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इकनॉमी में ‘फील गुड’ तो मानो गायब ही हो गया है

यूपीए के समय सारे टैक्स मिलाकर आपकी जेब से सरकार को करीब 45 रुपये जाते थे. अब करीब 55 रुपये जाते हैं.

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भारत की अर्थव्यवस्था देखकर मुझे अमिताभ बच्चन का एक डायलॉग याद आ रहा है. शहंशाह फिल्म में पान चबाते हुए वो कहते है, “भाई, कंफ्यूजन तो है.”

मसला ये है कि भगवान ने हम सबको दो कान दिए हैं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम एक कान से एक बात सुनें और दूसरे कान से दूसरी कोई बात. कहने का मतलब ये है कि कान भले ही दो हों, दिमाग तो एक ही होता है. हर एक कान से अलग-अलग बातें सुनकर और उसे कंफ्यूज करने में कोई बुद्धिमता नहीं है.

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अजीब बात ये है कि एनडीए सरकार ने ठीक यही होने दिया है. इसकी वजह है दो कान, दो बात.

इस कान में वित्त मंत्रालय ने कहा, 'टैक्स बढ़ाओ' और उस कान में पार्टी ने कहा, 'आमदनी बढ़ाओ'. कंफ्यूजन में टैक्स तो बढ़ गया, क्योंकि उसमें समय नहीं लगता.

पर आमदनी? भाइयों और बहनों, रुकावट के लिए खेद है.

अगर मोदी जी, चुनावी लहजे में कहें, तो कुछ ऐसा सुनने को मिलेगा....

भाइयों और बहनों, आप ही बताएं, आमदनी बढ़ी? नहीं. टैक्स बढ़ा? हां... तो सरकार के अच्छे दिन आए ही नहीं? 

खामोशी...

मोटी-मोटी बात ये है कि यूपीए के समय सारे टैक्स मिलाकर आपकी जेब से सरकार को करीब 45 रुपये जाते थे. अब करीब 55 रुपये जाते हैं. चलिए, मान लेते हैं कि यूपीए के समय पर मुद्रास्फीति की दर 12-13 फीसदी थी, जो अब करीब 4 फीसदी है. ये बड़ी राहत तो जरूर मिली है.

लेकिन आमदनी बढ़ना भी बंद हो गई है, जबकि साल 2002-2014 के बीच 10-15 फीसदी का इंक्रीमेंट होता था. अब मुश्किल से ये 5-7 फीसदी है. कुछ तो ये मुद्रास्फीति के गिरने के कारण है. परंतु ज्यादातर इसकी वजह ये है कि कंपनियों का मुनाफा भी कम हो गया है.

पूरी तरह देखा जाए, तो जो राहत मुद्रास्फीति के कम होने से मिली है, उससे अधिक टैक्स और कम इंक्रीमेंट ने विफल कर दिया. इसलिए लोगों में फील-गुड फैक्टर नहीं रहा.

मोदी सरकार की अब तक कहानी बस यही है.

ऐसा नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं हुआ है. बहुत सारे अच्छे बदलाव लाए गए हैं. पर उनका असर तीन या चार साल बाद दिखेगा.

कहां गए कौटिल्य?

हर सरकार किसी विचारधारा पर चलती है. कांग्रेस की विचारधारा कम्युनिस्टों से मिलती थी. कांग्रेस का मूल मंत्र ये था कि अमीरों से पैसा लेकर कुछ पैसा सड़क, फैक्ट्री आदि पर लगाया जाए और बाकी गरीबों में बांट दिया जाए. 1958 से 2014 तक देश इसी फॉर्मूले पर चला. अंग्रेजी में इसे ‘रॉबिनहुड गवर्नेंस’ कहते हैं.

फिर जब 2014 में मोदी जी पीएम बने, उनसे उम्मीद थी कि उनकी सरकार कौटिल्य की सीख पर चलेगी, क्योंकि बीजेपी को देश के परिवर्तन पर पूरा भरोसा है.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ

सरकार के एक कान में पुरत्व था और दूसरे कान में रॉबिनहुड. बीच में लगा बेचारा फ्राई हो रहा है. कौटिल्य ने कहा था कि स्वस्थ फाइनेंस के बगैर कोई राजा सफल नहीं हो सकता. उन्होंने ये भी कहा था कि अच्छा राजा टैक्स की दर सामान्य रखता है और हर किसी से टैक्स लेता है.

मोदी जी की सरकार ने सारा मामला उल्टा ही कर दिया है. जीएसटी में 62 फीसदी चीजों पर जीरो टैक्स है. उसे कैल्कुलेट करना बहुत मुश्किल है. रही बात इनकम टैक्स की, वो तो केवल एक करोड़ लोग ही देते हैं, बाकी 129 करोड़ लोग हरि को याद करते हैं.

लेकिन एक मामले में पीएम मोदी की सरकार ने कौटिल्य की बात जरूर मान ली. कौटिल्य ने कहा था कि टैक्स जबरदस्ती लेना हो, तो जबरदस्ती करनी चाहिए. मोदी सरकार यही कर रही है.

कौटिल्य ने ये भी कहा कि आयात-निर्यात पर टैक्स होना चाहिए. लेकिन चार और बीस फीसदी तक. उनका कहना था कि निर्यात और आयात में संतुलन होना चाहिए और ये बिलकुल नहीं होना चाहिए कि सारे आयात की पेमेंट गोल्ड से हो.

मगर हुआ क्या है? इंडिया का चीन के साथ ट्रेड घाटा करीब 50 बिलियन डॉलर रहा.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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