हमें 32 व्यक्तियों और 3 गधों के पैरों के निशान मिले हैं.
जॉन कीगन की किताब इंटेलिजेंस इन वॉर: नॉलेज ऑफ द एनमी फ्रॉम नेपोलियन टू अलकायदा में 2000 ईसा पूर्व की नूबिया के बॉर्डर से भेजी गई प्राचीन मिस्र के खुफिया विभाग की इस रिपोर्ट का जिक्र किया गया है.
कहा जाता है कि जासूस हर जगह होते हैं, लेकिन हम उन्हें टीवी पर पुलिस की गिरफ्त में देखने के अलावा शायद ही कहीं और देख पाते हैं.
असली जासूस भले ही जनता की नजर में न आते हों, लेकिन नकली जासूस जरूर आ जाते हैं. और यदि वह दिखने से बच भी जाएं, तो भारत की खुफिया एजेंसियां पुलिस को आगे रखते हुए हमें उन जासूसों का दीदार करा देती हैं.
जितने भी जासूस पकड़े जाते हैं, वे सभी पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए काम कर रहे होते हैं. उनमें से भी अधिकांश को जब टीवी कैमरा के सामने लाया जाता है, तो वे मैले-कुचैले कपड़ो में होते हैं.
इन जासूसों की एक और खास बात होती है. पकड़े गए लगभग सभी जासूस अपने आकाओं तक जो ‘खुफिया’ जानकारी पहुंचाते हैं, उनमें किसी आर्मी कैंटोनमेंट, छिपे हुए हवाई ठिकाने और शिप-बिल्डिंग यार्ड से जुड़े नक्शे ही होते हैं.
कुछ मामलों में तो सालों के अंतर पर पकड़े गए जासूसों के पास से एक जैसा नक्शा (उदाहरण के लिए मेरठ कैंटोनमेंट का नक्शा) ही बरामद होता है. और फिर हमें बताया जाता है कि कैसे आईएसआई के खुफिया एजेंट या लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी हमारे प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश (इससे कम उनका टारगेट कुछ नहीं होता!) रच रहे हैं.
अंत में मीडिया हमारी खुफिया एजेंसियों से बगैर कोई कड़ा सवाल पूछे इन जासूसों के पकड़े जाने की खुशखबरी सुनाते हुए अपना काम खत्म करता है.
जासूसी के मामले
पिछले लगभग एक महीने में कोलकाता, कश्मीर और मेरठ से आईएसआई के तमाम ‘जासूस’ पकड़े गए हैं. सबसे ताजा मामले में दिल्ली पुलिस के ‘अधिकारियों’ ने पंजाब के भटिंडा से एयरफोर्स के एक जूनियर अधिकारी को पकड़ा है.
इन जासूसों के पकड़े जाने की टाइमिंग भी कमाल की है. अधिकांश जासूस तभी पकड़ में आए हैं जब साल खत्म होने को है. यही समय होता है, जब आईबी और दिल्ली पुलिस में जासूसों को पकड़ने के काम में लगे अधिकारियों के नाम मेडल्स के लिए प्रस्तावित किए जाते हैं.
जासूसों को पकड़ने के मामले में दिल्ली पुलिस भारत की सभी पुलिस फोर्सों में अव्वल है. दिल्ली पुलिस के लिए यह जासूसों को पकड़ने का सीजन है और ऐसा लगता है कि उसने आईएसआई एजेंटों को फंसाने के लिए अपने जाल फैला दिए हैं. अचानक ही ‘घर में ही छिपे दुश्मन’ पाए भी जाने लगे हैं.
यहां केस नहीं चलता
इन मामलों से जुड़ी एक और खास बात पता चली है. पकड़े गए सभी जासूसों पर ऑफिशल सिक्रेट्स ऐक्ट और सेक्शन 121 (युद्ध छेड़ने या युद्ध छेड़ने के लिए प्रयास), 121ए (धारा 121 के तहत दंडनीय अपराध करने के लिए साजिश करने), 122 (देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए हथियार इकट्ठा करने) और 123 (युद्ध छेड़ने की योजना बनाने के इरादे से छिपना) के तहत केस दर्ज तो किया जाता है, लेकिन इनमें से किसी भी केस पर मुकदमा नहीं चलता. सबूतों की कमी की वजह से ऐसे मामलों में अभियोजन भी नहीं हो पाता.
‘बड़ी मछलियों’ का क्या?
हमारी कानून प्रवर्तन एजेंसियां पाकिस्तान की आईएसआई के इन ‘छोटे जासूसों’ को तो अक्सर पकड़ती रहती हैं, लेकिन बात जब ‘बड़ी मछलियों’ की आती है, तो इनकी धार कुंद पड़ जाती है. ऐसी ही ‘बड़ी मछलियों’ में सबसे जाना-पहचाना नाम है रविंदर सिंह का, जो भारत की खुफिया एजेंसी रॉ में जॉइंट सेक्रेटरी था और पकड़ में आने से पहले ही सीआईए के अपने आका की मदद से मई 2004 में नेपाल, फिर वहां से अमेरिका चला गया.
रॉ के काउंटर इंटेलिजेंस सेक्शन ने रविंदर पर नजर रखी हुई थी, लेकिन वह उनकी नजरों को धोखा देने में कामयाब हुआ और उसके सीआईए के केस ऑफिसर ने उसे पहले नेपाल और फिर अमेरिका सुरक्षित पहुंचा दिया.
आईएसआई का निशाना
पकड़ में आते ही इन ‘जासूसों’ को गद्दार घोषित कर दिया जाता है. कहा जाता है कि कम से कम 5,000 और ज्यादा से ज्यादा 30,000 रुपए में वह भारत की खुफिया जानकारी दुश्मनों को बेच देते हैं. एक पूर्व वरिष्ठ खुफिया अधिकारी ने खुलासा किया कि आईएसआई के निशाने पर सिर्फ आर्मी और बीएसएफ के निचले रैंक के अधिकारी होते हैं, लेकिन वह तीनों सेनाओं और ब्यूरोक्रेसी में भी सेंध लगाने की कोशिश करती रहती है.
2001 से 2003 के बीच भारत की एक सुरक्षा एजेंसी ने पाकिस्तान से आई 2,500 फोन कॉल्स पर नजर रखी थी. इनमें से अधिकांश फोन बीएसएफ या सेना के छोटे अधिकारियों को किए गए थे. कई मामलों में आईएसआई के संचालक कुछ अफसरों की पत्नी को फोन करते हैं और उनसे खतरनाक परिस्थितियों में काम कर रहे उनके पतियों के लिए सहानुभूति जताते हैं और कोशिश करते हैं कि वे अपने पति को उनके लिए काम करने के लिए राजी करें.
कोई कार्रवाई नहीं
इस रिटायर्ड अधिकारी ने एक और सनसनीखेज खुलासा किया. उन्होंने बताया कि हम ऐसे संभावित रंगरूटों या आईएसआई के लिए काम कर रहे लोगों के बारे में गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय को बता देते हैं, लेकिन इनमें से लगभग 50 प्रतिशत मामलों में कोई कार्रवाई नहीं की जाती. दूसरे शब्दों में कहें, तो इन दोनों ही मंत्रालयों में से कोई भी पुलिस से ऐसे रंगरूटों को गिरफ्तार करने के लिए नहीं कहता.
अचानक ही आईएसआई के जासूस दिल्ली पुलिस के जाल में फंसने लगे हैं, लेकिन पुलिस इनके काले कारनामों के बारे में शायद ही कुछ उगलवा पाए. हम जानते हैं कि समय-समय पर ऐसे विदेशी जासूसों के बारे में खुफिया एजेंसियां बढ़ा-चढ़ाकर बताती हैं, ताकि वह अपने ऊपर खर्च किए जा रहे पैसों को जस्टिफाई कर सकें और अपना राजनीतिक कद बढ़ा सकें. और हां, इसमें कुछ अधिकारियों की प्रमोशन पाने की महत्वाकांक्षा तो शामिल होती ही है.
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