्च 2020 तक का है.
एक मौका चूक गए
लॉकडाउन के एक हफ्ते में इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन में 0.8 फीसदी और मैन्युफेक्चरिंग में 1.4 फीसदी की कमी आई. यानी अगर आप मार्च का डेटा निकाल दें तो ये नंबर्स बहुत ज्यादा अच्छे नहीं हैं. अप्रैल 2019 से फरवरी 2020 तक बीते 11 महीने में उससे पिछले साल की तुलना में इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन ग्रोथ सिर्फ 0.9 फीसदी की दर से बढ़ रही थी. 0.7 फीसदी की दर के साथ मैन्युफेक्चरिंग ग्रोथ का भी यही हाल था.
ये बेहद ही खराब नंबर हैं, जिनका COVID-19 के चलते हुए लॉकडाउन से कोई लेना-देना नहीं है. असल में चीजें और ज्यादा खराब हो जाती हैं, अगर आप 2019-20 में अप्रैल और जनवरी के मध्य के आंकड़े देखते हैं.
दरअसल, इंडस्ट्री की धीमी रफ्तार की वजह मोदी सरकार का देश की डिमांड की समस्या को ठीक न कर पाना है. यह एक मौका उन्हें इस साल के बजट में मिला था, लेकिन वे चूक गए. कोरोना वायरस से प्रभावित आर्थिक संकट के दौर में सरकार के पास मौका था कि वो इकनॉमी को रफ्तार देने के लिए ज्यादा खर्च करे. इस संकट में बड़ी रेटिंग एजेंसियां भी सरकार के इस कदम की आलोचना नहीं कर पातीं, लेकिन ये मौका भी हमने खो दिया.
सप्लाई समस्या को ठीक करने का हल ढूंढें
ये भी हो सकता है कि पीएम मोदी को इस बात का डर सता रहा हो कि अगर राजकोषीय घाटे को और बढ़ाया तो देश में मुद्रास्फीति बढ़ सकती है. मुद्रास्फीति बढ़ी तो महंगाई बढ़ेगी क्योंकि 2014 में मोदी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही उन्होंने दामों पर ज्यादा फोकस किया है, खासकर खाने की चीजों के दाम पर.
रोजमर्रा की कई चीजों के दामों में बढ़ोतरी होती है तो इससे एक बड़ा तबका प्रभावित होता है. अगर दाम स्थिर भी हो जाएं तो यह उन लोगों के जीवन पर भी असर डालता है जिन्हें रोज काम नहीं मिलता. प्याज की कीमतों ने तो जब आसमान छुआ तो लोकप्रिय सरकारें भी सत्ता से बाहर हो गईं.
इसके लिए मोदी सरकार की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने खाने की चीजों के दाम पर अंकुश लगाए रखा. 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले सर्दियों में तो मुद्रास्फीति की दर निगेटिव में चली गई थी. अब जो अचानक लॉकडाउन हुआ, उसकी वजह से सारे समीकरण बदल गए हैं.
मई में खाने की चीजों के दाम में 9.28 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. गांवों में तो महंगाई में बढ़ोतरी दहाई के अंक को पार कर गई. यह ऐसे समय हो रहा है, जब खेतों में लगी सब्जियों के सही दाम नहीं मिल रहे. किसान अपनी मेहनत का पैसा नहीं निकाल पा रहे हैं, जबकि ग्राहकों को चीजें खरीदने के लिए ज्यादा दाम चुकाने पड़ रहे हैं. यही आपूर्ति की जटिल समस्या है. जिसके आने वाले दिनों में ठीक होने की संभावना नहीं है.
तो समाधान कैसे निकलेगा
मोदी के पास संभवत: लॉकडाउन को अचानक से लगाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था, लेकिन ऐसा करने के बाद उन्हें प्रोडक्शन, सप्लाई और डिमांड की दिक्कतों से निपटने के लिए वॉर मोड में रहने की जरूरत थी.
मगर अब तक हमने सिर्फ बीमार अर्थव्यवस्था की मरहम-पट्टी की कोशिशें देखी हैं. तो फिर क्या करना चाहिए था? सरकार को उद्योग-धंधों की मदद करनी चाहिए थी, जिससे वो जीरो रेवेन्यू वाले माहौल में भी अपने कर्मचारियों को तनख्वाह दे सकें. इसके अलावा मिडिल क्लास के हाथ में भी ज्यादा पैसा देना चाहिए था ताकि वो खर्च करना बंद न करें.
ठीक यही काम अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया. जब सारे इकनॉमिस्ट कह रहे थे कि बेरोजगारी बढ़ेगी, तब इस नीति की बदौलत मई महीने में नई जॉब क्रिएट हुईं. इसके ठीक उलट भारत में एक अच्छा और सोचा समझा आर्थिक पैकेज देने के बजाय टीम मोदी ने सरकार की बेल्ट को और ज्यादा कसकर बांधने का फैसला किया.
अब तो यही उम्मीद है कि हम संकट से जल्द उबर जाएं. लॉकडाउन अब धीरे-धीरे खुल रहा है. ये सुनिश्चित करने के लिए कि इकनॉमी पक्के तौर पर ट्रैक पर आ जाए, हमें भी अच्छे हेल्थ और फाइनेंस प्लान की जरूरत है. अगर मोदी सरकार के पास ये प्लान है तो लगता है वो इसे सीक्रेट रखना चाहती है.
(लेखक एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी प्रॉफिट के सीनियर मैनेजिंग एडिटर रहे हैं. वह इन दिनों स्वतंत्र तौर पर यूट्यूब चैनल देसी डेमोक्रेसी चला रहे हैं. आप उनके ट्वीट यहां @AunindyoC फॉलो कर सकते हैं. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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