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प्राइवेट सेक्‍टर के लिए सरकारी नौकरी के दरवाजे खोलना जरूरी क्‍यों?

मोदी अब निजी क्षेत्र से टैलेंट लाना चाहते हैं.

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मोदी सरकार ने सरकारी सेवाओं में ज्वाइंट सेक्रेटरी के स्तर पर निजी क्षेत्र के अधिकारियों की नियुक्ति यानी लेटरल एंट्री का प्रस्ताव रखा है. लेकिन यह कोई नया आइडिया नहीं है. यह कम से कम 40 साल पुराना प्रस्ताव है, जिसे आईएएस ने रोक रखा था और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक वह केंद्र सरकार में पॉलिसी लेवल की सारी नौकरियों को अपनी जागीर समझता आया था.

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मोदी ने सबसे पहले सभी सर्विसेज के लिए ज्वाइंट सेक्रेटरी लेवल की नियुक्तियों को खोला था. यह बात कम लोग जानते होंगे, लेकिन यह बहुत बड़ा बदलाव है.

आज ज्वाइंट सेक्रेटरी लेवल के 65 पर्सेंट पदों पर दूसरी सर्विसेज से आए नॉन-आईएएस बैठे हैं. यह लेटरल-एंट्री जैसा ही कदम है. सरकार को इसे बेहतर बनाने और इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है. उसके लिए ऐसा करना जरूरी हो गया था, क्योंकि 1970 और 1980 के दशक में आईएएस ने पदों पर कब्जा करना शुरू किया और 1990 के दशक के अंत तक उनका एक तरह से एकाधिकार हो गया था.

आईएएस ने इन पदों को अपने लिए रिजर्व कर लिया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि वे जनता के रखवाले हैं और उनसे अधिक नॉलेज और सूझ-बूझ किसी के पास नहीं है.

मोदी अब निजी क्षेत्र से टैलेंट लाना चाहते हैं. विपक्ष इसका यह कहकर विरोध कर रहा है कि यह आरएसएस से सहानुभूति रखने वालों को सरकार में लाने की चाल है. क्या इस आरोप में कोई सचाई है? निजी क्षेत्र के लिए सरकारी सेवाओं को खोलना क्यों जरूरी हो गया था, इसे समझने के लिए आईएएस और दूसरी आई सेवाओं के नेचर को समझना जरूरी है.

यह बात सच है कि आजादी के बाद गवर्नेंस की नई चुनौतियों का आईएएस ने बखूबी सामना किया, लेकिन काम की रफ्तार बहुत सुस्त रही और अक्सर उनमें एफिशिएंसी की भी कमी दिखी. कई मामलों में पुराना सिस्टम इसलिए नहीं चला, क्योंकि काम बहुत बढ़ गया था.

1971 में इंदिरा गांधी जब भारी बहुमत से सत्ता में आईं, तो अगले 10 साल में केंद्र सरकार का 100 गुना विस्तार हुआ. इंदिरा ने नीतियां बनाने, उन्हें मैनेज करने और उन पर अमल के लिए आईएएस पर भरोसा किया. इससे जिन अधिकारियों को सामाजिक, कानूनी, कमर्शियल और आर्थिक मामलों की बिल्कुल समझ नहीं थी, उनसे ऐसा काम करने को कहा गया, जिन्हें उसके बारे में कुछ पता नहीं था. अधिकारियों की नीयत में खोट नहीं थी, लेकिन वे डिस्ट्रिक्ट मैनेजमेंट अप्रोच के साथ काम करते थे यानी धीरे-धीरे और कम से कम काम. मकसद यह था कि हो-हल्ला न मचे.

मोदी अब निजी क्षेत्र से टैलेंट लाना चाहते हैं.
इंदिरा ने नीतियां बनाने, उन्हें मैनेज करने और उन पर अमल के लिए आईएएस पर भरोसा किया
(फोटो: द क्विंट)
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इसके साथ गवर्नेंस की चुनौतियां भी बढ़ रही थीं. बाबुओं को कई सवालों का जवाब नहीं सूझ रहा था. ऐसे में वे नीतियों को लेकर प्रक्रिया, तौर-तरीके और पहले क्या हुआ, इन चीजों के पीछे छिपने लगे. अरुण शौरी ने भी इसका जिक्र किया था कि कैसे इस अप्रोच की वजह से सिस्टम बेकार हो गया और मंत्रालयों में किसी गोदाम की तरह काम होने लगा.

राजीव गांधी ने 1986 में इस समस्या को सटीक तरीके से समझाया था. टाइम मैगजीन के इस सवाल पर कि एक पायलट और प्रधानमंत्री होने में क्या फर्क है, उन्होंने कहा कि जब एक पायलट आदेश देता है, तो हवाई जहाज उसका तुरंत पालन करता है, लेकिन प्रधानमंत्री को यह नहीं पता होता कि उसके निर्देशों का क्या हो रहा है.

कहने का मतलब यह है कि पिछले 70 साल से भारत सरकार को नौसिखिया लोग चला रहे हैं. यह केबिन क्रू के हवाई जहाज उड़ाने जैसा मामला है.

इंडियन पॉलिसी मैनेजमेंट सर्विस

पिछले कुछ सालों में सरकारी सेवाओं से जुड़े अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मैंने इस मसले पर बात की है. इसका नतीजा यह निकला कि देश को एक नई सर्विस की जरूरत है. मैं इसे इंडियन पॉलिसी मैनेजमेंट सर्विस कहना चाहूंगा. यह क्या करेगी,इसके बारे में मैं नीचे जानकारी दे रहा हूं.

हमें पॉलिसी मामलों में स्पेशलाइजेशन की जरूरत है. इस पर 50 साल से अधिक समय से बात हो रही है, लेकिन अमल आज तक नहीं हुआ है. अमल के तरीके पर सहमति नहीं बनने और आईएएस की ट्रेड यूनियन वाली अप्रोच इसके लिए दोषी है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक ऐसे सारे प्रस्ताव ब्लॉक कर दिए गए, क्योंकि आईएएस पोस्टिंग का ऑप्शंस हाथ से निकलने नहीं देना चाहता था.

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रिक्रूटमेंट और डिप्लॉयमेंट

पॉलिसी मैनेजमेंट सर्विस में आईएएस पूल से अधिकारियों की भर्ती होगी. जब वे पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लेंगे, तब उन्हें एक परीक्षा देनी होगी, जिससे उनके एप्टिट्यूड का पता लगाया जाएगा. इसमें किसी शख्स की पसंद को कोई वेटेज नहीं दिया जाएगा. परीक्षा में सफल होने वाले अधिकारियों की पोस्टिंग राज्यों की राजधानी में किसी डिपार्टमेंट में होगी या केंद्र सरकार के किसी मंत्रालय में. वे अगले 25 साल तक वहां काम करेंगे और इस दौरान समय-समय पर उनकी उस खास विषय यानी डोमेन में ट्रेनिंग होती रहेगी.

25 साल के बाद उन्हें फिर से जनरल पूल में भेजा जाएगा, जहां वे कैबिनेट सेक्रेटरी या उस स्तर के ऊंचे पदों के लिए मुकाबला करेंगे. जो आईएएस परीक्षा में फेल हो जाएंगे या उसमें शामिल नहीं होंगे, वे पहले की तरह एग्जिक्यूटिव कामकाज करते रहेंगे. इसमें दोनों ही तरह के आईएएस अधिकारियों का स्पेशलाइजेशन होगा.

पहले भी ऐसा हो चुका है...

जो ब्यूरोक्रेट किसी काम में यह कहकर अड़ंगा लगाते रहे हैं कि ऐसा पहले नहीं हुआ है, मैं उन्हें याद दिलाना चाहता हूं कि 1953 में जवाहरलाल नेहरू ने इंडस्ट्रियल मैनेजमेंट पूल नाम की सर्विस शुरू की थी. इसे बाद में आईसीएस/आईएएस लॉबी ने तबाह कर दिया, जो पब्लिक सेक्टर के सारे पद अपने पास रखना चाहता था. हाल यह था कि भेल और सेल के पूर्व चेयरमैन वी कृष्णमूर्ति जैसा ताकतवर शख्स भी पूरी तरह आईएसएस की इस जंजीर को तोड़ नहीं पाया.

यह बात याद रखनी चाहिए कि इन दोनों सरकारी कंपनियों का प्रदर्शन इसलिए अच्छा रहा है, क्योंकि उन्होंने आईएएस को दूर रखा. वहीं, अगर खराब प्रदर्शन करने वाली सरकारी कंपनियों को देखें, तो उनका कंट्रोल लंबे समय तक आईएएस के हाथों में रहा है. इस मामले में एयर इंडिया अच्छा उदाहरण है.
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अगर यह मान लें कि इंडियन पॉलिसी मैनेजमेंट सर्विस को बनाया जाता है, तो तुरंत क्या करना होगा और नई सर्विस के पूरी तरह कामकाज संभालने तक अगले 15 साल के दौरान क्या होगा? इसका जवाब बहुत आसान है. पहले राज्यों के अधिकारियों को डिप्टी सेक्रेटरी लेवल पर नियुक्त करना होगा. अभी के रोटेशन प्रिंसिपल को रोकना होगा और राज्यों के स्तर पर स्पेशलाइजेशन को लागू करना होगा. यह बात खास तौर पर महत्वपूर्ण है.

मान लीजिए कि कोई अधिकारी टेक्सटाइल मिनिस्ट्री को डिप्टी सेक्रेटरी के रूप में अपने कार्यकाल के 10वें साल में ज्वाइन करता है और वह 55 साल की उम्र तक वहां रहता है. अगर इतने के बाद भी वह इस विषय में महारत हासिल नहीं करता, तो उसे रिटायर हो जाना चाहिए. राज्यों के स्तर पर भी यही काम होना चाहिए.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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