आईसीसी के भारत-पाकिस्तान के बीच 15 मुकाबले में हमारी टीम की 13 बार जीत. और रविवार का मैच रिकॉर्ड अंतर से जीतना बड़ा सुखद अनुभव था. इसीलिए नहीं कि आज के माहौल में पाकिस्तान को हराने का डबल मजा है.
दरअसल, भारत की जीत और पाकिस्तान की हार वाली हेडलाइन अब बोरिंग लगती है. चाहे क्रिकेट हो या हॉकी, भारत-पाकिस्तान के मैच में हमारे जीतने की संभावना पहले के मुकाबले काफी ज्यादा बढ़ गई है. हमेशा ऐसा नहीं था. अस्सी के दशक में इमरान खान के इन डिपर के सामने हमारे बल्लेबाज घुटने टेक जाते थे. वसीम अकरम के आउट स्विंगर का सामना करना बहुत मुश्किल था. जहीर अब्बास सेंचुरी बनाए बगैर पवेलियन लौटते ही नहीं थे. और जावेद मियादाद का चेतन शर्मा की आखिरी गेंद पर छक्का हम सबको याद है. उस अकेले शॉट ने न जाने कितने ही दिल तोड़े थे. उस एक शॉट से चेतन शर्मा का करियर ही लड़खड़ा गया था.
हमारी टीम पाकिस्तानी क्रिकेटर्स के सामने संघर्ष जरूर करती थी, लेकिन जीतना मुश्किल था. वह भी तब, जब हमारी टीम में सुनील गावस्कर, कपिल देव, दिलीप वेंगसरकर, मोहिंदर अमरनाथ और बाद में सचिन तेंदुलकर जैसे धुरंधर मौजूद थे. अस्सी के दशक में भारत-पाकिस्तान के बीच 30 वनडे मैच हुए, जिनमें सिर्फ 9 मैचों में हमारी टीम जीती.
हॉकी में पाकिस्तान की बादशाहत तो पहले ही शुरू हो गई थी. साठ के दशक में हुए तीन ओलंपिक गेम्स में दो में गोल्ड मेडल पाकिस्तान ने जीते. 1972 के म्यूनिख ओलंपिक में पाकिस्तान ने भारत को सेमीफाइनल में 2-0 से हराया था. उसके बाद से तो मामला एकतरफा जैसा हो गया था.
दोनों देशों के मुकाबलों में हमारी एकाध जीत और पाकिस्तान की कई. हॉकी में हम फिसड्डी होते गए और पाकिस्तान की बादशाहत कुछ सालों तक चली और फिर ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देश, जैसे जर्मनी और हॉलैंड के हाथों छिन गई.
लेकिन अब समय बदल रहा है. क्रिकेट और हॉकी दोनों में ही. यह सच है कि पाकिस्तान इस तरह से आतंकवाद की चपेट में आ गया है कि दूसरे देश वहां जाकर खेलने से परहेज करते हैं. इसीलिए पाकिस्तानी खिलाड़ियों की मैच प्रैक्टिस में कमी हो सकती है. लेकिन बात इतनी ही नहीं है.
दोनों देशों की आर्थिक तरक्की की रफ्तार देखें, तो यह साफ हो जाता है कि पाकिस्तान खेलों के मामले में भी लगातार क्यों पिछड़ रहा है.
1960 और 1980 का दशक पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के लिए काफी अच्छा रहा. दोनों ही दशकों में पाकिस्तान में विकास की दर 6-7 परसेंट के करीब रही. इसकी तुलना में अपने देश में विकास की दर काफी कम रही.
तरक्की मतलब खर्चने के लिए ज्यादा पैसा, खिलाड़ियों को बेहतर सुविधा की व्यवस्था और ज्यादा स्पॉन्सर. इस सबके चलते स्किल में सुधार का मौका तो मिलता ही है, खिलाड़ियों का कॉन्फिडेंस भी बढ़ता है. और हमें पता है कि खेल के मैदान में मनोबल की कितनी बड़ी भूमिका होती है.
लेकिन 21वीं सदी में खेल बिल्कुल ही पलट चुका है. दस साल पहले जहां पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय हमारे देश के बराबर थी, अब हमारे देश की प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान से 25 परसेंट ज्यादा है. दोनों देशों के विकास की रफ्तार में इतना ही फासला रहा था, यह गैप और भी आगे बढ़ेगा.
हालत यह है कि 2003 के बाद किसी साल भारत की विकास दर पाकिस्तान से कम नहीं रही है. 2008 के बाद से तो यह गैप काफी तेजी से बढ़ा है.
मतलब यह कि जिस कॉन्फिडेंस के खेल में पाकिस्तानी खिलाड़ी हमें मात दिया करते थे, अब वो गेम पलट गया है. इसीलिए चाहे महेंद्र सिंह धोनी हों या फिर विराट कोहली और हॉकी के रुपिंदर पाल सिंह- ये सारे उस अर्थव्यवस्था में पले-बढ़े खिलाड़ी हैं, जो तेजी से आगे बढ़ी है. इसीलिए इनका मनोबल काफी ऊंचा है.
ऐसा नहीं है कि स्किल के मामले में ये कपिल देव, सुनील गावस्कर या परगट सिंह से बेहतर हैं, लेकिन ये ज्यादा कॉन्फिडेंट हैं. पाकिस्तानी खिलाड़ियों से तो कहीं ज्यादा. यही वजह है कि पाकिस्तानी टीम को हराना इनकी आदत बनती जा रही है.
2010 के बाद दोनों देशों के बीच 19 वनडे मैच हुए हैं. इनमें से 7 में हमारी जीत हुई है. अस्सी के दशक में अपनी टीम को लगातार हारते देखने की निराशा के बाद अब लगातार जीतने की लत बड़ा सुखद अनुभव है.
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