जाने-माने अभिनेता बलराज साहनी, शैलेंद्र और आनंद बख्शी जैसे महान गीतकारों ने अपनी हिंदी रालवपिंडी के स्कूल और कॉलेज में सीखी. प्रतिभाशाली हिंदी लेखकों- कृष्णा सोबती, देवेंद्र सत्यार्थी, उपेंद्रनाथ अश्क और इनके जैसे कइयों ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से लेखन शुरू किया था.
हिंदी मौजूदा पाकिस्तान में 14 अगस्त, 1947 तक फलती-फूलती रही. दुखद है कि नए बने पाकिस्तान में हिंदी को दफन कर दिया गया.
हिंदी को हिंदुओं की भाषा ‘घोषित’ कर दिया गया. हिंदी प्रकाशन बंद कर दिए गए, स्कूलों और कॉलेजों में हिंदी पढ़ाने पर रोक लगा दी गई. वजह- इस भाषा को दुश्मनों की भाषा मान लिया गया. यह हिंदी के ताबूत में आखिरी कील थी.
14 अगस्त 1947 से पहले आज के पाकिस्तान में लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज, एफ.सी. कॉलेज, दयाल सिंह कॉलेज जैसे प्रतिष्ठित कॉलेजों में हिंदी पढ़ाई जाती थी और यहां बाकायदा हिंदी विभाग थे.
बंटवारे ने लाहौर में हिंदी के विस्तार के लिए काम करने वाली संस्थाओं पर ताले लटका दिए. इनमें लाहौर में हिंदी के झंडाबरदार रूप लाल के दफ्तर से चलने वाली हिंदी प्रचारिणी सभा भी शामिल थी. यह संस्था लाहौर, सरगोधा, रावलपिंडी और पश्चिम पंजाब (अब पाकिस्तान में) के दूसरे बड़े शहरों में स्कूलों-कॉलेजों में वाद-विवाद का आयोजन करती थी. यहां तक कि सिंध, बलूचिस्तान और अन्य इलाकों में भी हिंदी पढ़ाई जाती थी. कराची विश्वविद्यालय में हिंदी का समृद्ध विभाग था. हिंदू महिलाएं निरपवाद रूप से इसे या तो स्कूल-कॉलेज में या हिंदी प्रचारिणी सभा द्वारा चलाई जाने वाली कक्षाओं में सीखती थीं. पाकिस्तान बनते ही यह समाप्त हो गया.
लाहौर के तीन हिंदी अखबार
जाने-माने हिंदी कवि और सआदत हसन मंटो की रचनाओं पर गहरी पकड़ रखने वाले प्रो. नरेंद्र मोहन बताते हैं, “मेरे पिता श्री रूप लाल ने उस समय नारा चलाया था ‘हिंदी बनेगी, भारत की बिंदी.’ यह वह समय था जब हिंदी को पंजाब में बमुश्किल ही कोई सरकारी संरक्षण मिलता था, फिर भी दर्जनों लोग छात्रों को हिंदी पढ़ाने के काम में लगे थे. ”
उस समय लाहौर से तीन हिंदी अखबार निकलते थे- आर्य गजट, प्रकाश और अमर भारत. इन सभी की प्रसार संख्या भी अच्छी-खासी थी. कोई शक नहीं कि पाकिस्तान से आने वाले हिंदी लेखकों ने भाषा को नए आयाम दिए. उन्हें अपनी कहानियों, कविताओं और उपन्यासों में उर्दू व पंजाबी शब्दों के इस्तेमाल में कोई एतराज नहीं था. उदाहरण के लिए उन्होंने ‘किंतु-परंतु’ की जगह ‘अगर-मगर’ का इस्तेमाल किया.
भाषा ‘दुश्मन’ बन गई
पाकिस्तान में कठमुल्लों ने हिंदी को दुश्मन की भाषा कहना शुरू कर दिया. ऐसे में इसका वहां कोई भविष्य नहीं था. इसे मरना ही था. इससे भी बड़ी बात यह है कि अगर पाकिस्तान की भाषा नीति का अध्ययन करें, तो पाएंगे कि इसमें कई खामियां हैं. पाकिस्तान को 1947 में मुसलमानों के लिए बनाया गया था, लेकिन यह भाषा नीति की गंभीर त्रुटियों के चलते 1971 में ही दो हिस्सों में बंट गया. क्या आप यकीन कर पाएंगे कि पाकिस्तान के बंटवारे का बीज किसी और नहीं ने नहीं, बल्कि खुद मुहम्मद अली जिन्ना ने ही बोया था?
वह जिन्ना ही थे, जिन्होंने 21 मार्च 1948 को ढाका में ऐलान किया था, “उर्दू, और सिर्फ उर्दू ही” मुस्लिम राष्ट्र को साकार कर सकती है और यह आधिकारिक भाषा बनी रहेगी. यह पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के लोगों को मंजूर नहीं था. और जिन्ना के ऐलान के बाद उर्दू थोपने के खिलाफ कभी भी ना खत्म होने वाले प्रदर्शन पूर्वी पाकिस्तान की जिंदगी का हिस्सा बन गए. ढाका विश्वविद्यालय का परिसर बांग्ला-समर्थक प्रदर्शनों का गढ़ था.
21 फरवरी 1952 को वो हर रोज की तरह शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे. और फिर अचानक पाकिस्तान पुलिस ने उन नौजवानों पर गोली चलानी शुरू कर दी, जिसमें दर्जनों छात्र मारे गए. यही वो दिन था जब पूर्वी पाकिस्तान ने बाकी पाकिस्तान से रिश्ते तोड़ लेने का फैसला ले लिया. इन हालात में हिंदी के लिए अस्तित्व बचा पाना मुमकिन नहीं था.
हिंदी की वापसी
पाकिस्तानी हुक्मरान ने हिंदी को गहरे दफन कर देने की हर कोशिश की, लेकिन यह धीरे-धीरे और पूरी ताकत से पाकिस्तान में लौट रही है.
बॉलीवुड, सेटेलाइट टीवी चैनल और विदेशी धरती- खासकर खाड़ी देशों- पर भारतीयों व पाकिस्तानियों की बातचीत के जरिये आम पाकिस्तानी कई हिंदी शब्दों का खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल कर रहा है. ‘विवाद’, ’अटूट’, ‘चर्चा’, ‘पत्नी’, ‘आशीर्वाद’, ‘शांति’, ‘विश्वास’ शब्दों का प्रयोग पाकिस्तान धड़ल्ले से करते हैं.
वापस भारत के बंटवारे पर लौटते हैं. उर्दू को मुसलमानों की भाषा मान लिया गया ,जबकि हिंदी हिंदू समुदाय की भाषा बन गई. ‘एक अल्लाह, एक कुरआन, एक नस्ल, एक जुबान’ जैसे नारों के साथ भाषा का मुद्दा गहरा राजनीतिक रंग ले चुका था…लेकिन उर्दू को मुस्लिम पहचान के साथ जोड़ना, एक झूठा अभिमान भर था. आने वाले समय में यह भी एक मुद्दा बनने वाला था, जिस पर बाद में पूर्वी पाकिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना. तब उर्दू बोलने वाला पश्चिमी पाकिस्तान बांग्ला को भी सिंधी, बलोची, पंजाबी, पश्तो, हिंदी को अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की तरह देखता था.
यह रोचक तथ्य है कि बड़ी संख्या में ऐसे पाकिस्तानी जो भारतीय सभ्यता का अध्ययन करना चाहते हैं, इंटरनेट की मदद से हिंदी सीख रहे हैं. उनमें हिंदी सीखने की जबरदस्त ललक है. पाकिस्तानियों ने इस हकीकत को समझा कि पाकिस्तान में हिंदी को दफन करके उन्होंने खुद अपनी ही कब्र खोदी. इसमें कोई शक नहीं कि अगर आप कोई भी भाषा पढ़ने और सीखने से रोकते हैं, तो घाटे में रहेंगे.
दिल्ली में पाकिस्तान के राजदूत अब्दुल बासित ने एक बार इस लेखक से कहा था कि उनका देश हिंदी की अनदेखी नहीं कर सकता, क्योंकि यह उनके निकटतम पड़ोसी देश के बड़े हिस्से में बोली जाने भाषा है. ऐसे में जब जागे, तभी सवेरा. सिंध क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में सिंधी और पाकिस्तानी हिंदू हिंदी सीख रहे हैं. कराची, हैदराबाद सिंध के अन्य हिस्सों में हिंदुओं की खासी आबादी है. वो हिंदू धर्म की प्रमुख किताबें हिंदी में पढ़ने को उतावले हैं.
अगर चूंकि वहां लंबे अरसे से हिंदी पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं है, उनके पास तेजी से बुढ़ाते अपने बुजुर्गों से सीखने के सिवा कोई चारा नहीं है. इन बुजुर्गों ने बंटवारे से पहले के दौर में हिंदी सीखी थी.
आजकल दुबई में रह रहे सिंध में जन्मे एन.जी.ओ. कार्यकर्ता चंदर कोहली बताते हैं कि, “मैंने कराची में अपने बुजुर्गों से हिंदी सीखी थी. अब मैं युवाओं को हिंदी पढ़ाता हूं. सिंधी हमारी मातृभाषा है, फिर भी मैंने इसे अपनी प्राचीन धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने के लिए सीखा.” सारी बातों के अंत में सबसे दुखद बात यह है कि एक भाषा की सिर्फ इसलिए मौत हो गई, क्योंकि इसे एक धर्म के साथ जोड़ दिया गया.
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