अफगानिस्तान (Afghanistan) में अमेरिका (US) की रणनीतिक हार से केवल तालिबानी ( Taliban) और उसके पाकिस्तानी स्पॉन्सर्स ही खुश नहीं हैं. बल्कि रूस और चीन भी इसमें शामिल हैं. ये सब अमेरिका के ताजे घावों पर नमक छिड़कने जैसा है. इस प्रक्रिया में वे तालिबान और अफगानिस्तान के भविष्य पर अपनी स्थिति को साफ कर रहे हैं, जो पूरी तरह से अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों के विरोध में नहीं है, लेकिन अलग जरूर है.
30 अगस्त को भारत की अध्यक्षता में हुई अफगानिस्तान पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की बैठक में उनके ये मतभेद स्पष्ट रूप से सामने आए. इससे भारत उलझन में पड़ सकता है.
ऐसे में सवाल है कि क्या अफगानिस्तान पर संभावित अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक दलदल से बाहर निकलने का प्रयास भारत करेगा? उम्मीद तो यही है कि भारत अफगानिस्तान में अपने राष्ट्रीय हित के मुताबिक विवेकपूर्ण और व्यावहारिक रूप से आगे बढ़ेगा.
अफगानिस्तान की हालिया स्थिति से यह स्पष्ट हो गया है कि यह भारतीय कूटनीति के लिए एक महत्वपूर्ण परीक्षा है. हर तरह की संभावनाओं के बीच अफगानिस्तान पर प्रमुख शक्तियों और क्षेत्रीय ताकतों के बीच चल रही कूटनीतिक रस्साकशी के बीच भारत की चिंताओं को कम करने के लिए काफी निपुणता या चतुराई की जरूरत होगी.
संकल्प 2593
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने गुरुवार को ज़ुब्लज़ाना में स्लोवेनिया के राष्ट्रपति और विदेश मंत्री के साथ बातचीत की. इसमें कोई संदेह नहीं है कि जयशंकर अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक के दलदल से अवगत है. एस जयशंकर यूरोपीय संघ (EU) के विदेश मंत्रियों की अनौपचारिक बैठक में हिस्सा लेने के लिए स्लोवेनिया के निमंत्रण पर वहां गए थे.
जाहिर वहां यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों ने रिजोल्यूशन 2593 यानी 2593 संकल्प पर भी अपना-अपना मत रखा होगा. बताते चलें कि रिजोल्यूशन 2593 यूएनएसी की बैठक में 30 अगस्त को सामने आया है. इस संकल्प के प्रस्ताव को फ्रांस ने प्रस्तावित किया था, जिसका भारत सहित 13 सदस्य देशों ने समर्थन किया था. वहीं रूस और चीन ने वोटिंग में हिस्सा ही नहीं लिया था. इस संकल्प में वे सभी तत्व शामिल थे जिनका समर्थन अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी वर्तमान में अफगानिस्तान पर कर रहे हैं.
इस प्रस्ताव में की गई प्रमुख मांगे इस तरह हैं...
समावेशी सरकार.
तालिबान महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों सहित मानवाधिकारों का सम्मान करेगा.
पिछले बीस वर्षों से कानून के शासन के पालन से जो लाभ हुआ है उसका संरक्षण करेगा. यानी कानून के शासन का पालन कराएगा.
मानवीय सहायता गतिविधियों में शामिल होने वाले संयुक्त राष्ट्र के कर्मियों को अफगानिस्तान और उसके अंदर बिना किसी बाधा के पहुंचने देगा.
तालिबान 27 अगस्त की अपनी प्रतिबद्धता का सम्मान करने के लिए उन सभी अफगानों को अनुमति देगा जो किसी भी मार्ग सड़क या हवाई मार्ग से देश छोड़ने की इच्छा रखते हैं.
तालिबान को यह सुनिश्चित करना होगा कि अफगान क्षेत्र का इस्तेमाल किसी देश को धमकाने, हमला करने, आतंकवादियों को पनाह देने, उन्हें प्रशिक्षण देने, आतंकी गतिविधियों की योजना बनाने और उन्हें धन मुहैया कराने के लिए नहीं किया जाना चाहिए.
चीन और रूस की दोहरी चिंता
चीन और रूस ने इस प्रस्ताव से खुद को अलग कर लिया, क्योंकि वे तालिबान को सरकार के गठन और उन कानूनों की व्यवस्था के लिए बाध्य नहीं करना चाहते हैं जिनका पालन अफगान राज-व्यवस्था करना चाहती है. रूस अफगानिस्तन से पलायन का विरोध भी कर रहा है क्योंकि क्योंकि इससे ब्रेन ड्रेन होगा यानी प्रतिभाओं का पलायन होगा.
इसके साथ ही वे प्रस्ताव के खिलाफ इसलिए भी नहीं गए, क्योंकि वे भी चाहते हैं कि तालिबान अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों द्वारा अफगान भूमि का उपयोग करने की अनुमति न दे.
पिछले बीस वर्षों में कानून से अफगानिस्तान को क्या लाभ हुआ और इस लाभ को संरक्षित करने में चीन और रूस की कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन वे नहीं चाहते कि तालिबान 1990 के दशक में अपनाई गई ज्यादतियों और मध्ययुगीन प्रथाओं पर वापस जाए.
गौरतलब है कि इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद चीन और रूस ने अपने बयानों में अमेरिका की जल्दबाजी और बेतरतीबी से की गई वापसी के लिए उसकी निंदा की थी. पश्चिमी देशों द्वारा अफगानिस्तान के फंड को फ्रीज करने के लिए रूस ने उनकी आलोचना की थी.
वहीं अमेरिकी घावों को खुरचते हुए चीन ने कहा था कि यह 'विचार और सुधार' 'reflection and correction' का समय है. इसके साथ ही चीन ने अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की आपराधिक गतिविधि का भी जिक्र किया और अपनी विफलताओं के लिए अफगानिस्तान के पड़ोसियों पर दोष मढ़ने के लिए अमेरिका की आलोचना की.
भारत को संभल कर उठाने होंगे कदम
तालिबान जल्द ही अपनी सरकार की घोषणा कर सकता है. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि तालिबान आंशिक तौर पर ईरानी मॉडल का पालन करेगा. उसके नेता हैबतुल्लाह अखुंदज़ादा को सर्वोच्च नेता घोषित किया जाएगा. दिन-प्रतिदिन का प्रशासन राष्ट्रपति के अधीन होगा, लेकिन यह संभावना नहीं है कि तालिबान चुनाव स्वीकार करेगा. तालिबानी विचारधारा के अनुसार इस्लामी शासन व्यवस्था में चुनावों का कोई स्थान नहीं है. इस तरह के दृष्टिकोण से चीन को कोई समस्या नहीं होगी.
अफगानिस्तान में दो अलग-अलग अंतर्राष्ट्रीय खेमे उभर रहे हैं. एक खेमे का नेतृत्व अमेरिका और दूसरे का चीन और रूस द्वारा किया जाएगा.
जहां एक ओर अमेरिका और उसके सहयोगी तालिबान पर वित्तीय प्रवाह यानी फाइनेंसियल फ्लो को रोककर, राजनयिक मान्यता में देरी करके और उनकी मांगें पूरी होने तक अंतर्राष्ट्रीय निंदा का दबाव बनाएंगे.
वहीं दूसरी ओर चीन और रूस तालिबान सरकार को तब तक बनाए रखने की कोशिश करेंगे जब तक कि वह 1990 के दशक में अपनाए गए सभी आक्रामक शासन सिद्धांतों को लागू नहीं करता है. वहीं पाकिस्तान रूस-चीन खेमे का अभिन्न अंग होगा. ऐसे में एक अहम सवाल यह है कि तालिबान शासन को आर्थिक रूप से सहायता देने में चीन कितना आगे जाएगा?
तालिबान के साथ भारत का जुड़ाव अच्छी बात है. इस वार्ता को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया जाना चाहिए ताकि भारत की रेड लाइन यानी लाल रेखा, विशेष रूप से आतंकवाद पर फिर से पुष्टि की जा सके. मोदी सरकार के लिए यह भी बेहतर होगा कि वह किसी भी उभरते हुए खेमे से न जुड़े और स्पष्ट रूप से स्वतंत्र नीति अपनाएं.
क्विक्सोटिक यानी कल्पनावादी नीतियां व्यर्थ होने के साथ-साथ भारतीय हितों के विपरीत होंगी. इसलिए मार्गदर्शक यथार्थवादी होना चाहिए.
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