दीप्ति (असली नाम नहीं) ने सोमवार सुबह जब अपनी बेटी को स्कूल जाने के लिए उठाया, तो उनकी 6 साल की बेटी ने साफ कह दिया, ''मम्मा मैं स्कूल नहीं जाऊंगी''. बार-बार समझाने के बाद स्कूल जाने के लिए तैयार तो हो गई, पर कहने लगी कि स्कूल जाऊंगी, लेकिन वहां वॉशरूम तो बिलकुल नहीं जाऊंगी.
बेटी के इस डर ने दिल्ली के वसुंधरा एन्क्लेव में रहने वाली दीप्ति को परेशान कर दिया. लेकिन वो अकेली नहीं हैं. देश के कई शहरों और खास तौर पर दिल्ली और गुरुग्राम में कई पेरेंट्स को बच्चों के इस डर और घबराहट ने बैचेन कर दिया है.
गुरुग्राम के रेयान स्कूल में एक छोटे बच्चे की हत्या ने देशभर में मां-बाप ही नहीं, छोटे बच्चों के कोमल मन को अंदर से झकझोर दिया है.
बच्चों के मन में डर समाया
गुरुग्राम के रेयान स्कूल में 6 साल के प्रद्युम्न की हत्या से कई बच्चों के मन में अलग अलग तरह की प्रतिक्रिया हुई है. जैसे एक मां ने बताया कि उनके बेटे की शिकायत है कि उसके दोस्त चिढ़ा रहे हैं कि तू रेयॉन स्कूल में पढ़ता है, वहां तो बच्चे को मार दिया गया. उन्होंने बताया कि तब से उनका बेटा अड़ा हुआ है कि वो स्कूल नहीं जाएगा, उसे वहां से निकलवा दिया जाए.
बच्चों को डर से निकालिए
बच्चों के डॉक्टर और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चों के मन में इस तरह के डर को निकालना मां-बाप और शिक्षकों की जिम्मेदारी है. एम्स में लंबे वक्त तक पीडियाट्रिशन विभाग में काम कर चुके जाने-माने डॉक्टर अव्यक्त अग्रवाल के मुताबिक, इस तरह की घटनाएं बच्चों के कोमल मन में अलग अलग तरह से डर बैठा देती हैं. कई बच्चे इसे बता देते हैं और कई चुपचाप मन में रख लेते हैं.
डॉक्टर अव्यक्त के मुताबिक, इसे मेडिकल की भाषा में पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रैस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) कहते हैं. यानी किसी बड़ी या बुरी घटना की वजह से मन में झटका. उनके मुताबिक मुमकिन है कि इस तरह का डर बच्चों के मन में लंबे वक्त तक हो सकता है.
डॉक्टर अव्यक्त के मुताबिक, ऐसे मामलों में शिक्षक और माता पिता की भूमिका बेहद अहम होती है. बच्चों के व्यवहार पर करीबी नजर रखें, इन लक्षणों पर ध्यान दें.
बच्चों के मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, बच्चों के मन से डर निकालना बेहद जरूरी है, वरना उनके व्यक्तित्व पर स्थायी बुरा असर पड़ने का खतरा भी रहता है.
डॉक्टर अव्यक्त के मुताबिक, फिलहाल बच्चों को सोशल मीडिया और टेलीविजन न्यूज से कुछ दिनों तक दूर रखें, ताकि उनके मन से डर और शक संदेह जैसी बातें निकालने में मदद मिले. इसके अलावा उनके सामने सामने मरने-मारने जैसी हिंसा की बातें न करें. इससे बच्चों के मन में नफरत भरने का खतरा रहता है और यह आगे बुरा असर डाल सकता है.
डॉक्टर अव्यक्त का कहना है कि ऐसी घटनाओं का सबसे बुरा असर यह होता है कि बच्चे हर किसी को शक की नजर से देखने लगते हैं. उनके सामने बार-बार यही बातें दोहराई जाएंगी, तो हर इंसान उन्हें खराब लगने लगेगा.
बच्चों के डिप्रेशन की हालत में क्या करें?
डॉक्टर अव्यक्त के मुताबिक, बच्चों को अवसाद या दुख-परेशानी से निकालने के लिए घर में माता-पिता और स्कूल में शिक्षकों को अहम भूमिका निभानी होगी. ये तरीके अपनाए जा सकते हैं.
वैसे तो शिक्षकों और पेरेंट्स को हमेशा ही बच्चों को वे बातें बतानी चाहिए, जैसा ऊपर बताया गया है. लेकिन जैसे बीमारी में दवा और टॉनिक का डोज बढ़ा दिया जाता है, उसी तरह अभी कुछ दिनों तक इसकी खुराक बढ़ा दें. ध्यान रखिए, बच्चों के व्यक्तित्व का निर्माण बड़ी जिम्मेदारी का काम है, इसे हल्के में न लें.
(अरुण पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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