हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा है कि उसे महिलाओं के लिए नेशनल डिफेंस एकैडमी (एनडीए) के दरवाजे खोलने होंगे. इस खबर के बाद मेरे मन में दो तरह की बातें आ रही हैं. मैं इस बात का समर्थक हूं कि महिलाओं को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने देश के सुरक्षा बलों का हिस्सा बनने, उसकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए और इस लिहाज से, मैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करता हूं.
लेकिन जो बात मुझे हैरान करती है, वह यह है कि अगर यह “अवसर की समानता का सिद्धांत” है जिसे अदालतें सही तरीके से लागू करने की मांग कर रही हैं तो दाखिला सिर्फ ऑफिसर कैडर तक ही क्यों सीमित है- सैनिक के तौर पर उनके दाखिला के लिए भी दरवाजों को खोला जाना चाहिए.
जब महिलाओं के लिए ऑफिसर रैंक पर शॉर्ट सर्विस कमीशन की इजाजत दी गई थी, तब भी मैंने सार्वजनिक तौर पर यह बात कही थी (अपनी किताब ‘इंडियाज़ आर्म्ड फोर्सेस- टैंपरिंग द स्टील’ में भी मैंने यह दोहराया है). मैंने कहा था कि अगर इस फैसले को सिर्फ ऑफिसर कैडर तक सीमित किया जाएगा तो यह कछुआ चाल होगी. इसके जरिए हम सिर्फ इस बात का दिखावा करेंगे कि हमने महिलाओं को सशस्त्र बलों में शामिल किया है.
सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला क्यों देना
अगर सशस्त्र बलों के शीर्ष अधिकारियों ने समय पर यह बात सोच ली होती और पुरुषों की बराबरी में महिलाओं को सभी ओहदों पर तैनात करने की प्रक्रिया शुरू कर दी होती तो हमें यह दिन देखना नहीं पड़ता कि अदालतें निर्देश देने पर मजबूर हों. मेरे ख्याल से सशस्त्र बलों में महिलाओं को शामिल करने का यह मुद्दा वास्तव में गलत वजहों से लिए गए सही फैसले की एक उम्दा मिसाल बन गया है (असल में आधा फैसला, क्योंकि यह केवल ऑफिसर कैडर के लिए है).
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस तरह का कोई भी क्रांतिकारी निर्णय, विशेष रूप से देश के सशस्त्र बलों के लिए (जिनकी बहुत ही अनूठी और सटीक जरूरतें हैं) बहुत ठोस कारणों से लिया जाना चाहिए.
पहला तो यह हो सकता है कि सभी पुरुषों और महिलाओं की क्षमता और योग्यता के हिसाब से “अवसर की समानता के सिद्धांत” को लागू किया जाए. दूसरा कोई “बहुत बड़ी जरूरत हो”, जैसे जब देश में मैनपावर की कमी हो, जैसा कि विश्व युद्धों के दौरान हुआ था. मेरे ख्याल से सिर्फ ऑफिसर कैडर में महिलाओं के दाखिले वाला मामला (चाहे शॉर्ट सर्विस कमीशन हो या अब परमानेंट कमीशन वाली ऑफिसर्स) इन दोनों वजहों पर खरा नहीं उतरता.
बेशक सशस्त्र बलों की सबसे बड़ी जरूरत यह होती है कि उसमें देश के बेहतरीन लोग शामिल हों, यानी जो पुरुष और महिलाएं इच्छा रखते हों, उन्हें उसका हिस्सा बनने का एक बराबर अवसर मिलना चाहिए, इसलिए यह ऑफिसर और पर्सनल बिलो ऑफिसर रैंक (पीबीओआर) कैडर, दोनों पर लागू होता है.
यहां यह याद रखना होगा कि लड़ाई में कोई रनर-अप, यानी उपविजेता नहीं होता और हमें अपनी तरफ से सबसे अच्छी ‘पीपुल पावर’ का इस्तेमाल करना होता है, ताकि हमारा विरोधी परास्त हो सके. चूंकि उसने भी हमें हराने के लिए ऐसी ही रणनीति का इस्तेमाल किया होगा.
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अवसर की समानता का सिद्धांत
इसलिए बात यह है कि अगर महिलाओं को “अवसर की समानता के सिद्धांत” के आधार पर सशस्त्र बलों में दाखिला दिया जाता है तो उन्हें ऑफिसर और पीबीओआर, दोनों कैडर में भर्ती किया जाना चाहिए- वह भी उन मानदंडों को याद करते हुए जो दुश्मन और दूसरी जमीनी हकीकतों के मद्देनजर अहम होते हैं.
सशस्त्र बल (विशेषकर सेना) की जरूरतें बहुत अनोखी हैं, और उनके लिए बहुत अधिक शारीरिक मेहनत भी करनी पड़ती है. इसे देखते हुए अगर मजबूरन महिलाओं की भर्ती की जाती है तो यह संभव है कि वे कुछ खास शाखाओं या क्षेत्रों में भी दाखिल हो पाएं, और चुने जाने पर उन्हें पुरुषों के साथ ही प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी (हालांकि जरूरत पड़ने पर कुछ बदलावों/छूट को मंजूरी है). सिर्फ ऑफिसर कैडर तक औरतों को सीमित करना सही नहीं है.
यह “अवसर की समानता के सिद्धांत” के खिलाफ भी है जोकि महिलाओं के पूरे सामाजिक क्रॉस-सेक्शन पर समान रूप से लागू होना चाहिए.
अब दूसरी वजह यानी ‘जरूरत’ की बात की जाए जोकि इस फैसले का कारण हो सकता है. मैं नहीं समझता कि ऐसी कोई वास्तविक जरूरत थी. ऐसा यह दर्शाने के लिए किया गया था कि हमारे सशस्त्र बलों में महिला अधिकारी हैं. मुझे याद है कि उस समय इस बात का बढ़-चढ़कर प्रचार किया गया था कि गणतंत्र दिवस की परेड की मार्चिंग कंटींजेंट की अगुवाई करने वाली पहली महिला अधिकारी हमारे पास है. फिर जिसका मुझे डर था, वही हुआ. 2015 की गणतंत्र दिवस परेड में ऑल विमेन ऑफिसर्स वाला मार्चिंग कंटिजेंट उतारा गया, और जोर-शोर से इसका प्रचार किया गया.
बराबरी की बात या सिर्फ जुबानी जमाखर्च?
अगर किसी परेड में महिला ऑफिसर्स के दस्ते को उतारा जाता है तो इसका उनसे जुड़ी धारणाओं पर क्या असर होगा, यह मैं सोच भी नहीं पाता. किसी दस्ते के कमांडर, उस दस्ते का अगुवा होता है, उसका हिस्सा नहीं.
इसके अलावा अगर इस सुंदर दृश्य को रचने के लिए महिला ऑफिसर कैडेट्स को ट्रेनिंग एकेडमी से लाया जाता है तो यह समय की बर्बादी ही है. शॉर्ट सर्विस ट्रेनी ऑफिसर्स के पास पहले ही ट्रेनिंग के लिए कम समय होता है. ऐसी रस्मी कवायद उनके सिलेबस का हिस्सा नहीं होता, और इसमें फिजूल वक्त ज़ाया होता है.
ऐसा हो, तो भी, अगर सच में ‘जरूरत’ की वजह से महिलाओं को सशस्त्र बलों में शामिल किया जाता, और हमें जरूरी स्टैंडर्ड्स के हिसाब से आला दर्जे के ऑफिसर नहीं मिल पाते, तो हम इस कमी को पूरा करने के लिए सेना में महिलाओं की भर्ती करते.
अब यह भी याद करने की जरूरत है कि सिर्फ निचले रैंक्स के ऑफिसर्स की सेनाओं में कमी है, और महिला ऑफिसर्स की भर्ती करने से इस मामले में मदद मिलने वाली नहीं है.
इसके अलावा जूनियर रैंक्स पर ऑफिसर्स की कमी एक बहुत ही जटिल और एकदम अलग मुद्दा है. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर यूनिवर्सल शॉर्ट सर्विस सपोर्ट कैडेट के कॉन्सेप्ट पर काम करने की जरूरत है. इसमें शॉर्ट सर्विस ऑफिसर, चाहे वह महिला हो या पुरुष, सेना में अपनी सात-आठ साल की सेवा के बाद अन्य मौजूदा अर्ध सैनिक बलों और केंद्रीय पुलिस बलों जैसे बीएसएफ और आईटीबीपी में दूसरा वोकेशन ले सकते हैं.
अमेरिका से सबक लें
सशस्त्र बलों में औरतों को भर्ती करने के मुद्दे पर बात करें तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर हम एक कदम और आगे कैसे बढ़ सकते हैं? इसके लिए हम दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका के कदमों पर चल सकते हैं. उसके मॉडल और अनुभवों का इस्तेमाल कर सकते हैं. “अवसर की समानता के सिद्धांत” के आधार पर सशस्त्र बलों की सभी श्रेणियों में महिलाओं को शामिल करें. आधा रास्ता तय करना तो और भी बुरा होगा.
इसलिए यह सही वक्त है जब हम इस फैसले को दुरुस्त करें और इस बात पर फिर से विचार करें कि महिलाओं को पीबीओआर और ऑफिसर (शॉर्ट सर्विस और परमानेंट), दोनों कैडर में भर्ती किया जाए. यही सही मायने में बराबरी होगी, जब वे रिक्रूटिंग सेंटर्स और एनडीए या दूसरे सिंगल सर्विस टेनिंग एकैडमीज़ में भर्ती होने के लिए पुरुषों के साथ ‘समान रूप से’ प्रतिस्पर्धा कर सकेंगी.
मुझे पूरा भरोसा है कि महिलाओं के लिए भविष्य उज्ज्वल है. वे पुरुषों के साथ कदम ताल करते हुए देश की रक्षा में अपना योगदान देंगी. मैं मानता हूं कि सिलेक्शन के शुरुआती लेवल पर भी बहुत ही महिलाएं पुरुष उम्मीदवारों को पछाड़ देंगी.
मैं उस वक्त का इंतजार कर रहा हूं जब महिला ऑफिसर ग्लेशियर्स या वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर पोस्ट को कमांड कर रही होंगी और 90 या उससे भी ज्यादा दिनों तक आइस केव/आर्टिक टेंट में उस टुकड़ी के साथ रह रही होंगी जिसमें पुरुष और महिलाएं दोनों होंगे. उस दिन भारत को सचमुच गर्व होगा.
(लेखक एक अनुभवी लेफ्टिनेंट जनरल हैं, जिन्होंने लेह में रणनीतिक हाई एल्टीट्यूड 14 कॉर्प्स की कमान संभाली थी. वे मुख्यालय आईडीएस के डेप्यूटी चीफ के पद से रिटायर हुए हैं. उन्होंने 'इंडियाज आर्म्ड फोर्सेज: टेम्परिंग द स्टील' नामक एक पुस्तक भी लिखी है.)
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