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3 साल में 345 सुसाइड, 4 साल में 47000 ने काम छोड़ा: अर्धसैनिक बल तनाव में क्यों?

कई बार अपने परिवारों से बात करने के तुरंत बाद जवानों की मौत खुदकुशी से हुई है.

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त्रिपुरा में 21 अप्रैल को सीमा सुरक्षा बल (BSF) के एक अधिकारी ने अपनी बंदूक से खुद को गोली मार ली. इससे पहले अमृतसर और बेहरामपुर में दो अलग-अलग मामलों में बीएसएफ के जवानों ने अंधाधुंध फायरिंग करके अपने सात साथियों की जान ले ली.

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हालांकि जांच से ही इन घटनाओं की वजहें बताई जा सकती हैं, लेकिन इतना जरूर है कि सरकार के लिए असल कारणों पर ध्यान देना बहुत जरूरी है- जैसे सैनिक तनाव के शिकार हैं. केंद्रीय सशस्त्र बलों (CAF) का नेतृत्व तटस्थ है और काम करने की मौजूदा परिस्थितियां खराब है. इनकी वजहों से सैनिकों में बहुत ज्यादा असंतोष है.

सरकारी आंकड़े कहते हैं कि 2019 और 2021 के बीच CAF में अपने ही साथियों की हत्या की 25 घटनाएं हुई हैं, और 2017 से 2019 के बीच तीन सालों में सुसाइड के 345 मामले. इसके अलावा 2016 और 2020 के बीच, चार सालों में 47,000 कर्मचारियों ने वॉलंटरी रिटायरमेंट ले लिया है, या इस्तीफा दे दिया है.

नौकरी छोड़ने वालों की संख्या इन अर्धसैनिक बलों के कुल कर्मचारियों के 5 प्रतिशत से अधिक है, और इससे हर साल 3 प्रतिशत से ज्यादा नुकसान होता है. इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों का नौकरी छोड़ना चिंता का सबब होना चाहिए.

काम के लंबे और थकान भरे घंटे

तनाव होने की सबसे बड़ी वजह काम के लंबे घंटे हैं जोकि कई बार एक दिन में 15 से 16 घंटे तक होते हैं. यह स्थिति तब बदतर हो जाती है, जब उन्हें बार-बार और लंबे समय तक अप्रासंगिक या नॉन कोर कामों में लगाया जाता है. 2021 और 2022 में राज्य विधानसभाओं के चुनावों के दौरान सीमाओं की सुरक्षा करने वाले लगभग एक तिहाई अर्धसैनिक बल तीन महीने तक सरहदों से हटा लिए गए थे. चूंकि वे चुनावी ड्यूटी पर थे.

तनाव की दूसरी वजह यह है कि काम के लंबे घंटों के चलते उन्हें पर्याप्त और लगातार नींद नसीब नहीं होती. ऐसे कितने ही अध्ययन हुए है जिनसे पता चलता है कि नींद पूरी न होने- रात को भी- के कारण लोगों की शारीरिक और मानसिक सेहत प्रभावित होती है. इसीलिए इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि CAF के सैनिक जबरदस्त तनाव के शिकार हैं क्योंकि अपनी तैनातियों के दौरान उनकी पूरी नींद नहीं मिलती.

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चुनाव जैसे जरूरी काम के लिए सुरक्षा बलों का इस्तेमाल समझा जा सकता है. लेकिन तकलीफ तब बढ़ जाती है, जब गैर जरूरी कामों में भी उन्हें लगाया जाए. जैसे 2021 में बांग्लादेश की आजादी की 50वीं वर्षगांठ के जश्न के दौरान. इस धूमधाम में मैराथन, साइकिल सफारी और सांस्कृतिक कार्यक्रम किए गए जिसमें बड़ी संख्या में बाकी के सैनिकों को तैनात किया गया.

प्रमोशन में भी होती है देरी

इसलिए, शायद, 50 प्रतिशत से ज्यादा सैनिक असल कामों के लिए उपलब्ध ही नहीं थे. इन औपचारिक आयोजनों की भव्यता को लेकर कमांडरों में बहुत जुनून है. इससे सैनिकों की ऊर्जा खत्म होती है और संसाधनों पर भारी बोझ पड़ता है. एक बात और है. जिन तैनातियों का जिक्र ऊपर किया गया है, उनके अलावा बहुत से सैनिक उच्च मुख्यालयों में भी तैनात किए जाते हैं.

यहां से लंबे समय तक वापसी नहीं होने की वजह से सैनिकों के ट्रेनिंग साइकिल, पर्सनल मैनेजमेंट और कमांडरों के सुपरविजन पर भी असर होता है. सैनिकों का करियर जरूरी ट्रेनिंग प्रोग्राम्स के पूरा होने से जुड़ा हुआ होता है; और कई मामलों में उनके प्रमोशन में देरी हो जाती है क्योंकि ये सैनिक जरूरी स्किल अपग्रेडेशन प्रोग्राम्स में हिस्सा नहीं ले पाते.

प्रमोशन में देरी और करियर में आगे बढ़ने के मौके न मिलने की वजह से तनाव और बढ़ता है.

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ऐसी तैनातियों से एक और नुकसान होता है. जितनी अधिकृत छुट्टियां होती है, वे भी नहीं मिल पातीं. इन सैनिकों को परिवार के साथ रहने के लिए 100 दिनों की छुट्टी मिलती है लेकिन ये छुट्टियां मिलना अव्यावहारिक होता है. यह तब तक मुमकिन नहीं जब तक स्टाफिंग पैटर्न और अतिरिक्त ड्यूटी के प्रकार और अवधि तय करने के उपाय न किए जाएं.

चूक न करने का सिद्धांत बहुत खतरनाक है

एक और बात बहुत खतरनाक है. यह उम्मीद की जाती है कि फर्ज निभाने में कोई गलती नहीं होनी चाहिए. दिक्कत यह है कि सीनियर लीडरशिप को जमीनी हकीकत के बारे में कुछ नहीं पता होता. वे नहीं समझते कि इलाके, मौसम, अपराध के पैटर्न और सैनिकों की कमी जैसी वजहों से चूक होना अस्वाभाविक नहीं होता. इन बलों के कामकाज का तरीका कर्मचारियों पर निर्भर है, और तकनीक पुरानी इस्तेमाल की जाती है. इसके अलावा खुफिया एजेंसियों की मदद से सैनिकों के बोझ को कम करने की कोशिश नहीं की जाती. अगर बेहतर तकनीक का इस्तेमाल किया जाए और खुफिया एजेंसियों की पूरी मदद ली जाए तो सैनिकों के तनाव को कम किया जा सकता है.

25 फरवरी को आईईडी विस्फोट में सीआरपीएफ कोबरा के असिस्टेंट कमांडेंट विभोर ने जिस तरह अपने दोनों पैरे गंवाए, उस तरह की घटनाएं भी सैनिकों में डर पैदा करती हैं और उनका तनाव बढ़ता है.
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अर्धसैनिक बलों के शीर्ष अधिकारियों से संवादहीनता के कारण भी सैनिकों का मनोबल गिरता है. अक्सर शीर्ध अधिकारी तुरत-फुरत के उपाय करते हैं, लंबी अवधि की योजनाएं नहीं बनाते. भविष्य के नजरिये से काम नहीं करते. जैसे पिछले दशक की शुरुआत में सीआरपीएफ, आईटीबीपी और एसएसबी में रेजिमेंटेशन को खत्म कर दिया गया था, इसके बावजूद कि उससे सैनिकों में संघ भावना, सद्भाव और आपसी समझ को बढ़ावा मिलता है. अब यह काम बीएसएफ में भी किया जा रहा है, जबकि वह अकेला ऐसा बल है जिसके अधिकारी सरकार को इस बात के लिए मना सकते हैं कि वह अपना फैसला पलट दे.

ऐसा एक और फैसला 2000 के दशक की शुरुआत में इन बलों की इकाइयों में एक और कंपनी को जोड़ने से संबंधित है. इरादा शायद अतिरिक्त मुख्यालय बनाकर सरकारी धन की बचत करना था. लेकिन इससे मैनपावर मैनेजमेंट और निगरानी के क्षेत्र, दोनों के लिहाज से कमांड का फैलाव बढ़ा, जोकि यूनिट कमांडेंट के लगभग 30% के बराबर है.

इस प्रकार प्रशासनिक और संचालन संबंधी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे यूनिट के कमांडेंट के पास सैनिकों को जानने और उनकी विशेषताओं, क्षमताओं और सीमाओं से वाकिफ होने के लिए बहुत कम समय बचता है.
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इसके अलावा इस कदम ने करियर को आगे बढ़ाने के पहले से कम मौकों को और कम किया, और नौकरी छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती गई.

सीनियर अधिकारियों और सैनिकों के बीच जुड़ाव खत्म होता जा रहा है

ऐसा लगता है कि शिकायत निवारण की प्रणाली भी अच्छी तरह से काम नहीं कर रही. इन अर्धसैनिक बलों की पूरी परख न होने की वजह से सीनियर अधिकारी उनका सामना करने में हिचकिचाते हैं. जूनियर ऑपरेशनल कमांडरों के साथ बातचीत भी कम हो गई है. जूनियर अधिकारियों को भी करियर में आगे बढ़ने के मौके नहीं मिलते. न ही पर्याप्त वेतन और भत्ते मिलते हैं. इससे वे लोग भी निराश हैं. अर्धसैनिक बलों में मुकदमेबाजियों के बढ़ने से हकीकत की तस्वीर साफ नजर आ जाती है.

जूनियर अधिकारियों के मनोबल में गिरावट से तनाव बढ़ता है, जिससे ऐसी घटनाएं होती हैं. एकल परिवारों की अवधारणा और दो, या कभी-कभी तीन घरों में बंटा परिवार, यह सब कॉन्स्टेबल्स को अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई और वित्तीय स्थिति को लेकर चिंतित करते हैं. सरकार अपनी तरफ से मकान किराया भत्ता देती है ताकि वे अपनी तैनाती वाली जगह से अपने परिवारों को दूर रख सकें. इससे अर्ध सैन्य बलों के कर्मचारियों को कुछ मदद जरूर मिलती है. लेकिन ये सुविधा अधिकारियों को नहीं मिलतीं जो ऐसी ही समस्याओं का सामना करते हैं. इन तकलीफों की गंभीर समीक्षा की जरूरत है.

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कई मामलों की जांच के बाद यह पता चला है कि अपने परिवारों से बात करने के तुरंत बाद कई लोगों की मौत खुदकुशी से हुई है. इसलिए जिन पेशेवर चुनौतियों की बात हमने की है, उनके साथ-साथ परिवार और व्यक्तिगत समस्याओं के चलते सुरक्षाकर्मी यह कड़ा कदम उठाते हैं.

अगर सुरक्षा बल तनाव में हैं तो हम सुरक्षित कैसे रह सकते हैं

सीएएफ में खुदकुशी के मामलों को देखते हुए कुछ महीने पहले सरकार ने एक टास्क फोर्स बनाई थी. उससे इस बात का अध्ययन करने को कहा गया कि सैनिकों में अपने ही साथियो को गोलियों से छलनी करने के मामले क्यों बढ़ रहे हैं. हालांकि, यह बेहतर होता कि टास्क फोर्स में रिटायर्ड अधिकारी या इन बलों के कैडर शामिल होते जो सैनिकों की कठिनाइयों से परिचित होते हैं.

भारत की सुरक्षा में केंद्रीय सशस्त्र बलों की महत्वपूर्ण भूमिका है. इसलिए देश सुरक्षित रहे, इसके लिए सैनिकों का मनोबल बना रहना चाहिए. सो, टास्क फोर्स की सिफारिशों का विश्लेषण किया जाना चाहिए और उन्हें तुरंत लागू किया जाना चाहिए. सरकार को टास्क फोर्स में रिटायर्ड अधिकारियों और मौजूदा अधिकारियों को शामिल करना चाहिए जिससे सैनिकों की मानसिक सेहत में सुधार करने के लिए अधिक व्यापक उपाय किए जा सकें.

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(संजीव कृष्ण सूद (सेवानिवृत्त) ने बीएसएफ के अतिरिक्त महानिदेशक के रूप में कार्य किया है और एसपीजी के साथ भी जुड़े रहे हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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