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विचारों को हथियारों से दबाने का सिलसिला बहुत पुराना है

अक्सर इतिहासकारों की कलम सत्ता के इशारों पर चलती है

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इतिहास हमारी अस्मिताओं के निर्माण में अहम भूमिका अदा करता है. इस अस्मिता का निर्माण हमेशा किसी न किसी के विरोध में होता है, यानी एक ऐतिहासिक दुश्मन तैयार किया जाता है] ताकि अस्मिता और वर्चस्व का संघर्ष हमेशा कायम रहे. इसलिए इतिहास लेखन बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य रहा है.

अक्सर इतिहासकारों की कलम सत्ता के इशारों पर चलती है. सवाल उठता है कि कौन इतिहास लिख रहा है और किसका इतिहास लिख रहा है. उसके इतिहास में नायक कौन बनता है और कौन खलनायक. हालांकि बुद्धिजीवी वर्ग (जिसमे छात्र वर्ग भी आता है) शुरू से इतिहास को पैनी नजर से देखता आ रहा है.

लेकिन भारत की छात्र राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि इतिहास पर चर्चा और अवलोकन समाज का वो तबका कर रहा है जिसे अब तक हाशिये पर रखा गया, जिसे शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया और जिसका आर्थिक और सामजिक रूप से शोषण होता रहा.

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इतिहास पर सवाल का मतलब है देश के धर्म, संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा, भाषा, ऐतिहासिक घटनाक्रमों, विरसातों और सियासतों पर सवाल. एक तरफ सरकार सिर्फ हिन्दू इतिहास को देश के इतिहास के तौर पर पेश कर रही है, दूसरी तरफ इस देश में जाति-व्यवस्था के नाम पर सदियों से शोषित रहा तबका इतिहास को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है. दोनों लिहाज से यह इतिहास के पुनर्जागरण का दौर है. हाल ही में कई विश्वविद्यालयों में संपन्न हुए छात्र चुनाव इस दृष्टिकोण से बहुत ही अहम भूमिका रखते हैं.

पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ छात्र राजनीति में एक महत्वपूर्ण कैंपस रहा है. गत वर्षों में वहां फीस वृद्धि के खिलाफ छात्रों ने काफी आंदोलन किये और अब एक बदलाव आया है कि पहली बार कांग्रेस-बीजेपी-अकाली की परम्परागत राजनीति को नकार कर छात्रों ने नए संगठनों को चुना है. पंजाब यूनिवर्सिटी के 135 वर्षों के इतिहास में पहली बार एक महिला ने अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की है.

इसी तरह रेडिकल राजनीति का गढ़ माने जाने वाले हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्याथी परिषद ने पिछड़े वर्ग के छात्रों साथ गठबंधन करके जीत दर्ज की है और अध्यक्षीय पद पर एक महिला ने सफलता हासिल की है. जिन राज्यों की छात्र राजनीति में ये बदलाव नहीं आ रहा इसका मतलब वहां न तो मुख्यधारा की राजनीति बदल रही है और न ही वहां कोई सामजिक आन्दोलनों का इतिहास रहा है. मसलन राजस्थान, जहां छात्र चुनावों में अब तक भी सिर्फ व्यक्ति विशेष या पार्टी विशेष की राजनीति होती आ रही है.

“हमारे कपड़े छोटे नहीं तुम्हारी सोच छोटी है”

पिछले दो दशकों में देश की छात्र राजनीति एक वैचारिक उथल-पुथल से गुजर रही है. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ऐसा पहली बार हुआ है कि छात्र चुनावों में पिछड़े वर्ग के छात्र अब अपनी दमदार जीत हासिल कर रहे हैं.

पिछले साल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय कैंपस में छेड़छाड़ रोकने में नाकाम रहे प्रशासन के खिलाफ छेड़ी मुहिम में छात्राओं ने जो आंदोलन लड़ा, वो अपने आप में एक मिसाल बन गया. उससे और पीछे जाएं तो जब 2012 में दिल्ली में निर्भया मामले के लेकर जो विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने जो प्रदर्शन किया, तो उसमें लगे नारे समाज में में चली आ रही रूढ़िवादी परम्पराओं की धज्जियां उड़ाते हैं.

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“हमारे कपड़े छोटे नहीं, तुम्हारी सोच छोटी है” जैसे नारों ने पितृसत्तामक समाज को झकझोर कर रख दिया. छात्राओं के इस प्रतिरोध को सत्ता और राजनीति का विरोध झेलना पड़ा. समाज के ठेकेदारों को समस्या इससे थी लड़कियां कैसे खुलेआम इसका विरोध कर रही हैं.

अब उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों में ऐसा पहली बार हो रहा है की लड़कियां न केवल बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं, बल्कि चुनाव लड़कर छात्र राजनीति में एक "कैंपस क्लाइमेट" यानी कैंपस का माहौल बदलने में एक अहम भूमिका निभा रही हैं.

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अध्यक्षीय उम्मीदवार नेहा यादव कहती है, “हम किताबों को साथ लेकर चलने वाले नेता हैं....कैंपस का मौहाल तभी बदलेगा, जब आप एकेडमिक्स को प्राथमिकता देंगे.”

गुंडागर्दी, तोड़-फोड़, धन-बल की राजनीति का हिस्सा रहे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में राजनीति को देखने का ये एक नया दृष्टिकोण है. इलाहबाद विश्वविद्यालय में एक पिछड़े वर्ग के छात्र ने अध्यक्षीय पद पर जीत हासिल की. परिणाम आने के तुरंत बाद विरोधी गुटों ने उसके हॉस्टल का कमरा जलाया दिया गया. इसी तरह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन यू.) में चुनाव परिणामों के बाद बहुत छात्र गुटों में मारपीट हुई.

देश की वर्तमान छात्र राजनीति का बदलता नेतृत्व, छात्र चुनावी नतीजे और उसके दौरान हुई हिंसा इस बात का प्रतीक है कि इतिहास का पहिया घूम रहा है और जो लोग सबसे ऊपर हैं, उनका वर्चस्व खतरा में आ रहा है.

ऐसे दौर में विचारधाराएं कितनी प्रासंगिक हैं, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. इसे विस्तार से समझने के लिए बात करते हैं देश के जाने- माने कैंपस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की, जो अपनी वाम (लेफ्ट) राजनीति के लिए विश्व-विख्यात है और पिछले तीन साल से देश-दुनिया की खबरों में सबसे शीर्ष स्थान पर है और जिसे मीडिया और सोशल मीडिया ने "एंटी-नेशनल" यानी राष्ट्रद्रोही कहकर बदनाम करने का प्रयास किया.

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JNU छात्र आंदोलन और इसके सबक

अक्सर इतिहासकारों की कलम सत्ता के इशारों पर चलती है

जेएनयू की बात करते ही सबसे पहला शब्द ध्यान में आता है, वो है "डिस्कोर्स" यानी विमर्श. विमर्शों के बिना जेएनयू की कल्पना करना और यहां की राजनीति को समझना मुश्किल है. कहा जाता है कि अगर ये पता करना हो कि विश्व-राजनीति और विश्व दर्शन में क्या चल रहा है और इसका भारत के समाज और राजनीति पर क्या असर होगा, तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चाय ढाबा पर बैठ जाये या फिर यहां छात्र चुनाव की प्रेसिडेंसियल डिबेट सुन लीजिये.

सारे विश्वविद्यालयों से अलहदा जेएनयू अपनी ही धुन में मस्त है. कहने का मतलब ये नहीं है कि जेएनयू समाज से कोई अलग दुनिया है. लेकिन हां, इसकी अपनी अलग रीत और एक अलग ही राग है जो इस कैंपस से बाहर वाले लोगों के राग से मेल नहीं खाता.

इसमें चाहे राइट विंग हो या लेफ्ट, दोनों अपनी वैचारधारिक सीमाओं में रहकर इतिहास को देखते हैं. चूंकि मार्क्सवादी विचारधारा वर्ग पर आधारित है, तो दुनिया के कई देशों में इस सिद्धांत को आधार मानकर कई क्रांतिकारी आंदोलन भी हुए. इसलिए इस के प्रभाव में भारत के लेफ्ट के विमर्श में वर्ग और जेंडर तो बहुत ही प्रभावी तरीके से आया, लेकिन जाति पर उनका रवैया डावांडोल रहा. कैंपस की छात्र राजनीति इस पहलू को इंगित करती है.

1990 में जब मंडल कमीशन लागू हुआ तो जेएनयू में मुख्यधारा के लेफ्ट संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) में दो गुट बंट गए- एक जो मंडल के विरोध में खड़ा हुआ और दूसरा चुप रहा.

इसी चुप्पी ने 1991 में कांग्रेस के छात्र विंग नेशनल स्टूडेंट यूनियन आफ इंडिया (एनएसयूआई) को पहली बार कैंपस में जीता दिया. फिर जब 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ तो एसएफआई ने अपना मत रखने में जो आलसीपन दिखाया, उसे कैंपस में नरम हिंदुत्व की राजनीति (पॉलिटिक्स ऑफ सॉफ्ट हिंदुत्व) कहा गया और रेडिकल लेफ्ट जैसे ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आईसा) का आगमन सुनिश्चित हो गया. नब्बे का पूरा दौर सॉफ्ट लेफ्ट, हार्ड लेफ्ट, रेडिकल लेफ्ट, अल्ट्रा रेडिकल लेफ्ट की आपसी राजनीति में ऐसा उलझा की 21वीं शताब्दी की शुरुआत कैंपस में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की विजय पताका के साथ हुई.

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'जेएनयू लाल है, लाल रहेगा'

असली वैचारधारिक उथल-पुथल तब हुई जब 2006 में सरकार ने अर्जुन सिंह कमेटी की सिफारिशें लागू कीं, जिसमें पिछड़े वर्ग के लिए उच्च-शिक्षा में सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण दिया गया. (जिसे मंडल-2 भी कहा गया) इसके विरोध में एक नया संगठन शुरू हुआ जिसका नाम था, “यूथ फॉर इक्वेलिटी” (वाईएफई). इस संगठन ने पहले ही साल छात्र चुनाव लड़ा और सब लेफ्ट -राइट को पछाड़ते हुए दूसरे नंबर की पार्टी बना और सेंट्रल पैनल की सारी सीटों पर मात्र पचास-साठ वोटों से हार गया.

अक्सर इतिहासकारों की कलम सत्ता के इशारों पर चलती है

“जेएनयू लाल है, लाल रहेगा” का नारा देने वाले लेफ्ट ने कभी ये अवलोकन नहीं किया कि आरक्षण के विरोध में खड़े हुए एक शिशु संगठन को चार दशक पुराने लेफ्ट के गढ़ में हजारों वोट कैसे मिले. बहरहाल, वाईएफई जिस धुआंधार गति से आया था, विश्वविद्यालयों में ओबीसी आरक्षण लागू होते ही उसी गति से विलुप्त भी हो गया. लेकिन लेफ्ट और राइट के लिए वैचारिक और व्यावहारिक प्रासंगिकता का सबक छोड़ गया. लगभग उसी दौरान देश में “राइट टू इन्फ्रोमेशन एक्ट” आ चुका था जिससे पहली बार दलित और छात्र संगठन देश के शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण की स्थिति जान पाए और जिसमें जेएनयू जैसा विश्वविद्यालय आरक्षण लागू करने में तब तक बहुत पीछे था.

इस जानकारी ने लेफ्ट राजनीति के सामाजिक न्याय की पोल खोल कर रख दी. ये ओबीसी और अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों के लिए एक बड़ा सबक था. ओबीसी छात्रों का एक तबका जो लेफ्ट पार्टियों के साथ जुड़ा था, धीरे-धीरे लेफ्ट से दूरी बनाने लगा.

मंडल-2 के बाद दलित और ओबीसी छात्र राजनीति में एक आक्रामक परिवर्तन आया. 2007 के छात्र चुनाव में बहुजन स्टूडेंट यूनियन की तरफ से अध्यक्ष पद के उम्मीदवार ने प्रेसिडेंसियल डिबेट के दौरान अपने भाषण में हिन्दू भगवान राम के मर्यादा पुरुषोत्तम होने पर सवाल उठा दिया और उन्हें पितृसत्ता और जातिवाद का पोषक कह दिया. देखते ही देखते भाषणबाजी मुक्केबाजी और तोड़फोड़ में बदल गई और कई दिन बवाल चला. ऐसा कैंपस के इतिहास में पहली बार हुआ था.

उसी दौरान उस्मानिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कांचा इलैया अपनी “दलित-बहुजन” की अवधारणा लेकर आये. जिसने दलित- छात्रों को सैद्धांतिक रूप से एक प्लेटफार्म पर आने के लिए प्रेरित किया. इस दौर में 2010 में “आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम” (एआईबीएसएफ) का गठन हुआ जिसने पहली बार कैंपस में मनुस्मृति का दहन किया. उन्ही दिनों पूर्वोत्तर से पढ़ने आये नगा छात्रों ने मांग रखी कि जब कैंपस एक सेक्युलर स्पेस है, तो उन्हें उनका सांस्कृतिक खाना, जिसमें पोर्क और बीफ आता है, हॉस्टल मेस में मिलना चाहिए.

आखिर उन्हें “दाल-भात रोटी” खाने पर क्यों मजबूर किया जाता है. इसे लेकर नगा स्टूडेंट्स यूनियन ने एक “कमेटी फॉर द डेमोक्रेटिक राइट टू फूड” बनाया और अपनी मांग प्रशासन के सामने रखी. इसे लेकर देश के अकादमिक जगत में काफी बहस हुई और उस्मानिया यूनिवर्सिटी, इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्‍वेज यूनिवर्सिटी, हैदराबाद यूनिवर्सिटी, टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई से लेकर जेएनयू तक “फूड फेस्टिवल” मनाने का दौर चला जिसका विरोध हिंसा से हुआ.
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कैंपस में दुर्गा पूजा का विरोध करने के लिए एआईबीएसएफ ने महिषासुर का एक यशस्वी राजा के तौर पर पूजन किया. उन दिनों एआईबीएसएफ के एक कार्यकर्ता का साक्षात्कार लेते वक्‍त मैंने इस विरोध का कारण पूछा, तो उसने बताया:

लोग दुर्गा पूजा मनाते हैं क्योकि दुर्गा ने महिषासुर का धोखे से वध किया था, लेकिन हमारा मानना है किसी भी सभ्य और लोकतान्त्रिक समाज में हत्याओं का जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए.

यहां इतिहास का सिर्फ मंथन नहीं बल्कि उस इतिहासिक दृष्टिकोण को चुनौती है जिसमें एक तबके को नकारात्मक, बुरा, खलनायक, राक्षस, चांडाल, जंगली के तौर पर पेश किया गया है. जिसे हमारी दन्त-कथाओं से लेकर दादी-मां की कहानियों का हिस्सा बनाया गया था.

विचारधारा समाज की संस्कृति में कुछ चिह्नों और कुछ प्रतीकों के रूप में समाहित होती है. राम को भगवान न मानना, सरस्वती को विद्या की देवी न मानना, महिषासुर, रावण, हिडिम्बा और घटोत्कच को पूजना - ऐसे वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य लोगों की “कॉमन सेंस" को झकझोरते है. इसी दौर में एक संगठन बापसा (बिरसा, अंबेडकर, फुले स्टूडेंट एसोसिएशन) का गठन हुआ जिसने दलित और ओबीसी छात्र राजनीति में एक नयी बिसात बिछायी. फिर एक बार अस्मिताओं की राजनीति की दौर शुरू हुआ.

विचारधारात्मक निर्माण भाषायी सरंचना की तरह काम करता है जो समाज को उसकी ऐतिहासिक परिस्थितियों (टाइम एंड स्पेस) के हिसाब से समझता है. दलित-बहुजन छात्रों का यह विमर्श इतिहास की उन गैर-बराबरी और शोषण के खिलाफ हुई सारी बगावतों से निकालता है, जिसमें कबीर, नानक, रैदास, चोखा-मेला, संत-गाडगे, बिरसा मुंडा, झलकारी बाई, बाबू जगदेव कुशवाहा, कोमराम भीम, नारायणा गुरु, शाहूजी महाराज, फूले और पेरियार की समतावादी विचारधारा शामिल है. ओमप्रकश वाल्मीकि की “जूठन” और तुलसी राम की “मुर्दहिया” की पीड़ा इन छात्रों के नारों की गूंज में झलकती है.

उनके विमर्श सिर्फ किताबों से नहीं बल्कि खेतों-खलिहानों में खून-पसीना एक करते किसानों, फैक्ट्रियों में काम करती और सड़क पर पत्थर तोड़ती औरतों, सीवर और मैनहोल में नंगे-हाथों और पैरों से समाज की गंदगी साफ करते मजदूरों के जीवट से निकलते है. ये प्रचलित, प्रबल संस्कृति को पुनर्निर्धारित करने का प्रयास है.

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इसका विरोध हिंसा से हो, क्योंकि जो लोग इस प्रचलित विमर्श में सबसे ऊपर हैं उनके लिए ये अस्मिता, सम्मान और वर्चस्व का मुद्दा है. और जो लोग अब तक हाशिये पर रहे, उनके लिए प्रतिरोध का.
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नई विचारधाराओं की राजनीति

नब्बे के दशक में आये वैश्वीकरण के परिणाम आज देखने को मिल रहे है. बाजारीकरण के इस दौर में शिक्षा एक ऐसा महंगा “प्रोडक्ट” हो गई है जो आम आदमी की पहुंच से बहुत दूर है. छात्र सक्रियता के लिए जो माहौल चाहिए वो सिर्फ सरकारी संस्थानों में ही संभव है. निजी संस्थान में तो आजादी की अभिव्यक्ति के लिए न तो कोई माहौल है, न ही कोई स्पेस. ये छात्र आंदोलन के लिए बहुत ही मुश्किल दौर है.

सूचनाओं से लबालब भरा इंटरनेट का दौर छात्रों को पढ़ने-लिखने की परंपरा से दूर एक ऐसे "वर्चुअल वर्ल्ड" का हिस्सा बना रहा है जहां वे ने तो वैचारधारिक सिद्धांतों की मौलिक किताबों से रू-ब-रू हो पाते हैं और न ही उनकी पेचीदगियां समझ पाते हैं. सारा ज्ञान सोशल मीडिया में “पोस्ट्स" या “कमेंट्स" के जरिये ही परोसा जा रहा है और नए-नए फेसबुकिया आंदोलन चलाये जा रहे है. सामजिक आंदोलनों के साहित्य में इस "क्लिकिटिविज्‍म" कहा जाता है.

सवाल ये खड़ा होता है कि सोशल मीडिया पर चलाये जा रहे ऐसे आंदोलनों का भविष्य क्या है और ये किस विचारधारा से प्रेरित होते हैं. जैसे अरब के कुछ देशों में जनक्रांति आई (जिसे अरब स्प्रिंग कहा गया) लेकिन वो महज एक सत्ता परिवर्तन बनकर रह गया. जब तक कोई क्रांति समाज में ढांचागत बदलाव नहीं लाती तो उसका होना निरर्थक है.

आज क्या कारण है कि सोशल मीडिया इतना प्रभावशाली हो गया है कि एक खबर आग की तरह ऐसे फैलती है कि लोगों का पूरा नजरिया बदल देती है. देश और धर्म के नाम पर कुछ तस्वीरें दिखाकर कैसे जनमत बदल दिया जाता है और वर्चुअल हिंसा और शारीरिक हिंसा प्रबल हो जाती है.

स्वामी विवेकानंद से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक सबने समाज और हिन्दू धर्म को अपने अनुसार समझा, जाना और अपनाया. स्वामी दयाननद, राजा राम मोहन राय, मोहनदास करमचंद गांधी जैसे विचारकों ने भी हिन्दू धर्म में सुधार की बात की. डॉ. अंबेडकर को जब गांधी और कांग्रेस के रवैये से सुधार की कोई उम्मीद नहीं रही, तो उन्होंने हिन्दू धर्म का बहिष्कार करते हुए बौद्ध धर्म अपनाया. लेकिन इन सब समाज सुधारकों ने भी कभी हिंसा की पैरवी नहीं की. गांधी और अंबेडकर अंत तक एक दूसरे के विरोधी रहे, लेकिन इस राजनीतिक विरोध को कभी व्यक्तिगत ईर्ष्या में बदलने नहीं दिया.

यही कारण है कि आज गांधी के व्यक्तित्व को समझने के लिए अंबेडकर को जानना बहुत जरूरी है. ये सब एक दूसरे के व्यक्तित्वों और विचारों से प्रभावित होते रहे, जिससे इनके विचारों में कभी जड़ता नहीं आई. हिंसा विचारों की जड़ता का प्रतीक हैं, जो मनुष्य या संस्था को ऐसी एक ऐसी स्थिति में ले जाता है, जहां उसे हर कोई एक दुश्मन नजर आने लगता है. ब्रिटेन के एक कल्चरल चिंतक स्टुअर्ट हॉल कहते है हैं की असल में “विचारधाराएं मूलत: आलोचनात्मक रवैया नहीं रखती बल्कि विश्व या समाज को समझने-परखने के कई रास्ते दिखाती है.”

वे मानते हैं कि किसी भी वैचारधारिक दावे की वैधता सच्चाई के एक छोटे से पहलू से ताल्लुक रखती है लेकिन उसी पहलू को पूरा सच मान लिया जाता है जैसे ये दावा करना कि “कम्युनिस्ट देश को तोड़ने में लगे हैं”, “पूंजीवाद या फासीवाद ही सारी समस्याओं की जड़ है”, “जाति के नाम पर सिर्फ राजनीति हो रही है”, "आरक्षण से देश बर्बाद हो रहा है”- ऐसी बातें “कॉमन सेंस” कहकर स्थापित कर दी जातीं हैं ताकि जनता की सांस्कृतिक समझ को भुनाया जाता है. सब लोग सच का बस एक हिस्सा जानते है.

आज भी बंगाल के सिंगुर और नंदीग्राम पर लेफ्ट पार्टियां अपना सच लिए घूम रही है, ठीक वैसे जैसे सिख-दंगो पर कांग्रेस और गोधरा पर बीजेपी. इतिहास गवाह रहा है कि शासक वर्ग की समाज में चल रहे छुआछूत, जातीय शोषण और जातीय क्रूरता को लगातार नजरअंदाज करने की प्रवृति रही है.

ये भी संभव है के ऐसे इतिहास को एक षड्यंत्र मानकर नकार दिया जाए जैसे भारत के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की एक तबका तो ये मानता है कि जाति कभी हिन्दू धर्म का अंग रही ही नहीं. जैसे हाल ही में दलित शब्द के प्रयोग पर ही आपत्ति जताई जा रही थी. ठीक ऐसे जैसे आजकल एक तबका मानता है कि जर्मनी में “होलोकॉस्ट” जैसी कोई घटना कभी हुई ही नहीं. प्रसिद्द समाजशास्त्री सी. राइट मिल्स इसे शासक वर्ग की “पॉलिटिक्स ऑफ ऑर्गनाइज्‍ड इर्रिस्‍पॉन्‍सिबिलिटी” (आयोजित गैर-जिम्मेदारी की राजनीति) बताते हैं.

ऐसी पॉलिटिक्स चुनावी जोड़-तोड़, सत्ता की भूख और अपने अहम की पूर्ति के लिए उपयुक्त है. इसमें उलझे छात्र कभी देश, कभी धर्म, कभी वर्ग, मार्क्स, गाँधी, अम्बेडकर, विवेकानंद की विचारधराओं को लेकर कितने राग अलापते है. पर असल में विचारधारा तो उनसे कहीं बहुत पीछे छूट चुकी है.

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विचारों को दबाना ऐतिहासिक है

विचारों को हथियारों से दबाने का सिलसिला बहुत ऐतिहासिक है. जब-जब इतिहास की समीक्षा होती है तो बहुतों के वर्चस्व को खतरा हो जाता है. उससे भी बड़ा खतरा तब होता है सदियों से हाशिये पर रह रहे लोग इतिहास पर सवाल उठाने लगते हैं. वर्तमान छात्र आंदोलन वैचारधारिक उथल-पुथल और अस्मिताओं के खतरों के दौर से गुजर रही हैं. ये दौर “अस्मिताओं के प्रतिरोध का दौर” है. महिलाओं, दलितों और सामजिक रूप से पिछड़े छात्रों का कैंपस राजनीति में भागीदारी और नेतृत्व एक शैक्षिक माहौल में गुणात्मक परिवर्तन की ओर इंगित करता है. छात्र चुनावों के नतीजों के बाद हुई हिंसा इस बात का प्रमाण है कि शैक्षिक संस्थानों और राजनीति में स्थापित पारम्परिक जातिगत आधिपत्य टूट रहा है.

छात्र राजनीति में “छात्र” बहुत ही सृजनात्मक शब्द है. छात्र राजनीति में आलोचना, प्रतिक्रिया और विरोध का दायरा शैक्षिक होता है. यहां एक तर्क को दूसरे तर्क से, विचारों को विचारों से, शोध से, सूचनाओं से, आंकड़ों से उत्तर दिया जाता है. यही अद्वितीय पहलू विश्वविद्यालयों को अन्य सामाजिक संस्थाओं से अलग करता है. छात्र राजनीति के भविष्य, विश्वविद्यालय और लोकतंत्र के अस्तित्व, और नए विमर्शों के सृजन के लिए इस पहलू का जिंदा रहना अति अनिवार्य है.

(गौरव जे. पठानिया जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में पीएचडी हैं. वे वर्तमान में अमेरिका की जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं और यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट में विजिटिंग स्कॉलर हैं. हाल में ही उनकी पहली पुस्तक “द यूनिवर्सिटी ऐज ए साइट ऑफ रेसिस्टेंस: आइडेंटिटी एन्ड स्टूडेंट पॉलिटिक्स” ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुई है, जो वर्तमान छात्र राजनीति और पृथक-तेलंगाना छात्र आंदोलन पर विस्तार से चर्चा करती है.)

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