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महाराष्ट्र: मतपत्रों से लोकल चुनाव का प्रस्ताव कितना संवैधानिक?  

सुप्रीम कोर्ट ने यह खासतौर से दोहराया था कि असल मुद्दा यह नहीं कि ईवीएम को ‘हैक’ किया जा सकता है,

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पूर्व महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष नाना पटोले के बयान के बाद यह सवाल फिर से आ खड़ा हुआ है कि चुनावों में ईवीएम प्रणाली कितनी पारदर्शी है. हाल ही में उन्होंने यह विधायी प्रस्ताव रखा था कि राज्य में स्थानीय निकायों और विधानसभा चुनावों के दौरान वोटर्स को वोट देने के लिए ईवीएम के साथ-साथ बैलेट पेपर का विकल्प भी दिया जाए.

इस विधायी प्रस्ताव के दो पहलू हैं. पहला, क्या यह प्रस्ताव संवैधानिक है. दूसरा, इस पेशकश का क्या मकसद है और क्या वह मकसद पूरा होगा.

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किसी कानून का फौरी मकसद हो सकता है जोकि उसके राजनैतिक संदर्भों से जुड़ा होता है. अहम सवाल यह है कि क्या यह पेशकश तात्कालिक जरूरतों से परे जाकर एक व्यापक संवैधानिक उद्देश्य को भी पूरा करेगी.

क्या है व्यापक संवैधानिक उद्देश्य

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था. इसमें एक व्यापक संवैधानिक उद्देश्य की बात कही गई थी जिसे ईवीएम चुनाव कानून के जरिए हासिल किया जाना था. फैसले में वीवीपैट प्रणाली को शुरू करने की बात कही गई थी, लेकिन कहा गया था कि “निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों के लिए पेपर ट्रेल बहुत जरूरी है.

ईवीएम पर वोटर्स को तभी भरोसा हो सकता है जब उसे पेपर ट्रेल के साथ शुरू किया जाए. तो, चुनाव प्रणाली में पारदर्शिता लाने और मतदाताओं का भरोसा बरकरार रखने के लिए यह जरूरी है कि ईवीएम के साथ वीवीपैट को जोड़ा जाए. आखिर जनता का मत, अभिव्यक्ति का ही एक रूप है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुत मायने रखता है.”

सुप्रीम कोर्ट ने यह खासतौर से दोहराया था कि असल मुद्दा यह नहीं कि ईवीएम को ‘हैक’ किया जा सकता है, बल्कि पारदर्शिता का है. ईवीएम से चुनाव सिर्फ इसलिए नहीं कराए जाते क्योंकि मशीन में वोट सही तरह से रजिस्टर होते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि इससे वोटर्स यह तय कर पाते हैं, वैरिफाई कर पाते हैं कि उनके वोट सही तरह से रजिस्टर हुए हैं.

हालांकि वैरिफाइड वीवीपैट वोट से सिर्फ यही जांचा जाता है कि ईवीएम कितने भरोसेमंद है. फिर औचक रूप से चुने गए कुछ पोलिंग स्टेशंस की वीवीपैट स्लिप्स का मिलान वहां के ईवीएम के नतीजों से किया जाता है. बाकी वीवीपैट स्लिप्स की गिनती नहीं की जाती. इसका यह मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस पारदर्शी और वैरिफाई की जा सकने वाली व्यवस्था की बात की थी, वह पूरी तरह लागू नहीं हुई.

अगर इस लिहाज से देखें तो नाना पटोले की पेशकश खास मायने रखती है, जब उन्होंने विधानसभा को ऐसे कानून पर सोचने विचारने को कहा था, जिसमें वोटर्स को पेपर बैलट का विकल्प दिया जाए, तब मौलिक अधिकारों की रक्षा की बात भी दोहराई थी.

पारदर्शी और वैरिफाइड सिस्टम में वोट देने का अधिकार भी अभिव्यक्ति की आजादी के मूलभूत अधिकार का ही एक हिस्सा है. चूंकि वोटिंग सबसे महत्वपूर्ण मौलिक राजनैतिक अभिव्यक्ति है.

हालांकि इस अनोखी पेशकश पर संदेह किया गया. उसकी संवैधानिकता पर सवाल खड़े हुए. अनुच्छेद 327 के तहत संसद ही वह संवैधानिक अथॉरिटी है जोकि राज्य विधानसभा चुनों से संबंधित कानून पास करती है.

यूं अनुच्छेद 243 के (4) के तहत राज्य के पास स्थानीय निकायों के चुनावों से संबंधित मामलों पर कानून बनाने का अधिकार है, और इस पर कोई विवाद नहीं है. लेकिन इस अधिकार के दायरे में राज्य विधानसभा के चुनाव नहीं आते. महाराष्ट्र सरकार ने प्रस्तावित कानून की संवैधानिकता पर बहस के लिए अनुच्छेद 328 का सहारा लिया है.

हालांकि इस अनुच्छेद के मुताबिक, राज्य विधानमंडल के चुनावों के विषय में सिर्फ कानून बना सकते हैं, अगर संसद ने उस विषय पर कोई कानून नहीं बनाया है. अब चूंकि संसद ने बैलेट पेपर और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से संबंधित कानून बनाए हैं इसलिए ऐसा लगता है कि राज्य अनुच्छेद 328 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा.

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत बैलेट पेपर वोटिंग का एक तरीका है और 1989 के संशोधन ने इसमें वोटिंग मशीनों का अतिरिक्त प्रावधान जोड़ा है.

सूझबूझ से भरा है नया प्रस्ताव

चूंकि संसद ने वोटिंग के तरीके पर कई कानून बनाए हैं, इसलिए राज्य सरकार इस संबंध में कानून बनाने के लिए अनुच्छेद 328 की दलील नहीं दे सकती. इसके अलावा अनुच्छेद 251 के तहत राज्य सरकारें ऐसे विधेयक नहीं पास कर सकतीं, जोकि संसद के बनाए कानून से मेल नहीं खाते- या उसके विरोधी हैं.

पहले-पहल, महाराष्ट्र सरकार की यह पेशकश कामयाब होती नहीं दिखती कि वह वोटर्स को वोटिंग के तरीके को चुनने का विकल्प देगा. ऐसा तरीका, जो वोटर्स को भरोसेमंद या पारदर्शी महसूस होता हो. चूंकि

यह संसद के कानूनों के मुनासिब नहीं होगा. इसके अलावा अगर किसी विषय पर केंद्रीय कानून मौजूद है तो साफ तौर से राज्य के पास उसी विषय पर कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार नहीं है.

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लेकिन इस पेशकश में एक पेंच है, जोकि सूझबूझ भरा कदम कहा जा सकता है. अगर महाराष्ट्र सरकार किसी ऐसे कानून को पेश करती है जो ईवीएम आधारित वोटिंग को रिप्लेस करता है तो वह 1989 के संशोधन के चलते पूरी तरह असंवैधानिक माना जाएगा.

जबकि महाराष्ट्र के विधायी प्रस्ताव में ईवीएम को बैलेट पेपर से रिप्लेस नहीं किया गया है. इसकी जगह पर वह वोटर्स को ईवीएम और बैलेट पेपर, दोनों में से एक को चुनने का विकल्प देता है.

इसमें बैलेट वोटिंग सिस्टम को एक बार फिर से इस्तेमाल करने की पेशकश है, जोकि वोटर के ‘राइट टू चूज़’ का एक हिस्सा है और यही इस नए कानून की संवैधानिकता से जुड़ी पूरी बहस पर पानी फेर देता है.

संसद के किसी कानून में बैलेट पेपर्स के इस्तेमाल पर पाबंदी नहीं लगाई गई है. 1989 में जनप्रतिनिधित्व कानून में जो संशोधन किए गए थे, उनमें ‘वोटिंग मशीनों’ को एक अतिरिक्त विकल्प के रूप में पेश किया गया था.

इसलिए ईवीएम और बैलेट पेपर, दोनों संवैधानिक तौर से वैध वोटिंग प्रणालियां हैं और अगर चुनाव आयोग चाहे, तो इनमें से किसी को भी चुन सकता है. संसद ने चुनाव आयोग को इस बात की मंजूरी दी है कि वह परिस्थितियों को देखते हुए किसी भी तरीके को चुन सकता है लेकिन उसमें इस बात पर कोई जोर नहीं दिया गया है कि वोटिंग के तरीके को चुनने का अधिकार सिर्फ चुनाव आयोग के पास है (1989 संशोधन, सेक्शन 61 ए).

इसका मतलब यह है कि वोटर्स को वोटिंग के तरीकों को चुनने का अधिकार देना, संसद के कानूनों के अनुरूप ही है. हां, अगर वोटर्स को चुनने का अधिकार दिया जाता है तो उससे चुनाव आयोग का अधिकार बेमायने हो जाता है. हालांकि वोटिंग के तरीकों को चुनना, चुनाव आयोग का विशेषाधिकार नहीं है. बस, अगर जरूरी हो तो आयोग को इसे चुनने की इजाजत दी गई है.

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अब प्रस्ताव किसी कानून से मेल खाता है या वह बेमेल है, इस मुद्दे से ज्यादा जरूरी यह संवैधानिक मसला है कि क्या संसद के चुनाव संबंधी किसी कानून में महाराष्ट्र विधानसभा के प्रस्ताव पर कुछ कहा गया है.

संसद के किसी भी कानून में इस विषय से जुड़ा कोई प्रावधान नहीं है. हालांकि यह उससे उलट महसूस होता है क्योंकि हमें यह स्पष्ट नहीं है कि महाराष्ट्र के प्रस्ताव की विषय वस्तु क्या है.

यह विधायी प्रस्ताव वोटिंग के तरीकों पर आधारित नहीं है, क्योंकि न तो यह वोटिंग का कोई नया तरीका सुझाता है, न ही मौजूदा तरीकों को खत्म करता है या उसमें संशोधन करता है. इसमें वोटर को यह अधिकार देने की बात कही गई है कि वह वोट देने का कौन सा मौजूदा तरीका चुनना चाहता है. क्या वोटर को वोटिंग के वैध संवैधानिक तरीकों में से किसी एक को चुनने का अधिकार है, इस मुद्दे पर राजनैतिक स्तर की कोई बहस, कभी नहीं हुई. सिर्फ संसद ने अब तक वह तरीका निर्धारित किया है.

ऐसी स्थिति में महाराष्ट्र का प्रस्ताव न सिर्फ संवैधानिक है, बल्कि एपेक्स कोर्ट की उस उच्च परंपरा के अनुकूल भी है जिसने हमेशा इस बात की हिमायत की है कि जनता को पारदर्शी तरीके से मतदान करने का अधिकार है. मूलभूत अधिकारों की रक्षा की बात है. महाराष्ट्र का प्रस्ताव दरअसल मूलभूत अधिकारों की रक्षा से जुड़ा हुआ है.

परंपरागत रूप से हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक संस्थाओं या कार्यकारिणी को नियंत्रित और संतुलित करने का काम करते हैं. लेकिन संविधान में इसे सिर्फ अदालतों तक सीमित नहीं रखा गया है.

संविधान में एक ऐसी प्रणाली की कल्पना की गई है जहां हर संवैधानिक संस्था एक दूसरे को नियंत्रित और संतुलित करे. बेशक, यह अधिकार सिर्फ अदालत का है कि वह किसी संस्था को उसके असंवैधानिक कार्यों को सही करने को कहे या उसे वापस लेने का आदेश दे, लेकिन दूसरी संवैधानिक संस्थाएं जैसे राज्य और संघ विधायी या कार्यकारी शक्तियों का उपयोग करके ही दूसरी संवैधानिक संस्थाओं के असंवैधानिक कार्यों के असर को कम कर सकते हैं.

महाराष्ट्र का विधायी प्रस्ताव इसी मुद्दे पर आधारित है और इसका हमारी व्यवस्था की नियंत्रण और संतुलन की अवधारणा पर दूरगामी असर होगा.

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(फिलोस कोशी आईआईएसईआर, मोहाली में ह्यूमैनिटी और सोशल साइंस के विजिटिंग फैकेल्टी मेंबर है. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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