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गुजरात स्टाइल सोच और बीजेपी नेतृत्व

गुजरात चुनाव में जब मन-माफिक नतीजे नहीं आए तो पार्टी नेतृत्व की समझ को लेकर सवाल उठने लगे.

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गुजरात के चुनावी भूकंप के तीन हफ्ते बाद भी इसके केंद्र अहमदाबाद में इस सवाल के झटके महसूस किए जा रहे हैं कि भविष्य की राजनीति को प्रभावित करने वाली इस घटना को क्या माना जाए?

  • क्या ये बीजेपी की लगातार छठी जीत थी, जिसने उसके अजेय होने की बात साबित हुई? ...ना
  • क्या मामूली सीटों के अंतर से मिली इस जीत से मोदी-शाह की जोड़ी के अपराजेय होने के दावे को लेकर मन में सवाल उठने लगे हैं? ...शायद
  • लेकिन क्या राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के हौसला बढ़ाने वाले इस परफॉर्मेंस से पार्टी के रिवाइवल का संकेत मिलता है? ...ऐसा कहना जल्दबाजी होगी
  • क्या हार्दिक, जिग्नेश, अल्पेश की तिकड़ी से जो उम्मीदें बंधी थीं, वह पूरी नहीं हुईं. ...जवाब हां या ना होगा
  • वित्त मंत्रालय छीने जाने के बाद क्या नितिन पटेल की बगावत से आपको हैरानी हुई? ...हां
  • क्या आपको इससे अधिक अचंभा तब हुआ, जब अमित शाह ने उन्हें 7 बजे सुबह फोन करके उनकी मांग माने जाने की इत्तला दी? ...हां भाई हां
  • क्या इससे भी अधिक हैरान आप तब हुए, जब नितिन पटेल ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि अमित शाह ने उन्हें मनाने के लिए फोन किया था? ...जी, बिल्कुल
  • और क्या उसके बाद पुरुषोत्तम सोलंकी की बगावत ने आपको चौंकाया था? ....नहीं
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और सवाल का सिरा यहीं छूट जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी से उनके सहयोगी और विरोधी दोनों अदब में रहते हैं. गुजरात चुनाव से पहले बीजेपी का एक नेता उनसे असहमत तक नहीं था, फिर बगावत की कौन सोचता. नतीजे आने के बाद नितिन पटेल ने विरोध किया और अपनी बात मनवा भी ली. यह अपने आप में अनोखी घटना थी.

क्या मायने रखता है? लीडर का स्टाइल या उसकी सोच?

इस घटना ने लीडरशिप को लेकर ऐसे द्वंद को हवा दी, जिससे मैं लंबे समय से जूझता आया हूं. यह सवाल है- क्या सचमुच लीडर का स्टाइल मायने रखता है? या सिर्फ उसकी सोच का प्रभाव पड़ता है? गुजरात पर लौटने से पहले इसे समझते हैं. जरा अलग-अलग स्टाइल वाले नेताओं के बारे सोचिए- बराक ओबामा, नरेंद्र मोदी, डॉनल्ड ट्रंप और अटल बिहारी वाजपेयी. अब इनमें रतन टाटा, रिचर्ड ब्रैनसन, सुंदर पिचाई और सिल्वियो बर्लुस्कोनी जैसे दिग्गज बिजनेस लीडर्स के नाम जोड़ दीजिए. ये सभी अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज हैं, लेकिन उनका स्टाइल एक दूसरे से बिल्कुल अलग है.

  • तो अच्छा लीडर कौन होता है, अंतमुर्खी (इंट्रोवर्ट) या बर्हिमुखी (एक्सट्रोवर्ट)?
  • क्या कम बोलने वाला लीडर ज्यादा असरदार होता है?
  • क्या आपको अपनी बात धीमी आवाज में कहनी चाहिए या जोर से?
  • क्या अच्छा लीडर वही बनता है, जिसके पास नेटवर्किंग स्किल है या अलग-थलग रहना पसंद करने वाले अच्छे लीडर होते हैं?
  • क्या आप आंखों में आंखें डालकर झूठ बोल सकते हैं या आपकी आंखें यह राज खोल देती हैं?
  • क्या आप दयालु या माफ करने वाले इंसान दिखते हैं या गंभीर मुद्रा वाले क्रूर शख्स?
  • क्या आपको टीम को काम करने की आजादी देनी चाहिए या सारी ताकत अपने हाथ में रखनी चाहिए?
  • क्या आप आम सहमति बनाने की कोशिश करते हैं या आप जो कहते हैं, वह पत्थर की लकीर मानी जानी चाहिए?
  • क्या आप जल्द सोकर जल्द उठने वाले हैं या लेट सोकर देर से उठने वाले?
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जब आप हर सफल लीडर के साथ इन चीजों को जोड़कर देखेंगे तो पता चलेगा कि इसका कोई पैटर्न नहीं है.

सफल लीडर बातूनी, इंट्रोवर्ट, झूठ बोलने वाला, टीम मेंबर्स पर भरोसा करने वाला, देर से बिस्तर छोड़ने वाला होने के बावजूद असरदार हो सकता है. इसी तरह, वह नेटवर्किंग करने वाला, कम बोलने वाला, चुपचाप अपनी बात टीम तक पहुंचाने वाला, सारी ताकत अपने हाथ में रखने वाला और जल्दी सोकर, तड़के उठने वाला भी हो सकता है.
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स्टाइल से अधिक अहमियत सोच की होती है

स्टाइल जो भी हो, कोई तब तक सफल लीडर नहीं बन सकता,

  • अगर वह अपनी टीम को प्रेरित ना कर सके. उसे टीम को अपनी सोच के साथ लेना होगा.
  • उसे उम्मीद बंधानी होगी, जिससे उसके पीछे चलने वाले लोग अच्छा महसूस करें.
  • उसे दूसरों का सम्मान और भरोसा हासिल करना होगा.
  • उसके प्रति एक डर भी होना चाहिए.

सफल लीडर को पता होता है कि उसे किस रास्ते पर चलना है. उसे अपने फैसले पर भरोसा होना चाहिए. यह अच्छा या कुछ बुरा भी हो सकता है.

कहने का मतलब यह है कि स्टाइल बाहरी चीज है और यह बहुत मायने नहीं रखती. सोच से कोई लीडर सफल या असफल होता है.

आप सोच रहे होंगे कि गुजरात चुनाव की बात करते-करते मैं लीडरशिप की बातें क्यों करने लगा? इसका गुजरात चुनाव से क्या लेना-देना है?

दरअसल, चुनाव प्रचार के दौरान सबका ध्यान बीजेपी के स्टाइल की तरफ था.

हालांकि, जब मन-माफिक नतीजे नहीं आए तो पार्टी नेतृत्व की समझ को लेकर सवाल उठने लगे. मोदी-शाह की ताकत को नितिन पटेल ने चुनौती दी, जबकि वह हद से हद राज्य स्तर के नेता हैं. चौंकाने वाली बात यह है कि मोदी-शाह को उनकी बात माननी पड़ी, जिसकी पहले कल्पना तक नहीं की जा सकती थी.

बीजेपी का बचाव करने वाले कहेंगे कि मोदी-शाह ने मुश्किल घड़ी में शांति की खातिर ऐसा किया. बड़े राजनीतिक संकट से बचने के लिए वे झुक गए. लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं.

बीजेपी लीडरशिप को विरोध बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है. दूसरे नेता उनकी लोकप्रियता से ईर्ष्या करते हैं और ना चाहकर भी उन्हें सम्मान देते हैं. एक जूनियर नेता की धमकी के आगे झुकना लीडरशिप की उनकी सोच से मेल नहीं खाता.

इतना ही नहीं, जूनियर नेता खुलेआम अपनी जीत का दावा भी कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि मोदी-शाह की जोड़ी का अचानक सहमति से काम करने पर भरोसा बढ़ गया है. उनकी लीडरशिप की जो शैली रही है, उसमें झुकने को टूटने जैसा ही माना जाता है. अमित शाह को बहुत से बहुत नितिन पटेल को फोन करके यह कहना चाहिए था कि अभी आप मान जाइए और सही समय आने पर हम आपकी ताकत बढ़ाएंगे.

जब आपको किसी तरह का विरोध बर्दाश्त ना हो, तब आप किसी विरोधी को शर्तें तय करने की इजाजत नहीं दे सकते क्योंकि ऐसा करने से आगे विरोध बढ़ने की आशंका बन जाती है.

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