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किसानों के हालात सुधारने के लिए कर्जमाफी से आगे बढ़ने की जरूरत

किसानों के लिए खेती मुनाफे का धंधा है या नहीं, इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है. 1990 में इस पर जोरदार बहस हुई थी.

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कर्ज माफी पर देश एक बार फिर किसान आंदोलनों की आंच महसूस कर रहा है. इससे दो बातें जुड़ी हैं. पहली, क्या खेती को फायदेमंद बनाने के लिए कुछ किया जा रहा है? ग्रामीण अर्थव्यवस्था जहां खेती से जुड़ी है, वहीं शहरी इकोनॉमी का खेती से कोई लेना-देना नहीं है. यह बात महंगाई बढ़ाए बिना तेज आर्थिक विकास के लिहाज से मायने रखती है क्योंकि खाने के सामान और मजदूरी बढ़ने से मैक्रो-इकनॉमिक संतुलन बिगड़ सकता है.

दूसरी बात, कृषि क्षेत्र की फाइनेंसिंग से जुड़ी है. आदर्श स्थिति में इन दोनों को अलग-अलग हैंडल किया जाना चाहिए था. खेती को फायदेमंद बनाया जाना चाहिए था और उसकी फाइनेंसिंग का सिस्टम भी सही होना चाहिए था.

किसानों के लिए खेती मुनाफे का धंधा है या नहीं, इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है. 1990 में इस पर जोरदार बहस हुई थी. तब मैंने कहा था कि किसानों के लिए खेती फायदेमंद नहीं रह गई है और इसी वजह से एग्रीकल्चर प्रॉफिटेबिलिटी 14 पर्सेंट कम हो गई थी. लिहाजा, कृषि क्षेत्र में निवेश कम हुआ. मैंने इस ओर ध्यान दिलाया था. इस सदी के पहले दशक में किसानों के लिए खेती फायदेमंद हो गई थी.
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2012 तक खेती से होने वाली 18-20 फीसदी आमदनी फिर से उसमें लगाई जा रही थी. हालांकि, उसके बाद फिर किसानों के लिए खेती फायदेमंद नहीं रह गई. आज सड़कों पर किसानों का गुस्सा इसी वजह से दिख रहा है. बहुत कम लोग कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइसेज (CACP) की रिपोर्ट्स पढ़ते हैं.

इसमें इस बात का जिक्र होता है कि किसानों के लिए खेती फायदेमंद है या नहीं. इस जमीनी सच्चाई की अनदेखी करके बहुत कम समय में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया जा रहा है. आज किसी की दिलचस्पी आंकड़ों पर आधारित विश्लेषण में नहीं है.

देश में किसानों की हालत खराब

किसानों की आज क्या हालत है, इसे समझने के लिए बहुत सिर खपाने की जरूरत नहीं है. आप किसी गांव की चौपाल पर जाएं तो सिचुएशन तुरंत समझ में आ जाएगी. सरकारी आंकड़े कुछ भी कहें आप अपनी आंखों से देख सकते हैं कि किसान के लिए खेती फायदेमंद नहीं रह गई है. आज किसान भारी मुश्किल में हैं.

तो क्या किसानों को कर्ज नहीं चुकाने की छूट मिलनी चाहिए? नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे अगली बार उनके लिए बैंकों और वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेना मुश्किल हो जाएगा.

फिर किसान को गांव के महाजन से उधार लेना पड़ेगा, जो सालाना 200 फीसदी का ब्याज वसूलते हैं.

लेकिन जरा किसानों की भी सोचिए. उनके पास अपनी बदहाली को सत्ता के सामने लाने का कोई रास्ता नहीं होता, इसलिए वे अक्सर बॉलीवुड स्टाइल में विरोध प्रदर्शन करते हैं. वे प्याज और टमाटर की फसल सड़कों पर फेंक देते हैं और सब्जियों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करते हैं. यह बात किसानों को भी पता है कि गेहूं और औसत क्वॉलिटी के धान के अलावा किसी और फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा उन्हें नहीं मिलता है.

किसानों की बुरी हालत के लिए इस बार नोटबंदी भी जिम्मेदार है. पिछले साल नवंबर में 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोटों को अमान्य घोषित किए जाने के बाद आरबीआई ने को-ऑपरेटिव बैंकों को नोटों की अदलाबदली की इजाजत नहीं दी थी, जिससे कृषि क्षेत्र की फंडिंग प्रभावित हुई.

क्या हो रास्ता?

अभी ग्रामीण इलाकों की बैंकिंग सर्विस की कॉस्ट अधिक है. बैंकिंग क्षेत्र पर बनी चक्रवर्ती कमेटी ने करीब-करीब यह सुझाव दिया था कि ग्रामीण क्षेत्र में वित्तीय सेवाओं की वास्तविक लागत वसूली जानी चाहिए.

हालांकि, एक सामान्य किसान के लिए उसका बोझ उठाना संभव नहीं है. इसलिए सरकार को बैंकों को इसके लिए सब्सिडी देनी चाहिए. वहीं, बैंक के लिए कृषि क्षेत्र की खातिर दिए जाने वाला कर्ज रस्मअदायगी नहीं बल्कि बिजनेस है. यह सिर्फ प्रायरिटी लेंडिंग नहीं, बल्कि बैंक के लिए मुनाफा कमाने का जरिया भी है.

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सूखे या बाढ़ जैसी आपदाओं के चलते समय-समय पर किसान मुश्किल में फंसते रहेंगे. फसल बीमा योजना अभी शुरुआती अवस्था में है, जिसे भारतीय कृषि क्षेत्र के लिए रामबाण नुस्खा बताकर पेश किया गया था. हमारे देश में खेती जोखिम वाला काम है और उसे कवर करने के लिए प्रीमियम अधिक होगा.

सब्सिडी का रोल यहीं तक है. बाढ़ या आपदा से फसल को नुकसान होने पर किसानों को कर्ज चुकाने के लिए अधिक समय मिलना चाहिए. 1987 के सूखे के बाद हमने उधार चुकाने के लिए 6 साल का अतिरिक्त समय किसानों को दिया भी था. रास्ते कई हैं, लेकिन हमारे अंदर उन पर चलने का हौसला नहीं है. भारतीय राजनीति में वास्तविक समस्याओं का सामना करने का दम नहीं रहा. इसलिए जब गरीब किसान कर्ज माफी की मांग कर रहा है तो उस पर संजीदगी से विचार करना चाहिए.

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