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गुजरातःक्या जातीय अस्मिता के मकड़जाल में फंस रहा है BJP का कैंपेन?

जानिए- 2014 में करीब 60 % वोट पाने वाली बीजेपी विजयी टीम की तरह न खेलकर रक्षात्मक खेल क्यों खेल रही है? 

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गुजरात में चुनावी तापमान गर्म है और गांधीनगर में चुनावी रोमांच पूरे शबाब पर. सब तरफ से मोहरे चले जा रहे हैं. कांग्रेस के पास खोने को कम है लिहाजा वहां उत्साह ज्यादा है. बीजेपी के पास खोने को बहुत कुछ है लिहाजा चिंता की लकीरें भी है. राज्यसभा चुनाव के हाईवोल्टेज ड्रामे के बाद मतदान से पहले का रिहर्सल चल रहा है.

ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर कई राउंड की बातचीत के बाद बीजेपी में शामिल होने की बजाए कांग्रेस में शामिल हो गए. हार्दिक पटेल की कांग्रेस नेताओं से रात के 12 बजे हुई मुलाकात के सीसीटीवी फुटेज टीवी चैनलों के पास सुबह-सुबह पहुंच गए.

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हार्दिक पटेल के पाटीदार संगठन के नरेन्द्र पटेल बीजेपी में शामिल होने के कुछ ही घंटे बाद नोटों के बंडल के साथ बीजेपी पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगाकर पार्टी से बाहर आ गए तो पाटीदारों के आंदोलन में सक्रिय रहे निखिल सवानी भी बीजेपी पर पाटीदारों के हितों की अनदेखी का आरोप लगा पार्टी छोड़कर अलग हो गए. चुनावी प्रचार कोर्ट कचहरी और सूटकेस तक पहुंच चुका है. चुनावी प्रचार में चुनावी प्रबंधन असर दिखा रहा है, जो दिख रहा है वह आधा सच है जो नहीं दिख रहा वो पूरा सच.

क्यों है बीजेपी चिंतित?

चुनाव पर नजर रखने वाले विश्लेषकों की उलझन इस बात से बढ़ रही है कि 2014 में तकरीबन 60 प्रतिशत वोट पाने वाली सत्ताधारी बीजेपी विजयी टीम की तरह न खेलकर रक्षात्मक खेल क्यों खेल रही है? लगातार 22 सालों से सत्ता में बैठी बीजेपी नर्वस क्यों दिख रही है? क्या यह भी बीजेपी के चुनावी रणनीति का हिस्सा है या बीजेपी की घबराहट कोई संकेत है? एजेंडा बीजेपी नहीं स्थापित कर रही बल्कि ज्यादातर समय बीजेपी राहुल गांधी को जवाब देने में खर्च कर रही है आखिर क्यों है बीजेपी चिंतित?

जानिए- 2014 में करीब 60 % वोट पाने वाली बीजेपी विजयी टीम की तरह न खेलकर रक्षात्मक खेल क्यों खेल रही है? 
पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह
( फाइल फोटो:PTI)

पाटीदार कितने पटेगें ?

बीजेपी की पहली चिंता 15 प्रतिशत पाटीदार समुदाय है जो पिछले 20 सालों से चट्टान की तरह बीजेपी के पीछे खड़ा रहा है. यहां तक कि पटेलों ने 2012 के विधानसभा चुनाव में मोदी के लिए अपने नेता केशुभाई पटेल का साथ भी नहीं दिया. लेकिन पाटीदारों के आंदोलन के बाद हुए 2015 के निकाय चुनाव में गुस्साए पाटीदारों ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया और यही बीजेपी की चिंता है.

बीजेपी ने पाटीदारों को पाले में लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है. चाहे पाटीदारों के खिलाफ दर्ज किए गए मुकदमों को खत्म किए जाने का मसला हो या आरक्षण की मांग पर विचार के लिए आयोग बनाने का. मूंगफली को बाजार रेट से ज्यादा दर पर खरीदने का फैसला और बिना ब्याज के 3 लाख तक के कृषि ऋण देने जैसे लोक लुभावन फैसले लेकर बीजेपी पटेलों के घाव पर मरहम लगा रही है.

पाटीदारों के स्वाभिमान बहाली के लिए गुजरात बीजेपी के दो पटेल नेता नितिन पटेल और गुजरात बीजेपी अध्यक्ष जीतू भाई पहले ही गुजरात गौरव यात्रा निकाल चुके हैं बाकी बचा-खुचा काम हार्दिक पटेल के संगठन के प्रमुख पाटीदार नेताओं को बीजेपी की सदस्यता देकर पूरा किया जा रहा है. आर-पार की लड़ाई में रणनीति साफ है, या तो  हार्दिक पटेल को डिसकेड्रिट किया जाए या पाटीदारों के संगठन की कमर चटकाई जाए.

बीजेपी के लिए राहत की बात ये है कि हार्दिक पटेल का अभी चुनावी परीक्षा में पास होना बाकी है और बीजेपी चुनाव लड़ने में पीएचडी कर चुकी है. बीजेपी के बूथ मैनेजमेंट के सामने हार्दिक के राजनीतिक मैनेजमेंट की परीक्षा होनी है पर बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि आरक्षण किसी भी तरह चुनाव में मुद्दा बन पाए.

कांग्रेस के तीन इक्के और KHAM की चिंता

हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश कांग्रेस के तीन इक्के हैं. कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में मिलने वाले परंपरागत 39 फीसदी वोट में तीन जातियों का 50 फीसदी वोट अगर जुड़ जाए तो कांग्रेस की कहानी गुजरात में बन सकती है.

राज्य की जनसंख्या में ठाकोर, पटेल और दलितों की हिस्सेदारी 40 फीसदी की है. अकेले ठाकोर 20 से 22 फीसदी हैं. बीजेपी के मिशन 150 का बहुत कुछ दारोमदार ग्रैंड ओबीसी नैरेटिव पर टिका है. प्रधानमंत्री मोदी खुद तेली खांची समुदाय से आते है कोली समुदाय से आए कोविंद को बीजेपी ने राष्ट्रपति बनाया है. इधर अल्पेश कांग्रेस में शामिल हुए बीजेपी ने चुनावी प्रचार में हाफिज सईद को उतारा.

जानिए- 2014 में करीब 60 % वोट पाने वाली बीजेपी विजयी टीम की तरह न खेलकर रक्षात्मक खेल क्यों खेल रही है? 
अल्पेश, हार्दिक और जिग्नेश
टो: द क्व

गुजरात के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल की टिप्पणी बीजेपी की रणनीति और चिंता दोनों दिखलाती है. नितिन पटेल ने कहा, "राहुल गांधी के कार्यक्रम में किसी भी कांग्रेसी नेता ने पाटीदारों या अन्य जातियों के बारे में एक भी शब्द नहीं कहा, केवल खाम के बारे में बात करते रहे. कांग्रेस समाज को बांटकर सत्ता हासिल करना चाहती है खाम के कारण ही पहले गुजरात में शांति बिगड़ी थी और दंगे फसाद हुए थे. कांग्रेस चुनाव जीतने के लिए हाफिज सईद को भी शामिल करा सकती है."

आरक्षण के समर्थक पटेल और विरोधी OBC इकट्ठा कैसे वोट दे सकते हैं?

खाम का डर पटेलों को लामबंद करने के लिए किया गया और हाफिज सईद का जिक्र माहौल को गरमाकर कर बडे़ कथानक का हिस्सा बनाने के लिए. माधवसिंह सोलंकी के क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम यानि ‘खाम’ गठबंधन के कारण 1990 के दशक तक गुजरात में कांग्रेस राज करती रही. लेकिन उनके प्रभुत्व के विरोध में पाटीदारों के एकजुट होने से कांग्रेस का एकाधिकार टूटा और बीजेपी सत्ता तक पहुंची. बीजेपी को लगता है पटेल और ‘खाम’ एक साथ नहीं चल सकते. आरक्षण के समर्थक पटेल और विरोधी ओबीसी इकट्ठा कैसे वोट दे सकते हैं?

बीजेपी जरूर इस बात से भी राहत महसूस कर सकती है कि कांग्रेस के तीनों इक्के जातियों के नेता तो हैं लेकिन उनके चुनावी ट्रैक रिकॉर्ड की अभी परीक्षा होनी है और राजनीतिक परिपक्वता की भी. बीजेपी के लिए यह राहत की बात भी हो सकती है और खतरे की भी.

कैडर वोटर की उदासीनता मत प्रतिशत गिरा सकती है?

गुजरात देश का सबसे ज्यादा शहरी राज्य है और गुजरात की 62 शहरी सीटें बीजेपी का अभेद्द किला हैं. पर जीएसटी और नोटबंदी से सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था ने व्यापारी और शहरी गुजराती के व्यापार को मंदा किया है. गुजरात के मुख्यमंत्री रहने तक किसी भी गुजराती से धंधे की बात पूछने पर एक ही जबाब होता था मोदी भाई धंधा व्यापार समझते हैं. उनके रहते गुजराती व्यापारियों को कोई कष्ट नहीं होने वाला. पर नोटबंदी और जीएसटी ने बीजेपी के कट्टर व्यापारी समर्थक वर्ग को भी नाराज किया है.

राहुल गांधी का ‘गब्बर सिंह टैक्स’ व्यापारियों की पीड़ा को आवाज दे रहा है और बीजेपी का ये कैडर वोटर अगर कांग्रेस को वोट नहीं भी करे और उदासीन होकर घर बैठ जाए तो मतदान का गिरा प्रतिशत बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है लेकिन बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है मतदान आते-आते धंधे की चिंता पर गुजराती अस्मिता भारी पड़ जाएगी.

बीजेपी का मैं हूं गुजरात कैंपेन जातीय मकड़जाल में

मोदी ने मुख्यमंत्री रहते हुए साल 2002, 2007 और 2012 का विधानसभा चुनाव जाति बंधन को तोड़कर गुजराती अस्मिता के बड़े कैनवास पर लड़ा था. 2002 का चुनाव गुजराती हिन्दू सम्राट के उभार का चुनाव था तो 2007 का चुनाव गुजराती अस्मिता को बचाने और मौत के सौदागर के अपमान का बदला लेने का चुनाव था. विकास हर चुनाव का केन्द्रीय किरदार था लेकिन तड़का गुजराती अस्मिता का था .

जानिए- 2014 में करीब 60 % वोट पाने वाली बीजेपी विजयी टीम की तरह न खेलकर रक्षात्मक खेल क्यों खेल रही है? 
पीएम मोदी
(फोटो: पीटीआई)

साल 2012 का चुनाव मां सोनिया और बेटे राहुल गांधी की यूपीए सरकार के सौतेलेपन से बदला लेने और दिल्ली पर चढ़ाई का चुनाव था. 2017 का चुनाव गुजराती प्रधानमंत्री के किए विकासकार्य के अपमान से बदला लेने का चुनाव हो सकता है पर दिक्कत ये है कि गुजराती अस्मिता और विकास के बदला लेने की थीम में जीएसटी नोटबंदी और सुस्त विकास दर भी है और जातियों की उभार लेती क्षेत्रीय महत्वकांक्षा भी.

बीजेपी को मिशन 150 तक पहुंचने के लिए अपने प्रचार कैंपेन को जातीय अस्मिता से निकालकर ‘गुजराती अस्मिता’ पर ले जाना होगा. हर बड़ी फिल्म के हिट होने के लिए नायक से खलनायक का पिटना जरूरी है. बीजेपी को गुजरात के चुनावी पटकथा में फिर से हिट होने के लिए उसी खलनायक की जरूरत है.

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